हया की वो रात!

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फूट-फूट कर रोया था
वो पहली रात
उस नामुराद के लिए,
जब वो बोली थी
'तुम्हें हमबिस्तर होने का
तज़ुर्बा ही नहीं है';
उस कमरे में
एक ही बिस्तर पर
खिंच गयी थी तकिये की दीवार:
इस तरफ़ उसके अरमान
मुहाफ़िज़ बने बैठे थे
और दूसरी तरफ़ रातों की
रंगीनियां थी बेहिसाब,
न इज़्ज़त थी न अक़ीदत
बस तलब थी
आगे बढ़ते जाने की।
क़ुसूर उसका भी नहीं
कि वो जीना सीख गई,
पर क्या उसका था
कि वो कोठों की रवायतों से
अनजान क्यों था?
सुनते हैं तो कानों में
शीशे सा पिघलता है
मगर सौदायी
असभ्यता, कुसंस्कृति का तीर
बड़ी तेज़  चलता है।

जी नहीं पाऊँगी!


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तुमसे बिछड़ना और उस पर भी जीना,
तुम्हारे लिए ही सही पर वक़्त पर
अब ये अहसान मुझसे न होगा,
रोज़ पिलाते हो न
ये इंतज़ार का पिघलता शीशा,
अम्ल की बारिश मेरे मन पर
कर दो किसी रोज़;
तुम्हारी आहट का बुत
मैं खूँटी पे टाँग दूँ,
पर बोलो न कैसे
तुम्हारी याद ताक पर रख दूँ?
तुम्हारी मुस्कराहट तो
बारिश की गीली दियासलाई की तरह है,
दिखती भी फीकी सी है,
लाख मेहनत करो पर फुस्स:
कितनी दूर ले जाते हो
मेरी यादों की मिसाइल,
मेरी आँखें दीदार-ए-शबनम नहीं माँगती,
तुम्हारी जुस्तजू, तुम्हारे मौसम
नहीं माँगती;
इन्हें रौनकें लौटा दो
अपनी सुबहों की, हमारी रातों की,
अपने जोश और नशीली बातों की,
आओ न कि दर्द की छतरी में
कुछ देर ठहरकर दो-दो बूँद
ज़िन्दगी की पी लेंगे,
तुम्हारी टूटी मुस्कान, हमारा छूटा इंतज़ार
एक साथ जी लेंगे।

ये तड़प बार-बार सुन लो!

बस मेरी पुकार सुन लो
दर्द में है प्यार सुन लो
आओ न इधर तो देखो
ये तड़प बार बार सुन लो


वक़्त की बूंद पर नाम लिखूंगी तेरा!

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तुम्हारे बग़ैर मेरी रात नहीं गुजरती है,
मेरे बिना तो तुम्हारे
दिन हफ़्ते महीने निकल जाते हैं,
मैं समय की हर बूँद पर
तुम्हारा बस तुम्हारा अक्स देखती रहती हूँ
और तुम
वक़्त की सिलवटों पर
अपनी पदचाप भी नहीं छोड़ते;
आ जाओ न कि तुम्हें
मेरी मायूस शामों का वास्ता,
मेरे फिक्र-ए-ग़म में,
ग़म के तन्हा सफ़र में,
सफ़र की मुक़द्दस मुस्कान में
बताओ न
कि मैं कब दर्द की उल्टी गिनती गिनूं,
या मैं तुम्हारे बग़ैर जियूँ
और बस जीती रहूँ।
अपने लिए न सही, मेरे लिए आ जाओ,
साथ होते हुए भी जो गुम गया
सुनो, आते हुए वो लम्हा भी ले आओ।

मुझे वो हर सहर उधार दे

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सरे-शाम से लिये चिराग,
तेरी याद में मैं बेहिसाब,
बैठी हूँ तेरे सिजदे को,
मुझे एक रात नवाज़ दे।
कहाँ है मुझको ये बता,
सुलग रही है मेरी जफ़ा,
फिक्र है मुझे बस तेरी,
तू कहीं से तो आवाज़ दे।
तेरे नूर को मैं चूम लूँ,
प्यारा है मेरा रहनुमा,
वरक़-वरक़ सिमट सकूँ,
बस तेरे लफ्ज़ सँवार दे।
न छाँव अपनी दे मुझे,
न नाम का तू अक्स दे,
जो शाम तुझमें हो घुली,
मुझे वो हर सहर उधार दे।

आज की रात मुझे.....


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सुनो,
जो कल दो पन्नों वाली मुलाक़ात लिखी थी न
उसमें कुछ रह सा गया है,
अभी अपनी उस दिन वाली तकरार नहीं लिखी
और हाँ इश्क़ के फफोलों पर ठंडे मरहम वाली बात
वो भी तो नहीं लिखी।
पहले तो सब मुझे कहते थे दीवानी तुम्हारी
और तुम हर बात में पगली,
मगर अपना भी मौसम बदल गया है,
इश्क़ की दुकान में भाव ऊंचे हो गए हैं,
अब कोई नहीं कहता
एक लड़की थी दीवानी मगर पागल;
अब सब कहते हैं न
मैं मज़मून हूँ मोहब्बतों का,
दर्द के गुश्ताक़ दरिया में बेज़ार बहता हुआ;
क्या समझूँ इसे मैं
बेपनाह समंदर में डूबने की हौसला-अफ़ज़ाई
या तुम्हारे नाम की आयतों का कलमा,
क्या है मेरा मुक़द्दस कल
दिन से मुतमइन मगर रोशनी से बेज़ार:
अच्छा बताओ तो सही
इस इबारत को क्या नाम दूँ?
सुनो तुम जल्दी आओ न!
मन कुछ भारी सा हो रहा
नींबू पानी और मोहब्बत की एन्टी डोज
दोनों जरूरी हैं मेरे लिए
पर आते वक्त नुक्कड़ से
अपनी पुरकशिश मुस्कराहट लाना मत भूलना
आज की रात मुझे ये फलसफा लिखना है

तुम्हारे शब्द!

हमने रातों के जुगनुओं से रोशनी लेकर
तुम्हारी स्याही को अपनी कलम से
शब्दों में पिरोया है,
अब इन शब्दों से वफ़ा हमें
ताउम्र निभानी है।
ये खाली शब्द होते तो
सो जाते कविता में ढलकर
मगर ये तो हमें रातों को जगाते हैं,
तुम्हारे पास होने का
अहसास कराते हैं,
हमारे आँसुओ से लिपट जाते हैं,
जब सारा जहां रात की रंगीनियों में
खोया सा है,
सारा आलम तुम्हारे साथ सोया सा है,
हमारे भीतर की हौले से
सिहरन बढ़ाते हैं,
तुम न हो बस तुम्हारे दिए
ये शब्द नज़र आते हैं।

ऐसी है मेरी वो!

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 वो दिन से लम्हे, चेहरे से नूर
और कभी-कभी तो
मुँह से बातें भी चुराती है
ऐसी है मेरी वो!
मुझे मेरे नाम से बिंदास बुलाती है,
कुछ ग़लत मेरे नाम का
सुनती है न सुनाती है;
मुझको तो वो सौ बार मनाती है
मगर खुद भी रूठ जाती है;
उसके झगड़ने की अदा उफ्फ!
सौ प्रश्नों की सूची बनाती है,
उत्तर एक का भी नहीं पाती है,
मेरी शिकायतों पर हैरान
थोड़े से ही परेशान,
मेरे लिए तो खुद को भी सताती है,
ऐसी है मेरी वो!
दुनिया की कोई बात उसे अच्छी न लगे,
मेरे बगैर कोई रात उसे अच्छी न लगे,
कहती है इस दिल की तरह
तुम्हारा हर दिन भी तो मेरा है,
मेरे बगैर धूप-छांव बरसात उसे अच्छी न लगे,
मुझसे मुतमईन हर दुनिया कविता में सजाती है,
ऐसी है मेरी वो!
मेरी आँखों की खुशी पढ़ती है
अपने आंसुओं का दर्द छुपाकर,
जीती है संग मेरे हर पल
बिना रिश्ते के हर बन्धन निभाकर,
मैं कहीं छुपना भी चाहूँ
किस कदर रोती है मुझको बुलाकर,
वो जंगली बिल्ली है मेरी,
प्यारी है मुझे भी तो,
दुलारती है मेरे वजूद को सीने से लगाकर,
ऐसी है मेरी वो!

कहाँ हो तुम?

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सुनो, सुन रहे हो न!
हमें पल-पल ऐसा क्यों लगता है
कि तुम हमें सुनना नहीं चाहते
तभी तो कर रहे हो न अनसुना;
देखो न! इंतज़ार की रंगत
गुलाबी से नीली हो गयी,
आँखे पीली सी थीं ही गीली हो गयी;
हम खुद से खुद में मथे जा रहे
और तुम हो कि!!!
तुम्हे जो सुख सड़क के कोलाहल,
गाड़ियों के सायरन से मिलता है
हमें डोर बेल में:
तुम्हे प्रतीक्षालय भाता है
और हमे तुम्हारे इंतज़ार में घर का द्वार
आओ न, बस चाय पियेंगे साथ
एक प्याली चाय
जो तुम एक बार में ही उतार लोगे
हलक से नीचे
और हम घूँट-घूँट में
तुम्हारा रसास्वादन करेंगे,
लम्हा-लम्हा तुम्हारे होने का अहसास जियेंगे,
आओ न कि समय ने
खुरच दी हैं दर्द की गहरी लकीरें,
एक शाम का मरहम
तुम्हारे मन की उंगलियों से
हमारे दर्द की हर नब्ज़ पर रखने
बोलो कब आओगे?
कहीं तुम्हारा आना
हमारे खुशी की मरीचिका तो नहीं??

माँ

बारिश, जुगनू, गुड़िया,
देखा फिर होश कहाँ,
रंग, तितली, फूल, हवा,
अब ये ही मेरी दुनिया।
नन्हीं आँखे, नन्हें सपने,
बस देखे है तेरी मुनिया।
कोई और भाए न मुझे,
मेरा जीवन तो तू है माँ।

स्त्री या सुनामी!

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सुनो, तुम दिन भर खटती रहती हो
घुँघरू की ताल पर नाचती हुई
सबके लिए फिक्रमंद
जरूरतों के मुताबिक
थोड़ा-थोड़ा जीती हो,
कभी घर के हिसाब में,
कभी बच्चों की तकरार में,
कभी माँ-बाबूजी की अवस्था
को समझने में
खुद भी उलझ जाती हो,
घर के राशन से दवाई तक
रिश्ते-नातों से लेकर
बच्चों की पढ़ाई तक,
समाज, घराना, मित्र व्यवहार
सबमें इतनी सजग
जैसे समर्पण की देवी हो,
सबको अपना बना लेती हो,
हथेलियों से छांव करने को आतुर,
बस नेह के लिए बनी हो,
चेहरे पर बसी पुरकशिश मुस्कान
सारे रहस्य छुपा लेती है,
कभी तो थकती होगी,
कुछ तो दुखता होगा,
कोई तो शिकायत होगी,
कितनी सहजता से पीती हो
दर्द का विष
जैसे योगी ने हिमालय पे पिया था;
हजार आशनाओ में लिपटी वो मादकता,
आज भी यौवन की हथेली पर
ओस की बूँद सी दिखती है:
दिन की टिक-टिक पर थिरक कर भी
ऐसे सजाती हो मेरी रातों को
कि हर रात निखर जाती है
सुहागरात में;
तुम्हारी हर छुअन पहले स्पर्श जैसी,
वही कोमलता
जो रग-रग में स्रावित होती है,
मेरे हर आग्रह पर आज भी
उतनी ही समर्पित
तुम्हारा उद्वेग
मेरे आवेश को समा लेता है,
तुम जीती रहती हो मुझे बूँद-बूँद
मेरे स्खलित होने तक;
मैं निढ़ाल हो जाता हूँ
तुम फिर भी सजग रहती हो
जीवन के जतन में,
जितना मैं दिन और रात में जीता हूँ,
तुम जीती रहती हो पल-पल,
रात्रि की कोमलांगना
दिन की अष्टभुजी बन जाती हो,
वाह, क्या बात है तुममें
स्त्री हो या सुनामी!
जहाँ भी रहती हो,
लहरों की तरह
बस तुम ही तुम रहती हो।

मेरी पहली पुस्तक

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