हम बड़े क्यों हो गए

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तुम्हारे आलिंगन में
आज वो अनुभव नहीं रहा,
तुम्हारे अनुभवों में
अब वो मिठास नहीं रही.
पहले तो नहीं आते थे ऐसे
जैसे कि तुम्हारा आना
कोई बहुत बड़ी बात हो.
वो तुम्हारे
छोटे-छोटे गिफ्ट्स
मुट्ठी भर टाफी, चोकलेट्स
और हाँ
खिलौनों में छुपा
तुम्हारा चेहरा.
हर शाम
लौटते वक़्त
लाते थे
हमारे लिए 'चिज्जी'
जिसकी मिठास
अभी तक जिन्दा है.
कितना संबल मिलता था
तुम्हारी बाहों में आकर.
कितनी रिश्वत दे डालते थे
देवी-देवताओं को
मेरे एक बार खांसने पर
यही तो सच है न
पर आज
वही पुराने दिन क्यों नहीं हैं,
आज तुम्हारा आना
ऐसे क्यों लगता है
जैसे
खानापूर्ति हो?
ऐसा क्यों हो गया
'पापा'
उम्र बढ़ने से
रिश्ते छोटे क्यों हो गए,
क्यों सिमट गया
तुम्हारा प्यार
जिम्मेदारियों के बोझ तले
क्यों छिन गया हमसे
हमारा बचपन
पापा
हम बड़े क्यों हो गए?

प्रद्युम्न, अब तुम कभी नहीं आओगे!

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अक्सर छोटे बच्चे स्कूल जाते वक्त
अपनी माँ को इन बोलों की थपकी दे जाते हैं,
'माँ, मैं जा रहा हूँ
तुम अकेले रहोगी न घर पर,
डरना मत!
यहीं दरवाजे पर इंतज़ार करना...'
माँ कितने भी काम निपटा ले
पर उसकी चौकस नज़रें
दरवाजे पर पहुंच ही जाती हैं;
ऐसा ही कुछ साधारण सा दिन रहा होगा
जब उस नन्हें से लाल के कदम
दहलीज़ से बाहर गए होंगे
कभी वापिस न आने के लिए;
उस रोज़ भी हर रोज़ की तरह
माँ ने दी होगी जादू की झप्पी;
काश कि माँ को आभास हो जाता
और वो बच जाता
अखबारों की सुर्खियां बनने से,
वक़्त उसे तारीख़ न बनाता:
उस ममता को आभास नहीं हुआ
वो रोशनी लेकर चला गया
पर एक सबक छोड़ गया पीछे
हम सभी के लिए
कि हम अपने कलेजे के टुकड़ों की
रक्षा ख़ुद करें;
किसी और घर में दूसरा प्रद्युम्न न आये:
हर माँ का लाल देश का नौजवान है,
क्या हैवानियत निगल ही लेगी
इंसानियत को और हम याद में
कैंडल जलाते रहेंगे??

अपना-अपना आसमान

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एक अरसे के बाद
आज माँ ने
बहुत दुलारते हुए कहा,
' जितना समेटती जाओगी
खुद को
उतनी ही
फैलती जाएगी ये दुनिया,
जितना पास जाओगी
हर किसी के
उतना ही खाली होता जायेगा
मन तुम्हारा,
कब तक पढ़ती रहोगी
दुनियादारी की किताब,
कोई आँखें चुनो
जो तुम्हें पढ़ सकें,
ज़िन्दगी एक सफर ही नहीं
मुनासिब मंज़िल भी है
महज अपना आज ही जीना
ज़िंदादिली तो है
पर समझदारी नही.……
………………… '
इसके आगे भी
बहुत कुछ कहती रही माँ
कुछ तो सुन लिया मैंने
कुछ निकलता रहा ऊपर से.
एकबारगी मन किया
माँ की गोद में सर रखकर
जार-जार रो लूँ,
पर सहम गयी मैं
कहीं माँ पढ़ न लें आज मेरा मन,
एक बार फिर मैंने
अपने सुर्ख आँखों की तपिश
अंदर ही पी ली थी,
माँ का हाथ थामा
निकल आई तारकोल की सड़क पर,
एक बच्चे की तरह
माँ से ज़िद की
एक लाल और
एक नीले गुब्बारे के लिए,
लाल पर अपना
और नीले पर
तुम्हारा नाम लिखकर
उनकी डोर छोड़ दी,
कुछ दूर साथ रहकर
उन दोनों ने अलग
अपना-अपना आसमान ढूंढ लिया.

कोई गुज़ारिश नहीं है अब तुमसे!

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निस्तेज पड़ी रगों में
लहू का संचार नहीं चाहिए
न रुमानियत को गलाने वाली ऊष्मा,
दर्द हर जड़ों से
ज़ार-ज़ार पिघल रहा है;
ढल रहा है चाँद, रात के साथ
और मैं तेरे तिलिस्म में:
हाशिये पे रखी थी जो उम्मीद तूने
वो डायरी के पन्नों की
गुज़री हुई तारीख थी,
अब कोई अहसास ज़िंदा मत करना
कि मैं दर्द की एक सुबह नहीं चाहती,
जन्नत मिले या दोज़ख़ मुझे
जिस्म को रूह से बस जुदा चाहती।

ULJHAN


हया की वो रात!

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फूट-फूट कर रोया था
वो पहली रात
उस नामुराद के लिए,
जब वो बोली थी
'तुम्हें हमबिस्तर होने का
तज़ुर्बा ही नहीं है';
उस कमरे में
एक ही बिस्तर पर
खिंच गयी थी तकिये की दीवार:
इस तरफ़ उसके अरमान
मुहाफ़िज़ बने बैठे थे
और दूसरी तरफ़ रातों की
रंगीनियां थी बेहिसाब,
न इज़्ज़त थी न अक़ीदत
बस तलब थी
आगे बढ़ते जाने की।
क़ुसूर उसका भी नहीं
कि वो जीना सीख गई,
पर क्या उसका था
कि वो कोठों की रवायतों से
अनजान क्यों था?
सुनते हैं तो कानों में
शीशे सा पिघलता है
मगर सौदायी
असभ्यता, कुसंस्कृति का तीर
बड़ी तेज़  चलता है।

जी नहीं पाऊँगी!


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तुमसे बिछड़ना और उस पर भी जीना,
तुम्हारे लिए ही सही पर वक़्त पर
अब ये अहसान मुझसे न होगा,
रोज़ पिलाते हो न
ये इंतज़ार का पिघलता शीशा,
अम्ल की बारिश मेरे मन पर
कर दो किसी रोज़;
तुम्हारी आहट का बुत
मैं खूँटी पे टाँग दूँ,
पर बोलो न कैसे
तुम्हारी याद ताक पर रख दूँ?
तुम्हारी मुस्कराहट तो
बारिश की गीली दियासलाई की तरह है,
दिखती भी फीकी सी है,
लाख मेहनत करो पर फुस्स:
कितनी दूर ले जाते हो
मेरी यादों की मिसाइल,
मेरी आँखें दीदार-ए-शबनम नहीं माँगती,
तुम्हारी जुस्तजू, तुम्हारे मौसम
नहीं माँगती;
इन्हें रौनकें लौटा दो
अपनी सुबहों की, हमारी रातों की,
अपने जोश और नशीली बातों की,
आओ न कि दर्द की छतरी में
कुछ देर ठहरकर दो-दो बूँद
ज़िन्दगी की पी लेंगे,
तुम्हारी टूटी मुस्कान, हमारा छूटा इंतज़ार
एक साथ जी लेंगे।

ये तड़प बार-बार सुन लो!

बस मेरी पुकार सुन लो
दर्द में है प्यार सुन लो
आओ न इधर तो देखो
ये तड़प बार बार सुन लो


वक़्त की बूंद पर नाम लिखूंगी तेरा!

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तुम्हारे बग़ैर मेरी रात नहीं गुजरती है,
मेरे बिना तो तुम्हारे
दिन हफ़्ते महीने निकल जाते हैं,
मैं समय की हर बूँद पर
तुम्हारा बस तुम्हारा अक्स देखती रहती हूँ
और तुम
वक़्त की सिलवटों पर
अपनी पदचाप भी नहीं छोड़ते;
आ जाओ न कि तुम्हें
मेरी मायूस शामों का वास्ता,
मेरे फिक्र-ए-ग़म में,
ग़म के तन्हा सफ़र में,
सफ़र की मुक़द्दस मुस्कान में
बताओ न
कि मैं कब दर्द की उल्टी गिनती गिनूं,
या मैं तुम्हारे बग़ैर जियूँ
और बस जीती रहूँ।
अपने लिए न सही, मेरे लिए आ जाओ,
साथ होते हुए भी जो गुम गया
सुनो, आते हुए वो लम्हा भी ले आओ।

मुझे वो हर सहर उधार दे

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सरे-शाम से लिये चिराग,
तेरी याद में मैं बेहिसाब,
बैठी हूँ तेरे सिजदे को,
मुझे एक रात नवाज़ दे।
कहाँ है मुझको ये बता,
सुलग रही है मेरी जफ़ा,
फिक्र है मुझे बस तेरी,
तू कहीं से तो आवाज़ दे।
तेरे नूर को मैं चूम लूँ,
प्यारा है मेरा रहनुमा,
वरक़-वरक़ सिमट सकूँ,
बस तेरे लफ्ज़ सँवार दे।
न छाँव अपनी दे मुझे,
न नाम का तू अक्स दे,
जो शाम तुझमें हो घुली,
मुझे वो हर सहर उधार दे।

आज की रात मुझे.....


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सुनो,
जो कल दो पन्नों वाली मुलाक़ात लिखी थी न
उसमें कुछ रह सा गया है,
अभी अपनी उस दिन वाली तकरार नहीं लिखी
और हाँ इश्क़ के फफोलों पर ठंडे मरहम वाली बात
वो भी तो नहीं लिखी।
पहले तो सब मुझे कहते थे दीवानी तुम्हारी
और तुम हर बात में पगली,
मगर अपना भी मौसम बदल गया है,
इश्क़ की दुकान में भाव ऊंचे हो गए हैं,
अब कोई नहीं कहता
एक लड़की थी दीवानी मगर पागल;
अब सब कहते हैं न
मैं मज़मून हूँ मोहब्बतों का,
दर्द के गुश्ताक़ दरिया में बेज़ार बहता हुआ;
क्या समझूँ इसे मैं
बेपनाह समंदर में डूबने की हौसला-अफ़ज़ाई
या तुम्हारे नाम की आयतों का कलमा,
क्या है मेरा मुक़द्दस कल
दिन से मुतमइन मगर रोशनी से बेज़ार:
अच्छा बताओ तो सही
इस इबारत को क्या नाम दूँ?
सुनो तुम जल्दी आओ न!
मन कुछ भारी सा हो रहा
नींबू पानी और मोहब्बत की एन्टी डोज
दोनों जरूरी हैं मेरे लिए
पर आते वक्त नुक्कड़ से
अपनी पुरकशिश मुस्कराहट लाना मत भूलना
आज की रात मुझे ये फलसफा लिखना है

मेरी पहली पुस्तक

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