अपना-अपना आसमान

 PC: GOOGLE

एक अरसे के बाद
आज माँ ने
बहुत दुलारते हुए कहा,
' जितना समेटती जाओगी
खुद को
उतनी ही
फैलती जाएगी ये दुनिया,
जितना पास जाओगी
हर किसी के
उतना ही खाली होता जायेगा
मन तुम्हारा,
कब तक पढ़ती रहोगी
दुनियादारी की किताब,
कोई आँखें चुनो
जो तुम्हें पढ़ सकें,
ज़िन्दगी एक सफर ही नहीं
मुनासिब मंज़िल भी है
महज अपना आज ही जीना
ज़िंदादिली तो है
पर समझदारी नही.……
………………… '
इसके आगे भी
बहुत कुछ कहती रही माँ
कुछ तो सुन लिया मैंने
कुछ निकलता रहा ऊपर से.
एकबारगी मन किया
माँ की गोद में सर रखकर
जार-जार रो लूँ,
पर सहम गयी मैं
कहीं माँ पढ़ न लें आज मेरा मन,
एक बार फिर मैंने
अपने सुर्ख आँखों की तपिश
अंदर ही पी ली थी,
माँ का हाथ थामा
निकल आई तारकोल की सड़क पर,
एक बच्चे की तरह
माँ से ज़िद की
एक लाल और
एक नीले गुब्बारे के लिए,
लाल पर अपना
और नीले पर
तुम्हारा नाम लिखकर
उनकी डोर छोड़ दी,
कुछ दूर साथ रहकर
उन दोनों ने अलग
अपना-अपना आसमान ढूंढ लिया.

कोई टिप्पणी नहीं:

मेरी पहली पुस्तक

http://www.bookbazooka.com/book-store/badalte-rishto-ka-samikaran-by-roli-abhilasha.php