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निस्तेज पड़ी रगों में
लहू का संचार नहीं चाहिए
न रुमानियत को गलाने वाली ऊष्मा,
दर्द हर जड़ों से
ज़ार-ज़ार पिघल रहा है;
ढल रहा है चाँद, रात के साथ
और मैं तेरे तिलिस्म में:
हाशिये पे रखी थी जो उम्मीद तूने
वो डायरी के पन्नों की
गुज़री हुई तारीख थी,
अब कोई अहसास ज़िंदा मत करना
कि मैं दर्द की एक सुबह नहीं चाहती,
जन्नत मिले या दोज़ख़ मुझे
जिस्म को रूह से बस जुदा चाहती।
लहू का संचार नहीं चाहिए
न रुमानियत को गलाने वाली ऊष्मा,
दर्द हर जड़ों से
ज़ार-ज़ार पिघल रहा है;
ढल रहा है चाँद, रात के साथ
और मैं तेरे तिलिस्म में:
हाशिये पे रखी थी जो उम्मीद तूने
वो डायरी के पन्नों की
गुज़री हुई तारीख थी,
अब कोई अहसास ज़िंदा मत करना
कि मैं दर्द की एक सुबह नहीं चाहती,
जन्नत मिले या दोज़ख़ मुझे
जिस्म को रूह से बस जुदा चाहती।
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