एंटीक पीस हूँ मैं....


कभी फ़िकर नहीं करती
कि कैसी दिखती हूँ मैं
मुझे परवाह है तो इतनी
कि तुम कैसे देखते हो मुझे
मैं
रंग और नूर की
बारात का हिस्सा तो नहीं हूँ
मग़र
कोई अधूरा किस्सा भी नहीं।
मैं
नवाबों के शहर की
शान तो नहीं
पर गुमनाम भी नहीं हूँ,
मैं
मूक ही सही
वाचाल तो शब्द हैं मेरे,
मुझमें
रंगीनियां कब हैं जमाने की
सादगी में लिपटी
श्वेत-श्याम तस्वीर हूँ मैं,
सूरत में
नहीं हूँ
मैं तो
सीरत में हूँ,
खुद के लिए
कब थी मैं
मग़र
सभी की
जरूरत में हूँ,
बादशाहत के किस्सों से
बाहर हूँ
बस
अपने मन की
मुमताज़ हूँ,
जो पढ़ी जा सके
वो
किताब नहीं हूँ
फ़क़त
दास्तां हूँ
अहसासों की
सबके दिलों की
आवाज़ हूँ मैं,
ज़र्रा-ज़र्रा
जीती हूँ
दर्द में
मरती हूँ
हर पल,
हवाओं सी
बहती हूँ
झरनों सी
करती हूँ
कल-कल,
जब
प्रेम की
फुहारें बरसती हैं
खिल जाती हूँ
बनकर
इंद्रधनुष,
मार्तंड सा
तपती हूँ
बर्फ सा पिघलकर
जब
रुदन करती हूँ
आकाश
नाचता है
धरती के
स्पंदन पर।

दुःख में सत्य चीखता है...

दुःख रात का वो पहर नहीं जहाँ नितांत अंधेरा है
दुःख तो वो पल है जब आपके कदम ठहर जाएं
दुःख वो कहर नहीं जहाँ उम्मीदें टूटती हैं
दुःख तो वो जहर है जिसे पीकर आप उम्मीद करना छोड़ दें
दुःख बियाबान जंगल नहीं
दुःख तो वो छाँव है जहाँ आप दिशा भटक जाएं
दुःख वो नहीं जो किसी के चले जाने पर हो
दुःख तो किसी के साथ होते हुए भी न अपनाने पर है
दुःख वो नहीं जो हताश कर दे
दुःख तो वो है जो आशा को निराश कर दे
दुःख वो नहीं जब अन्न न मिले
दुःख तो वो है कि आपके पास अन्न हो और सेवन न कर सकें
दुःख वो नहीं जब आपके पाँव में जूते न हो
दुःख तो वो है कि जूते पहनने को पाँव न हो।

प्रिय को पत्र

साथिया....
स्याह रात की सर्द चाँदनी में अनमने से बैठे थे हम, कुहासे के द्वार पर तुम्हारी दस्तक हुई। उद्देश्यहीन जीवन में सपने कुलाँचें भरने लगे। झिलमिल सितारों के बीच तुम्हारा आना उजालों के साथ मधुरता भी घोल गया। जीवन के सारे रंगों से परिचित थे हम पर किसी अजनबी के प्रति स्नेह समर्पण जैसे भाव से अनभिज्ञ भी। यौवन की दहलीज पर खड़े थे। घोड़े पर राजकुमार के आने की बहुत सी कहानियां सुन रखी थीं हमने पर तुम वही राजकुमार हो ये तो सोचा ही नहीं। 
हम दुनियावी बातों में सहजता से विश्वास नहीं करते हैं पर हमारा मन क्या कहता है उसे कभी झुठलाते नहीं। तुम्हें हमारे मन ने देखा, समझा और जाना बस इतना ही बहुत था कि हम तुम्हें जितना ही चाहते हैं वो कम लगता है। साथी तो इस दुनिया में बहुत मिलते हैं, साथ भी मिल जाता है पर मन का साथिया किसी को ही मिलता है। तुम त्याग, प्रेम, स्नेह, सहजता..... की मूरत लगे हमे। हम अपने प्रेम की छांव में ऐसे चल पड़े जैसे तूफान में कोई मुट्ठी में घास थामकर सहारा लेता है। हम प्रेम की छांव का अनुभव करने लगे और तुम हमारे रास्ते मे आने वाली कठिनाइयों का। हम तुम्हारे संग घूँट-घूँट सुधारस पान कर रहे थे। तुम्हारी हथेलियों को स्पर्श करते ही हम ऊष्मा से भर जाते थे। जब अपनी मुट्ठी में जकड़ते थे हमारी हथेलियाँ, स्पंदन से भर जाता था मन। 
हम निरन्तर प्रेम की पगडंडी पर बढ़ रहे थे पर ये आभास भी था कि हमारी मंजिल अलग है। तुम हमारी राह के साथी थे जब तक साथ हैं मन, वचन, कर्म और स्नेह से तुम्हारे हैं। जब अलग होंगे हमारे प्रेम का चिर-यौवन प्रस्फुटित होगा और हम पहले से भी कहीं अधिक अपनेपन से बस तुम्हारे रहेंगे। हमारे लिए  प्रेम ईश्वर है। तुम जितने कहीं बाहर हो उससे कई गुना अधिक हमारे भीतर हो। हम नहीं चाहते तुम अपनी दुनिया में हमें सम्मिलित करो पर तुम हमारी दुनिया हो ये कहने के अधिकार से हमें वंचित न करो। तुम तो हमारे रोम-रोम में हो, कण-कण में तुम्हीं दिखते हो। हमने जब से तुम्हें जाना, समय मौसम, काल का अनुभव नहीं। तुम हँसते हो तो दिन है, तुम्हारी उदासी रात लगती है हमें। 
तुम हमारे नहीं हो फिर भी हमें दुःख नहीं पर जिस घड़ी हम तुम्हारे न रहे वो अंतिम होगी। तुम हमारे लिए हार या जीत नहीं, हमारा स्वाभिमान हो। हमने प्रेम को सत्ता के रूप में नहीं देखा सम्मान के साथ जिया है। तुम्हें एक स्वतंत्र साथी के रूप में देखना चाहते हैं। हम तुम्हें उसी तरह प्रेम करते रहना चाहते हैं जैसे करते थे। कहते हैं प्रेम में तन का समर्पण आवश्यक है तो हम निष्ठा से समर्पित हैं, आगे भी रहेंगे...जन्म-जन्मांतर तक पर तन की प्यास बुझाकर नहीं, प्रेम को प्रेम का बंधन समझाकर। दो प्रेम करने वालों का अति आकर्षण शरीर के सुख में परिणित हो जाता है पर हमारा शाश्वत प्रेम इस मान्यता के परे है। शारीरिक सुख वो चरमोत्कर्ष है जहाँ प्रेम क्षीण हो जाता है। मन दुर्बल हो जाता है। इन आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए सामाजिक मान्यताओं का होना आवश्यक है। हम अपनी तुष्टि के लिए इनका दोहन नहीं करेंगे। हमारा प्रेम भावनाओं के चरम पर है। तुम्हें अनुभव करते रहने की मन की व्याकुलता हर पल बढ़ती है। हम हर रातों को सपनों के महल बुनते हैं इस विश्वास के साथ कि तुम हर सुबह उनको आकार दोगे। हमारे स्नेह का मर्म समझोगे और हम हर रोज लिखते रहेंगे अपने प्रेम की पाती...... प्रियतम के नाम।
पलकों पे निंदिया की डोली सजी है सपने में आना।

तुम्हारी प्रतीक्षा में,
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तेरा-मेरा साथ

चुटकी भर सिंदूर
और मंगलसूत्र
बाँध देते हैं परिणय सूत्र में,
अग्नि के सात फेरे
देते हैं साथ चलने का साहस,
मंत्रो की वैदिक ऋचाएँ
बनती हैं एक-दूजे की आवाज़ें,
दो अजनबी मन
पास आने से पहले
लेते हैं सात वचन,
आकाश तभी तो झुकता है आशीष को
जब धरती पाँव पखारती है,
सुहागरात का प्रणय
कब समर्पण बन जाता है
अल्हड़ मन
घूँघट की ओट से रीझता है
बिना समझे ही हर मन
परिपाटी निभाता है,
विदा तो हर बार बस
बेटियाँ ही होती हैं
पर संस्कारों में
किसी और देहरी का
मान बढ़ाने को।

वुड बी मदर हूँ मैं....

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तुम जैसे-जैसे बड़े हो रहे हो
मेरे भीतर
मेरी देह आकार बदलने लगी 
उठना-बैठना, चलना-फिरना
सब कुछ बदल गया 
मेरी दिनचर्या के साथ,
यहाँ तक कि मेरी सूरत भी
कभी खूबसूरत दिखती मैं
तो कभी न देख सकने वाली सूरत
महसूसना चाहती हूँ
तुम्हारा हिलना-डुलना हर पल
जब रातों में तैरते हो मेरे अंदर
बहुत जी चाहता है
थपकी देकर सुला दूँ
अनायास ही लोरी आ जाती है
होंठों पर,
पूरे शरीर में आ गए हो तुम
कीवी, नींबू, सन्तरा
और अब तो एक बड़े आम 
के आकार में दिखते हो
सिर पर आए बालों ने
तुम्हें बच्चा बना दिया,
सुन सकते हो न मुझे
तभी तो हर तेज आहट पर
प्रतिक्रिया महसूसती हूँ तुम्हारी
अपनी भूख से ज़्यादा 
खाने लगी हूँ आजकल
वजह-बेवजह डॉक्टर को फ़ोन लगाती हूँ
झेल जाती हूँ उसका तंज भी
कि मैं दुनिया में 
पहली वुड बी मदर तो नहीं,
मेरी हजार चिन्ताएं
और इनकी एक तसल्ली भरी छुवन
मेरी हर उत्सुकता को पल में शांत करते
मेरा रोम-रोम खिल जाता
जब ये कृतज्ञ भाव से आँखें झुकाते
मानो मुझे धन्यवाद दे रहे हों
जीवन की सबसे बड़ी खुशी 
अर्पित करने को
... और फिर तुम
कुलांचे भरते रहते अंदर
जब तक कि
ये अपने हाथों की थपकी से न सुला दें।

फिर मिलते हैं...

चलो ज़िन्दगी से दरख्वास्त की जाए
जगते रहने की इजाज़त दे मुक़म्मल नींद से पहले।

शुभ रात्रि

बराबरी का समीकरण

हर वर्ष
'महिला दिवस'
मनाया जाता है
कहीं ये सोचकर
पुरुष अपनी कॉलर
ऊंची तो नहीं करते
कि साल के 364 दिन
तो उनके ही हैं,
आगे से एक दिन
'पुरुष दिवस'
भी होना चाहिए
ताकि
बराबरी का समीकरण
बना रहे।

प्रेम: कल्पनीय अमरबेल.....तृतीय अंक


गतांक से आगे...


"और बताओ...कहाँ हो??" उफ्फ 11 दिन 22 घण्टे 44 मिनट बाद आज इनका फोन आया। मैं खुशी से रुआंसी हो गयी। पूरे 56 सेकण्ड्स तक ब्लैंक कॉल चलती रही। मैं इनका अपने पास होना फील कर रही थी...
"कुछ बोलोगी भी या नहीं?" इन्होंने तंज भरे शब्दों में बोला। मुझे तो कुछ समझ ही नहीं आ रहा था कि शुरू कहाँ से करूँ। कैसे कहूँ कि ये दिन कैसे बीते, मैं तो तुम्हारी आवाज़ सुने बग़ैर दिन का एक पहर नहीं जाने देती हूँ और तुमने इतने दिन निकाल दिए। एक बार भी न सोचा कि इस वक़्त मुझे तुम्हारे साथ की बहुत जरूरत है। प्रेम ही तो वो सम्बल होता है जो इंसान को हर भंवर से पार ले जाता है। मैं चाहती तो आज तुम्हारे इस कटु प्रश्न का उत्तर देती पर मैं कमज़ोर हूँ ज़िन्दगी, सिर्फ तुम्हारे लिए और तुम हो कि मुझे मेरे जैसा कभी समझते ही नहीं। शिकायतें बहुत हैं पर मेरा बेपनाह प्यार काफी है मुझे समझाने के लिए। किसी भी तरह से तुम्हारी उपस्थिति बनी रहे, तुम खुश रहो, मैं हर दर्द झेल लूँगी। 
"बात नहीं करनी है न, फोन रखूँ.."
"नहीं वो बात नहीं है...अच्छा तुम कैसे हो"
"मुझे क्या हुआ, बिल्कुल ठीक हूँ"
"ह्म्म्म, गुड हमेशा ऐसे ही रहो।"
"अब तुम्हारा दर्द कैसा है?"
"ठीक" सच ही कहा था मैंने बस एक फ़ोन कॉल और मेरा दर्द सचमुच ग़ायबतुम भी क्या जादू कर देते हो।
"और बताओ, क्या चल रहा है..." कैसे प्रश्न पूछते हो तुम भी, तुम्हारे बग़ैर तो सांस भी रुकने लगती है फिर कुछ और चलने का तो कोई सवाल ही नहीं। मैं इस उलझन में थी कि तुम कुछ बोलते और मैं बेताब सी सुनती तुम्हारी बातें जैसे खूंटी पर टांग दी हो सारी उलझनें। फोन पर मैं तुम्हारे साँसों की हरारत महसूस कर रही थी।मेरी याद तुम्हारी आँखों की सुर्ख धारियों में जाकर टंग गयी थी कि काम के बोझ में हंसना-बोलना भूल गए हो। होंठ भी तो ज़र्द पड़ गए हैं और तुम्हारे हाथों की नाजुक सी उंगलियां गर्म अहसास की छुअन से महरूम हैं। थक जाते होंगे न दिन भर व्यस्तता से दौड़ते पाँवमन करता है अभी तुम्हें सीने में छुपा लें। कितने बावले हो खुद का भी ध्यान नहीं रखते....
"क्या खाया सुबह से अब तक?"
"अगर नहीं खाया होगा तो खिलाओगी क्या?"
"नहीं बाबा, वो बात नहीं..." कैसे कहूँ कि जब तक तुम नहीं खाते मेरे लिए अन्न का एक दाना भी दुश्वार है। कितने-कितने पहर उपवास में निकल जाते हैं कभी ये सोचकर कि तुम भूखे होगे अभी और कभी तो तुम्हारी इतनी याद आती है कि भूख ही नहीं लगती।
"अच्छा सुनो, मुझे कहीं निकलना है। फिर बात करता हूँ।"
"ये तो कोई बात नहीं होती, प्लीज बात करो न थोड़ी देर। मैं रोने लगूँगी..."
"अरे नहीं, ऐसा नहीं है। देखो अगर बात नहीं करनी होती तो मैंने कॉल क्यों की होती। रात में बात करता हूँ, बाय।"
मेरे कुछ बोलने से पहले ही फोन डिसकनेक्ट हो गया। मेरी आँखों की कोरों से निकलकर दो आँसूं गाल पर लुढ़क आये थे। एक आँख खुशी में रोयी कि इतने दिनों के बाद आज मेरे मन ने तुम्हें महसूसा था और दूसरी सचमुच उदास थी कि इतनी जल्दी चले गए। 
कितना एकाकी कर जाते हो तुम मुझे। बस तुम तक सिमटी लगती है ये दुनिया। तुम्हारे लिए मेरे प्रेम की हद कहाँ तक है अब तो ये सोचना भी छोड़ दिया। मुझे तुम्हारे लिए जीवन भर बाती बनकर जलना मंजूर है बस तुम्हारे रास्ते उजालों से भरे रहें। जितना मेरा हर पल तुम्हें समर्पित है उतना ही मेरा कल भी। मैं हर जनम अपना आँचल तुम्हारे पाँव के नीचे बिछाऊंगी और अपने हाथों से छाँव दूँगी।

कहानी आगे भी जारी रहेगी...

PIC CREDIT: GOOGLE

दर्द का हर डंक

दर्द का पर्यायवाची बन गया ये जीवन
और हर पर्याय पर
भिनभिना रही हैं मधुमक्खियां
कि हर आहट पर
डंक मारने को आतुर,
बेतरतीब सी दौड़ती जा रही हैं
हज़ारों गाड़ियां सड़क पर
इनके नीचे कुचला जा रहा है
सीधा-सादा मानव
कोरताल की सड़कों पर
लाली बिखेरता हुआ,
जाने कितने घरों का
सूरज अस्त हो रहा है
क्या फर्क पड़ेगा उन बेवा माओं को
जो हर शाम हथेलियों की थपकी से
बनाती थी तीन रोटियां
खुद डाइटिंग करती थी
अपने बेटे का पेट भरने को,
किसी तरह अपने जिस्म को ढकती थी
अधखुले कपड़ों में
उसे फैशन का नंगा नाच नहीं पता
पर सभ्यता का डंक सालता था हर वक़्त,
कूप-मण्डूक हो गयी हैं वो
सिमट जाती है उनकी उदासी कोठरी में
जहाँ दिन का सूरज तो किसी तरह
छन कर पहुँच जाता है
पर नहीं जलने देता है रात का दिया
दर्द का हर डंक;
हम सब भी मूंद लेते हैं आँखे
थक चुके होते हैं इतना दर्द देखकर
फिर एक दिन
हमारी आत्मा चीखती है
उस बेवा की लाश की सड़ांध पर।

उदासी के नाम चन्द शेर

आज मुझे कोई गुज़रा जमाना नहीं याद,
गुज़र जाए मेरा आज बस यही फरियाद

हद से गुज़र जाए गर दर्द, तसल्ली कहाँ
सायबां न कोई, दर्द ही बन गयी है दुआ

उदासी से भर जाती है उसके पाजेब की रुनझुन,
गर देखा कोई शहीद-ए-वतन तोपों की सलामी पे।

सर्द रातें हैं, चाँद की आँखों में नमी है
तेरे याद की शाम ढल चुकी है कहीं।

अख़बार श्वेत-श्याम की नुमाइंदगी भर है
खूनी हर खबर है पन्नों के बीच लिपटी।

मेरी पहली पुस्तक

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