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दर्द का हर डंक

दर्द का पर्यायवाची बन गया ये जीवन
और हर पर्याय पर
भिनभिना रही हैं मधुमक्खियां
कि हर आहट पर
डंक मारने को आतुर,
बेतरतीब सी दौड़ती जा रही हैं
हज़ारों गाड़ियां सड़क पर
इनके नीचे कुचला जा रहा है
सीधा-सादा मानव
कोरताल की सड़कों पर
लाली बिखेरता हुआ,
जाने कितने घरों का
सूरज अस्त हो रहा है
क्या फर्क पड़ेगा उन बेवा माओं को
जो हर शाम हथेलियों की थपकी से
बनाती थी तीन रोटियां
खुद डाइटिंग करती थी
अपने बेटे का पेट भरने को,
किसी तरह अपने जिस्म को ढकती थी
अधखुले कपड़ों में
उसे फैशन का नंगा नाच नहीं पता
पर सभ्यता का डंक सालता था हर वक़्त,
कूप-मण्डूक हो गयी हैं वो
सिमट जाती है उनकी उदासी कोठरी में
जहाँ दिन का सूरज तो किसी तरह
छन कर पहुँच जाता है
पर नहीं जलने देता है रात का दिया
दर्द का हर डंक;
हम सब भी मूंद लेते हैं आँखे
थक चुके होते हैं इतना दर्द देखकर
फिर एक दिन
हमारी आत्मा चीखती है
उस बेवा की लाश की सड़ांध पर।

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मेरी पहली पुस्तक

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