स्त्री

स्त्री
दोपहर को धूप होती है
शाम को परछाई
और रात में अँधेरा.

हर बीता हुआ पुरुष
अपना पहर बदलता रहता है
और लंबा आराम लेता है
अँधेरा गहराते ही,
स्त्री आँखों की पुतलियों में सपने बाँधे
करवटों में रात निकाल देती है
सुबह के अलार्म की प्रतीक्षा में.

सभ्य प्रेम

तुम्हारी चुप्पियों को भेजे गए
मेरे बेहिसाब चुम्बन
हमारे हृदयों को जोड़कर रखेंगे,
तुम सहलाते रहना अपने दर्द को
मेरे नर्म हाथों की मानिंद.
तुम तक नहीं आ सकती मैं
समय ने चूस ली है घुटने की चिकनाई
मेरी आँखों पर रख दिया शिष्टता का रक्त
तुमसे ज़्यादा तो मेरा
ईश्वर का भी होने का मन नहीं करता
तुम मुझे देते रहना
अपने सभ्य प्रेम की ख़ुराक
जीना चाहती हूँ मैं.

मैं और तुम

मैं मामूली हरकतें करने लगा हूँ
ताक़ि तुम मुझे पा सको
इनके बीच,
मग़र तुम पाओगे कैसे
तुम तो बस वो देखते हो
जो देखना चाहते हो।

मैं शब्द-शब्द अब भी तुम हूँ
उसी अधूरी मुलाक़ात की मोड़ पर
मेरा यक़ीन तुम्हें लेकर आएगा
फ़िर मिल बैठेंगे दो...
एक मन आकुल
दूजा आखर व्याकुल।

यादें

बस यादें रह जाएंगी
जब भी देखोगे प्रोफ़ाइल मेरी
एक सिहरन तुम्हें छूकर
गुज़र जाएगी
अभी वक़्त है, मिल लो
ख़बर ले लो मेरी
हाल अपना भी दो.
....
....
....अगर नहीं चाहते हो
उस खंडहर के पीछे
नीम की घनी छांव में बैठी मिलूं.

शर्त


नहीं चाहिए थे
तुम्हें हमारे चुम्बन
तो वापिस रख देते
हमारी हथेली पर
क्यों जूठा करने दिया
अपने होंठो पर रखकर?

नहीं चाहिए था
तुम्हें हमारा आलिंगन
तो पीठ फेर लेते
हमारे आने से पहले
क्यों सींचा उसे
अपनी छाती पर रखकर?

नहीं चाहिए था
तुम्हें हमारा स्पर्श
तो उग जाने देते कैक्टस
हमारी त्वचा पर
क्यों छूने दिया अपने रोमछिद्रों को
हमारे शानों पर सर रखकर?

तीस पार की लड़कियाँ




कानों पर उँगली रख लेती हैं अक्सर
ये तीस पार की लड़कियाँ
रिश्ते के नाम पर
विवाह मोह का जाल भर होता है,
इतनी भा जाती है इनको
अकेलेपन की ख़ुराक़
कि रिश्ता ओवरडोज़ लगता है
इनकी नज़र में,
पैर पर पैर चढ़ाकर
ऑफिस की कुर्सियों पर बैठी ये लड़कियाँ
नहीं चाहतीं महावर के पाँवों से
पति के घर जाना,
जीन्स पहनने के नाम भर से उन्मुक्तता दिखाने वाली ये लड़कियाँ
साड़ी की लंबाई को मीटर में मापती हैं,
औरों के सपने बुनते हुए
रख आती हैं अपनी आँखें गिरवीं,
चलते-चलते ख़ुद को ले आती हैं
भ्रम के दोराहे पर,
लड़के-लड़कियों को अपना दोस्त बताने वाली
ये लड़कियाँ अक़्सर भूल जाती हैं
कि दिन भर उजाला जीने के बाद
जब रात को इनके बिस्तर पर अँधेरा सताएगा
तो कोई दरवाज़ा इनकी आहट पर नहीं खुलेगा
कोई नहीं आएगा इनका हाल पूछने
......
अगर कोई आएगा तो बस
थका हुआ प्रेमी
हारा हुआ पति
मदिरालय से वापसी करता
बेबस इंसान
और उँगली उठाता हुआ समाज.
यहाँ तक कि
वो गुज़रा वक़्त भी नहीं आता इन तक
कि अपनी ग़लती सुधार सकें
धीरे-धीरे कोशिश करती हैं सामाजिक होने की
ढूँढने लगती हैं औरों के बच्चों में
अपनी मुस्कान
चॉकलेट से भर जाता है बैग
हर चॉकलेट के बदले मिलती जो है
जादू की झप्पी
फ़िर तिरती है इनकी आँखों में
बीते वक़्त की नमी
जब ये दिए जाने वाले प्रेम के लिए भी
शक़ की नज़र से देखी जाती हैं
जहाँ भी जाती हैं
बचाए जाते हैं स्त्रियों के पति
इनकी नज़रों से,
दूर रखे जाने लगते हैं बच्चे
इनके मोहपाश से.
कानों पर उँगली रखने वाली
ये तीस साल की लड़कियाँ
चालीस पार करते ही
बन जाती हैं उजड़ा हुआ गणतंत्र
अगर रुदन भी करें
तो कान बंद करती हैं ख़ुद के ही
कि कहीं चीख़ दम न घोंट दे.

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खतरा होता है...


दो असंगत लोग
एक लाचार कंधा
एक बेपरवाह सर.

दो मिथ्या तर्क
एक स्त्री की श्रेष्ठता
एक पुरुष की पूर्णता.

दो वर्जनाएं
एक विधवा की हंसी
एक प्रेमी का विलाप.

दो उपलब्धियां
एक बिना नींद का बिस्तर
एक बिना प्रेम का सिंदूर.

दो अनुपस्थितियां
एक कविता में भाव
एक मर्सिया का प्रभाव.

दो सलीके
एक भूखे पेट की नैतिकता
एक द्रोही का प्रश्न.

दो झूठे सच
एक बची हुई स्त्रियां
एक सदानीरा नदियां.

दो अबूझी पहेलियां
एक पुरुष का मौन
एक समय के पार कौन.

दो आलिंगन
एक जिसमें असीम प्रेम हो
दूसरा जिसमें प्रेम ही न हो.

दो विरह
एक पतंग से डोर
एक रात अमावस का भोर.

दो संदेशे
एक प्रेयसी का
एक प्रेयसी के लिए.

...और ब्रह्मांड के दो रहस्य
पहली पौरुषहीन स्त्री
दूसरा स्त्रीत्व विहीन पुरुष.

प्रेम तो प्रेम है


उस रोज़
जब पतझड़ धुल चुका होगा
अपनी टहनियों को,
पक्षी शीत के प्रकोप से
बंद कर चुके होंगे अपनी रागिनी,
देव कर चुके होंगे पृथ्वी का परिक्रमण,
रवि इतना अलसा चुका होगा
कि सोंख ले देह का विटामिन,
सड़कों पर चल रहा होगा प्रेतों का नृत्य,
लोग दुबके होंगे मोम के खोल में
सरकंडे की आँच पर,
इच्छा उतार कर रख दी गई होगी
घर के आले में,
मोह सूने आंगन को बुहार रहा होगा,
दया क़ैद हुई होगी आँखों के काले कटोरे में,
और प्रेम...हमारे पहरे पर होगा;
उस रोज़ तुम अपनी नैसर्गिक चुप्पी तोड़ोगे
और खिला रहे होगे मिलन की कोपलें
अपने मन के सूने जालों में
...उस रोज़ भी मैं भागी चली आऊँगी
तुम्हारी एक आहट पर
बिना किसी सकुचाहट के,
टाँग कर आऊँगी अपनी हया
बूढ़े पीपल की किसी कोटर में
उसी रोज़...

लड़की की इच्छा



मैंने बो दी है अपनी इच्छा
'इस समाज में न जीने की'
किसी गहरी मिट्टी के नीचे
क्योंकि ये समाज सुधरने से रहा
और मैं ख़ुद को मार नहीं सकती.
कैसे जियूँ यहाँ तिल-तिल मरकर
हंसने-बोलने पर पाबंदी लगी
पढ़ने जाने पर लगी
बाहर निकलने पर लगी.
जब भी समझाती हूं
बाबा अब सब सही हो गया
फ़िर कोई नई बात हो जाती है;
समझ नहीं आता ये रातें भी
क्यों होती हैं एक लड़की के हिस्से
कभी सूरज वाली रात
कभी भावनाओं वाली
तो कभी दर्द वाली;
यकीन है मुझे
एक दिन सब कुछ ठीक हो जाएगा
तब लौट कर आऊँगी पूरी मैं
मेरी रोपी हुई इच्छा का
पेड़ मजबूत हो चुका होगा तब तक
और सबने उतार लिया होगा उससे
अपनी-अपनी इच्छा का फ़ूल
...तब तक, मैं भटकती रहूँगी
इच्छा रहित आत्मा में
एक ज़िस्म बनकर
हैवानों को बोटी चाहिए
बेटी नहीं.

मैं दोषी हूँ


मैं दोषी हूँ
उन तमाम गुनाहों की
जो मैंने प्रेम करते हुए किए.
मैं दोषी हूँ
उस प्रेम की भी
जो तुमने महसूस किया.
मैं दोषी हूँ
उन तमाम रातों की
जो तुम्हारे इंतज़ार में गुजारीं.
मैं दोषी हूँ
उस पल की
जब मैंने तुम्हें अच्छा कहा.
मैं दोषी हूँ
उस कल की
जिसमें तुम्हें साथ चाहा था.
मैं दोषी हूँ
उन शब्दों को पढ़ने की
जो तुमने लिखने चाहे.
मैं दोषी हूँ
कि तुम्हारा दर्द
तुमसे बड़ा मुझे दिखा.
मैं दोषी हूँ
सबसे ज़्यादा इस बात की
कि अपना ही दोष दिखा नहीं.

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ओ पुरुष!



ओ पुरुष,
तुम्हें भी भीतर घुटता होगा कहीं
जब तुम अपने होठों पर रख लेते हो
मौन सलाखें;
तुम्हें भी तो प्यारी होगी स्त्री उतनी ही
जितना प्रेम तुम उससे पाते हो
और जब वही स्त्री तुम्हें समझती नहीं होगी
तो मुरझा जाते होगे तुम भी दर्द से
जैसे दूब मुरझा जाती है चटख धूप से,
तुम्हारा मन भी व्याकुल होता होगा
संचित नेह लुटाने को,
तुम भी तो देना चाहते होगे वो स्पर्श
जो राम ने दिया था अहिल्या को,
तुम भी टटोलते होगे न अपनी देह को
और महसूसते होगे वो गंध
जो तुम्हारी स्त्री तुमसे अंतिम बार
लिपटते हुए छोड़ गई थी;

ओ पुरुष बोलो न!
तुम भी तो बनाना चाहते होगे संतुलन
तुम्हारे मन में भी चलता होगा एक कल्पित माध्य
जो आसान करना चाहता होगा असंतुलित समीकरण
तुम भी लिखते-मिटाते होगे बही खाते का हिसाब
उस अबूझी स्त्री की तरह
जो मन में बहुत कुछ रखकर भी
बंद कर लेती है आँखें सच छलकने के डर से;

ओ पुरुष!
थक जाते होगे न तुम कभी-कभी
पुरुष बने हुए,
तुम भी तो कभी स्त्री बनने की इच्छा रखते होगे
जब आह्लादित करती होगी स्त्री की कोमलता;

तुम्हारी उंगलियों के पोरों पर
ये जो अम्लता ठहरी है
इसकी हर बून्द को सांद्र कर दो,
तुम्हारी जिह्वा को सुशोभित कठोर स्वरों को
कोमल व्यंजनों में बदल दो,
ओ पुरुष! तुम्हें स्त्री सा होना भी ग्राह्य है
ये कहकर पुरुषत्व को आकाश भर कर लो.

मेरी पहली पुस्तक

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