GOOGLE IMAGE
आते हुए उसने खटकाया भी नहीं
जैसे दबे पाँव मगर
निडर चला आया हो कोई,
एक सवाल था उसकी आँखों में
कि मैं उसके आने के जश्न में
शामिल क्यों नहीं औरों की तरह,
कैसे बताऊँ उसे
जब स्वागत और प्रतिकार में
कोई फर्क ही नहीं
कौन रुकने वाला है मेरे रोकने से
न घड़ी की सुइयाँ,
न ही समय में लिप्त दर्द,
इस रूह कँपाती सर्दी में
नए वर्ष का जश्न
एक सुखन दे गया,
आज वो भी खुले आसमान के नीचे
बिना कपड़ों के आवारा थिरक रहे हैं,
जिनकी तिजोरियाँ बोझ से दरक रही हैं,
कल सुबह यहीं से बच्चे
बीनकर ले जाएंगे
खाली ब्रांडेड बोतलें;
वो आ गया है अपना समय पूरा करने
उसे भी तो देखना है
कितनी हाँड़ी बिना भात की हैं,
कितने नन्हे भूखे सोये,
कितनी माँओ ने पानी डालकर
दाल दोगुनी कर दी,
कितने लाल रेस्टोरेंट के नाम पर
पानी में दाल का बिल भरते हैं:
उसे अपना चक्र पूरा करके
चले जाना है,
क्या फर्क पड़ता उसे विषमताओं से,
उसमें संवेदना की बूंद तक नहीं
वो तो है हर रोज़
कैलेंडर पर बदलती एक नयी तारीख।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें