अथ श्री चाय महात्म्य!


तुम्हारी याद भर से
मोह जाता है मन
एक छुवन भड़का जाती है
मन की अगन,
हर बूँद में
स्वाद लिए फिरती हो
आज भी महज़बीं हो
और बीते जमाने की
याद लिए फिरती हो,
घर हो या ऑफिस
जी चाहता है
होठों से लगी रहो,
महफ़िल हो कोई भी
तुम्हारे बिना
अधूरी सी लगती है,
वक़्त बदला
लोग भी बदल गए,
पर तुम नए कलेवर में
साथ-साथ चलती रहीं,
एक वो जमाना था
कि चूल्हे पर भगोने में
सुबह शाम चढ़ती थी
केतली की टोटी से
हौले-हौले गिलास में गिरती थी,
अब देखो न तुम्हारे स्वागत को
पैन और कप आते हैं,
डिस्पोजल को भी
कुल्हड़ कहाँ भाते हैं,
पर तुम तो मैदान में डटी हो
स्वाद कोई भी हो
नाम में वही हो;
बस मुझे ही नहीं
सभी को बहुत भाती हो
जब कहलाती हो
अदरक वाली चाय,
जुकाम हो तो तुलसी वाली,
खांसी भगाये कालीमिर्च वाली,
स्वाद में अच्छी
गुड़ और नमक वाली,
नींबू वाली चाय,
चाय कहेंगे कैसे इसे
ये तो औषधि है,
जो पिए वो गुण गाए
जिसे न भाए
वो पछताए,
चाय की बराबरी
कौन कर पाए.
अगर चाय खुशी की महफ़िल है
तो ग़म में भी जान है,
भले ही उठ रहे हो जनाजे
चाय की तो
ज़िन्दगी देने में पहचान है,
कुछ सुबह शाम पीते हैं,
कुछ पीकर शाम करते हैं,
वो और होंगे
जो गिनतियों में पीते हैं
चाय के दीवाने तो
आसमान के तारों की तरह
हर गिनती नाकाम करते हैं,
ठंडी-गरम, घूंट-घूंट, पूरा कप
क्या फर्क पड़ता है,
जिनकी रगों में खून नहीं
चाय का खुमार बहता है,
ये तो शुरुआत है
चाय पर दो शब्द
इस महात्म्य का वर्णन
अभी आगे बढ़ाना है,
आपके स्नेह की आंच पर
इसे खौलाते जाना है.

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