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वो सहमा-सहमा सा था मेरे भीतर 

और मैं इठलाई सी
यूँ लगे कि
सारे जहां की
रौनकें मुझपे छायी सी,
एक ऊर्जा सी थी
मेरे अंदर दिव्यता समाने की
मैं माँ बनने जा रही
ये तो सच ही था
पर मैं क्या खोने जा रही
ये अलग सा प्रश्न था अंदर,
जब मैं बहुत प्रेम में थी
मेरे अंदर का मैं
खो दिया था मैंने,
आज जब प्रेम का अंकुर 
प्रस्फुटित हुआ
मैं अपने मन का बच्चा
खोने जा रही
क्योंकि अब तुम
खसखस के बीज वाले आकार से
तिल के बीज वाले आकार में
रूपांतरित हो चुके हो,
तुम्हारे चेहरे के कुछ हिस्से उभरे होंगे
65 की रफ्तार से धड़कने वाले
दिल की नली भी,
तंत्रिका-नली भी तो बन गयी होगी;
पाचन-तंत्र और संवेदी-तन्त्र
भी बनने लगे होंगे,
उपास्थि आ गयी होगी,
बड़ा सा दिखता है सर अभी,
बहुत से सवाल आते हैं मन में,
सामान्य हो जाती हूँ 
जब इनका तसल्ली भरा हाथ
मेरी हथेली को गर्माहट देता है;
गूगल बताता है मुझे
तुम्हारी लम्बाई इंचों में
और वज़न ग्राम में,
पहले सेमेस्टर के आखिर में
तुम अपने पूरे वजूद में हो,
तुम्हारी मुट्ठी खुलती है, बन्द होती है
मगर गर्भ की दीवारों पर 
नाखूनों के निशान नहीं आते
मेरा समूचा अस्तित्व सिमट गया तुझमें
और तुम मेरे अहसास में ज़र्रा-ज़र्रा।

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मेरी पहली पुस्तक

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