पात-पात प्रेम मेरा


मैंने जिस गछ के गले लगकर

अपना दर्द कहा

बहुत रोया वो भी

उस पर आरी चली, ये बहाना बना


एक रोज उस काष्ठ की आँखें बहीं

तंतुओं को दबाया गया तब पता ये चला.


वो सिसकने लगा, मैं सहती रही

उसकी देह पर दर्द की नक्काशी उभरी

तराशे हुए सफ़हे पर बून्द-बून्द स्याही में

मुझे तुम्हारी झलक मिली

कभी लग नहीं पायी थी

तुम्हारे गले खुलकर

आज हरफ़-दर-हरफ़

ख़ुद मैं तुममें मिली.

आज फिर मुझे आती रही सिसकी

आज फिर टहलती रही नंगे पाँव मन पर

तुम्हारे नाम की हिचकी.

7 टिप्‍पणियां:

रेणु ने कहा…

प्रेम की गहन अनुभूतियों से सजी रचना प्रिय अभिलाषा जी | जीवन में जब कोई किसी व्यक्ति विशेष का प्रतीक बन आता है उसका महत्व उतना ही हो जाता है | अपनी तरह की आप रचना | हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं|

Roli Abhilasha ने कहा…

हृदयतल से आभार रेणु जी आपका! 🙏

Roli Abhilasha ने कहा…

बहुत आभार मीना जी! 🙏

जितेन्द्र माथुर ने कहा…

मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति है यह, निस्संदेह! ऐसी जो आंखें नम कर दे।

सु-मन (Suman Kapoor) ने कहा…

बहुत सुंदर

Anuradha chauhan ने कहा…

बेहद हृदयस्पर्शी अभिव्यक्ति

आलोक सिन्हा ने कहा…

बहुत बहुत सुन्दर

मेरी पहली पुस्तक

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