फूल मेरा प्रतिबद्ध प्रेमी
भेजता रहता है कितनी ही खुश्बुएँ
हवा के लिफाफे में लपेटकर
मौसम मेरा सामयिक प्रेमी
आता है ऋतुओं में लिपट
कभी वसंत बनकर कभी शीत
तो कभी उष्ण के नाम से
दीया मेरा अबूझा प्रेमी
तकता ही रहे मुझको
और चाहे कि सब तकें मुझे
उसकी लौ में बैठकर
अंधेरा मेरा धुर प्रेमी
लील जाता है दिन को हर रोज
मुझे आलिंगन करने को
गगन मेरा दूरस्थ प्रेमी
देखता रहता है मुझे अपलक तब तक
जब तक मैं छुपा न लूँ ख़ुद को उससे
किसी छत की ओट में
लेखक मेरा विचित्र प्रेमी
मुझे…हाँ मुझे
गढ़कर अपने शब्दों में
नाम ज़िंदा रखेगा मेरा
तब, जब जा चुका होगा इनमें से
हर एक प्रेमी मुझसे दूर
तब, जब मैं भी नहीं रहूँगी
तब, जब कोई भी न रहेगा
तब भी जब सृजन
प्रलय में बदल जायेगा
बस प्रेम रह जायेगा
5 टिप्पणियां:
सुन्दर
बहुत सुन्दर
वाह! बहुत खूबसूरत सृजन!
बहुत सुन्दर
ताज़गी भरी रचना।
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