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सुनो, तुम दिन भर खटती रहती हो
घुँघरू की ताल पर नाचती हुई
सबके लिए फिक्रमंद
जरूरतों के मुताबिक
थोड़ा-थोड़ा जीती हो,
कभी घर के हिसाब में,
कभी बच्चों की तकरार में,
कभी माँ-बाबूजी की अवस्था
को समझने में
खुद भी उलझ जाती हो,
घर के राशन से दवाई तक
रिश्ते-नातों से लेकर
बच्चों की पढ़ाई तक,
समाज, घराना, मित्र व्यवहार
सबमें इतनी सजग
जैसे समर्पण की देवी हो,
सबको अपना बना लेती हो,
हथेलियों से छांव करने को आतुर,
बस नेह के लिए बनी हो,
चेहरे पर बसी पुरकशिश मुस्कान
सारे रहस्य छुपा लेती है,
कभी तो थकती होगी,
कुछ तो दुखता होगा,
कोई तो शिकायत होगी,
कितनी सहजता से पीती हो
दर्द का विष
जैसे योगी ने हिमालय पे पिया था;
हजार आशनाओ में लिपटी वो मादकता,
आज भी यौवन की हथेली पर
ओस की बूँद सी दिखती है:
दिन की टिक-टिक पर थिरक कर भी
ऐसे सजाती हो मेरी रातों को
कि हर रात निखर जाती है
सुहागरात में;
तुम्हारी हर छुअन पहले स्पर्श जैसी,
वही कोमलता
जो रग-रग में स्रावित होती है,
मेरे हर आग्रह पर आज भी
उतनी ही समर्पित
तुम्हारा उद्वेग
मेरे आवेश को समा लेता है,
तुम जीती रहती हो मुझे बूँद-बूँद
मेरे स्खलित होने तक;
मैं निढ़ाल हो जाता हूँ
तुम फिर भी सजग रहती हो
जीवन के जतन में,
जितना मैं दिन और रात में जीता हूँ,
तुम जीती रहती हो पल-पल,
रात्रि की कोमलांगना
दिन की अष्टभुजी बन जाती हो,
वाह, क्या बात है तुममें
स्त्री हो या सुनामी!
जहाँ भी रहती हो,
लहरों की तरह
बस तुम ही तुम रहती हो।