Wikipedia

खोज नतीजे

कहानी लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
कहानी लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

प्रेम में हिसाब कैसा

बहुत देर से माँ मुझे जगा रही थी मैं था कि नींद छोड़ने को तैयार नहीं था। पूरे इक्कीस दिनों का टूअर था इस बार। कितने दिनों बाद आज मैं अपने घर में अपने बिस्तर पर सोया था। न उठने पर माँ ने सारी खिड़कियों से पर्दे हटा दिए। फिर भी न उठा तो चादर खींचा और मेरा मन किया कि मैं शिनचैन की तरह चादर में चिपक जाऊँ या फिर डोरेमॉन के किसी गैजेट से गायब हो जाऊँ। कुछ न कर सका मैं और माँ के आदेश पर नतमस्तक होकर उठना ही पड़ा। 
'क्या हुआ आज फिर कोई आपकी सहेली आ रही होंगी अपनी बेटी के लिए मुझे पसंद करने।' कहता हुआ मैं बाथरूम में घुस गया। यही तो सबसे मुफीद जगह होती थी मेरे लिए सोचने की। यहीं पर तो मैं पूरे दिन की इबारत बना लिया करता था। कैसे गुजारना है पूरा दिन, क्या करना है, श्रद्धा बस स्टॉप पर मिलेगी या उसे घर से पिक करना है। श्रद्धा और मैं, हम दोनों एक ही मल्टी नेशनल कंपनी में चार सालों से काम कर रहे थे। बहुत अच्छी दोस्ती हो गयी थी शुरुआती दिनों में ही हमारी। धीरे-धीरे हम लोग पूरे ऑफिस का केंद्र-बिंदु बन गए थे। हम दोनों एक दूसरे में इस कदर खोए थे कि बाहर की दुनिया में क्या हो रहा अहसास ही नहीं था। ऑफिस के चलते ज़्यादा बात तो नहीं हो पाती थी पर लंच अक्सर साथ में ही होता था। उसे मेरे टिफ़िन का पूड़ी अचार बहुत पसंद था और मेरे लिए वो रोज ही कुछ अलग सा बनाकर लाती थी। आज भी कुछ नया होगा बस यही सोचकर मैं सारा काम छोड़कर लंच के लिए भागता था। वीक-एन्ड तो किसी न किसी बहाने से साथ में ही गुजारना है। इतने करीब थे हम दोनों कि कभी रिश्ते के बारे में सोचा ही नहीं। दोस्त थे बस इतना काफी था पर लोग ऐसा कब सोचते हैं। काफी दिनों तक ऐसा चलता रहा तो सभी ने बातें बनानी शुरू कर दीं। मैं बेफिक्र सा अपने ट्रैक पर चल रहा था। मेरी एक खास आदत थी कि मैं माँ से हर बात शेयर करता था और श्रद्धा के बारे में भी माँ उतना ही जानती थी जितना कि मैं। 
'उफ़्फ़ सोचते-सोचते कब शावर ले लिया पता ही नहीं चला' अपने आप से बड़बड़ाता मैं बाथरूम से बाहर निकलकर कमरे में आ गया। चेंज कर ही रहा था तभी फोन बजा। फोन कान में लगाते ही श्रद्धा की भर्राई हुई आवाज कान में पड़ी। किसी अनहोनी की आशंका से मन दहल गया। 
"विहान आज मैं ऑफिस नहीं आ रही। माँ की तबियतअचानक खराब हो गयी।"
मुझे कुछ समझ नहीं आया तो मैंने बोल दिया ठीक है तुम घर पर माँ का ध्यान रखो कुछ जरूरत हो तो बताना। 
तैयार होकर ऑफिस जाने की मेरे अंदर जो उत्सुकता थी फोन आने के बाद तो जैसे गायब हो गयी थी। क्या करूँगा आज ऑफिस जाकर, कैसे कटेगा पूरा दिन और लंच तो उसके बगैर जैसे होगा ही नहीं। इसका एक सबसे बड़ा रीज़न यही था कि श्रद्धा बहुत रेयर केस में ही छुट्टी करती थी और उसके होते बाकी लोगों से मेरा कोई वास्ता नहीं रहता था। उसका न होना मीन्स एक उजाड़ सा नीरव वातावरण होना। मैं सोच ही रहा था तभी माँ कमरे में आ गयी, 'अरे क्या हुआ तुझे देर नहीं हो रही कब से तेरा नाश्ता टेबल पर लिए तेरा इंतज़ार कर रही हूं? जरा घड़ी देख क्या बज रहा है।' मैंने नज़र उठाकर देखा घड़ी सवा नौ बजा रही थी और ऑफिस पहुँचने में पूरा पैतालीस मिनट का वक़्त लगता था। मैं भागकर टेबल पर पहुँचा। एक बार तो मन आया कि नाश्ता छोड़ दूँ पर जानता था अगर छोड़कर गया तो माँ भी नहीं करेगी। जब से पापा नहीं रहे तब से घर का ये रूल था अगर मैं शहर में हूँ तो सुबह का नाश्ता और रात का खाना हम दोनों साथ में ही खाएंगे। हम-दोनों का एक-दूसरे के अलावा और कोई था भी नहीं। 
'क्या हुआ कोई परेशानी है क्या?' 
'नहीं माँ कुछ खास नहीं'
'ठीक है आम ही बता दे'
मैं माँ को श्रद्धा के फोन के बारे में बताते हुए बाहर निकल आया। घर से ऑफिस का रास्ता आज मुझे घंटों में लग रहा था। मैं अकेला और लम्बी छुट्टी के बाद ऑफिस पहुँचा था। ऐसा लग रहा था जैसे हर नज़र मुझे ही घूर रही थी। मैं लगातार सहज होने का प्रयत्न कर रहा था पर लोगों की नजरें और मेरा एकाकीपन मुझे असहज करा रहा था। किसी तरह काम का वक़्त तो निकल गया पर लंच वो भी श्रद्धा के बग़ैर सवाल ही नहीं उठता था। लंच का डिब्बा वहीं छोड़कर मैं कैंटीन में बैठ गया। मेरे हाथों में श्रद्धा की गिफ्ट की हुई एक किताब थी। पढ़ते-पढ़ते टाइम कब ओवर होने को था पता ही नहीं चला। चाय लेकर मैं बाहर निकल ही रहा था कि किसी ने पीछे से कंधा थपथपाया। पीछे मुड़कर देखा तो सोमेश मुस्करा रहा था। 
'और बता कैसा रहा टूर?'
'ऑफिशियल टूर जितना अच्छा हो सकता था बस उतना ही रहा।'
'क्यों तेरे साथ तो माल गयी थी?' सोमेश के मुँह से इतना गंदा शब्द सुनकर मैं चीख सा उठा था पर आवाज मेरे अंदर ही कहीं घुट गयी थी। मैंने अपने दोनों हाथ भींचकर जीन्स की पॉकेट में डाल लिए थे इस डर से कि कहीं सोमेश की गर्दन तक न पहुँच जाएं। इतनी मासूम सी श्रद्धा के लिए कोई ऐसा सोच भी कैसे सकता है। उससे मुँह लगे बिना ही मैं अपने केबिन में आ गया। फाइलों में सिर खपाता या उठाकर अपने सिर पर ही रख लेता काम में मन लगने वाला नहीं था। आज पहली बार किसी ने मुझसे ये बोला इसका मतलब तो यही हुआ न कि लोग हमारे बारे में ऐसा ही सोचते होंगे। कुछ देर तो मैं बैठा रहा फिर छुट्टी लेकर ऑफिस से निकल आया। 
गाड़ी निकाली और चल पड़ा। ये डिसाइड तो नहीं किया था कि कहाँ जाना है पर गाड़ी अपने रास्ते चलती रही। पीछे वही सड़क, इमारतें और निशान छूटते जा रहे थे जो श्रद्धा को बहुत पसंद थे। किसी भी वक़्त वो चुप नहीं रहती थी। उसका घर मुझसे पहले ही पड़ जाता था। बस स्टॉप वाले मोड़ पर मैं उसको उतार दिया करता था। वहाँ से उसका घर सामने ही दिखता था। फिर मैं अपने घर चला जाया करता था। आज भी वो बस स्टॉप आ चुका था और मेरी गाड़ी अनायास ही श्रद्धा के घर की तरफ मुड़ गयी। गाड़ी नीचे पार्क करके ऊपर गया। श्रद्धा सेकेंड फ्लोर पर रहती थी। लिफ्ट तक न जाकर मैं सीढ़ियों से गया। डोरबेल बजायी, 20 सेकण्ड्स में ही दरवाजा खुला गया। सामने मुरझाई हुई सी श्रद्धा खड़ी थी। बिखरे हुए से बाल, अस्त-व्यस्त से कपड़े लग रहा था जैसे सुबह से कुछ भी न खाया हो। मुझे अंदर बुलाकर डोर बंद कर दिया। सामने पड़े सोफे पर मुझे बैठने का इशारा कर खुद भी बैठ गयी। एक तो आज पहली बार श्रद्धा के घर आया था वो भी इस कंडीशन में, मैं बिल्कुल भी सहज नहीं हो पा रहा था। श्रद्धा मुझे पढ़ना बखूबी जानती थी वो मेरी स्थिति भांप गयी और मुझे सहज करते हुए बोली, 'चलो मैं तुम्हें अपनी मम्मी से मिलवाती हूँ।' 
मैं उसके पीछे हो लिया। बेडरूम पहुँचा तो एक दुबली-पतली अपनी उम्र से बहुत बड़ी सी दिखने वाली महिला से सामना हुआ। मैंने झुककर अभिवादन किया, प्रति उत्तर में वो मुस्करा भर दीं। फिर श्रद्धा ने बताया कि जब वो बाहर थी तभी मम्मी की तबियत अचानक खराब हो गयी थी। लीना आंटी ने डॉक्टर को दिखाया। डॉक्टर ने एंजियोग्राफ़ी के लिए बोला था पर मम्मी ने लीना आंटी को मुझे बताने को मना कर दिया था। लास्ट वीक से अब तक मम्मी बेड पर हैं, ये तो मुझे वापिस आकर पता चला। इतना कहते-कहते श्रद्धा की आँखे नम हो गयीं। अब तक तो मैं उसे मस्त, बिंदास और बेफिक्र लड़की समझता था। आज तो बिल्कुल उलट लग रही थी। मम्मी ने श्रद्धा को चाय बनाने को बोला। मैंने बहुत मना किया फिर भी वो ले आयी। एक ही चाय देखकर मैं पूछ बैठा, 'आंटी की चाय?' 
'मम्मी चाय नहीं पीतीं'
'तुम तो पीती हो न, मुझसे अकेले नहीं पी जाएगी।'
'ठीक है मैं अभी बना लूँगी'
'नहीं इसमें ज़्यादा है। मैंने तो अभी लंच किया है।' मैंने ज़बरदस्ती दूसरे कप में आधी चाय श्रद्धा के लिए डाल दी क्योंकि मुझे पता था उसने टेंशन में कुछ नहीं खाया है। दिन भर के बाद श्रद्धा के साथ चाय पीकर बहुत अच्छा सा फील हुआ। आंटी से अनुमति लेकर मैं चलने को हुआ तो श्रद्धा भी खड़ी हो गयी और दरवाजे तक छोड़ने आयी। मैंने दरवाजे के बाहर पैर निकाला फिर पीछे मुड़ गया ये जानने के लिए कि जो कुछ मुझे दिख रहा है बात बस इतनी सी ही है या कोई और परेशानी भी है। अगर कुछ है तो एक फ्रेंड होने के नाते मुझसे शेयर करे। मेरा इतना बोलना था कि वो सुबक पड़ी और इसके आगे की जो कहानी सुनाई मुझे तो सहसा यकीन ही नहीं हुआ। 
श्रध्दा का इस दुनिया में कोई नहीं था। उसके जन्म के बाद ही पापा ने माँ को डिवोर्स दे दिया था। श्रद्धा की कस्टडी उसकी मदर को मिली। जब वो 12 साल की थी माँ चल बसीं फिर उसकी ताई माँ ने उसे पाला। आज ताई माँ उर्फ बड़ी मम्मी की बीमारी ने उसे तोड़ दिया। बहुत संघर्ष भरा सफर रहा उसका और आज तक कभी मैंने उसके चेहरे पर शिकन तक न देखी। श्रद्धा ने मेरे कंधे पर सिर टिका लिया था। मैं उसे तसल्ली दे रहा था कि मेरे होते कभी खुद को अकेला न समझे। अगले दिन आने का वादा कर मैं सीढ़ियों पर आ गया था। नीचे पहुँचने ही वाला था कि श्रद्धा की आवाज सुनाई दी। पीछे मुड़कर देखा तो मेरा लंच बॉक्स लिए थी जो शायद मेज पर रह गया था। 
'ये क्या तुमने लंच नहीं किया?' वही पुराना शिकायत का लहजा क्योंकि उसके होते मुझे अपनी दिनचर्या बेहद तरतीब ढंग से सजानी पड़ती थी। 
मुझसे कुछ बोलते नहीं बन पड़ा। उसने बहुत प्यार से मेरी कलाई थाम रखी थी और मेरी आँखों में आँखे डालकर जैसे ढेर सारी नसीहतें दे रही हो। इतने दिनों के रिश्ते में आज पहली बार मैं उसकी आँखों में प्रेम पढ़ रहा था। भावनात्मक लगाव था ये तो जानता था पर क्या प्रेम कहते हैं इसे ये समझना बाकी था अभी। वो ऊपर चली गयी और मैं घर आ गया। 
रोज की तरह शावर लिया और म्यूजिक सिस्टम ऑन कर कमरे में लेट गया। रात के खाने पर माँ ने लंच वाली बात पर जमकर डांटा। बातों ही बातों में श्रद्धा की बात हुई तो मैंने उसके घर जाने वाली बात बताई पर आज पहली बार माँ से जाने क्यों वो सब बातें नहीं बतायीं। अब तक मैं श्रद्धा को लेकर बहुत सहज था पर आज अचानक ऐसा क्यों हो गया? शायद इसी को प्यार कहते हैं। क्या मैं श्रद्धा से प्यार करता हूँ और वो भी..? इन्हीं उलझनों में जाने कब नींद आ गयी। सुबह अपने दैनिक क्रिया-कलापों से निवृत्त होकर नाश्ते की मेज पर था। माँ मेड से जाने किस बात पर बहस कर रही थी बस इतना ही सुन पाया कि आजकल की लड़कियों का तो धंधा हो गया है लड़के फंसाना और इस काम में अब तो माँ-बाप तक साथ देने लगे हैं। मुझे अजीब सा लगा कहीं श्रद्धा को लेकर कुछ...पर ऐसा कैसे हो सकता है। 
मैं घर से श्रद्धा और आंटी को पिक करके हॉस्पिटल गया। एंजियोग्राफी करवाने में शाम हो गयी। मैं घर आ गया। अगले दिन सुबह ही डिस्चार्ज कराकर घर ड्राप किया। इधर दो-तीन दिन में हालात सामान्य हो गए थे पर मेरे दिल का अलार्म बुरा संकेत दे चुका था। श्रद्धा भी प्यार का इकरार कर चुकी थी। उसने तो यहाँ तक कह दिया कि वो बहुत पहले से ही मुझे प्रेम करती थी। अब मेरी ज़िंदगी का मकसद श्रद्धा को खुश देखना भर रह गया था पर माँ की परमिशन पर ही डिपेंड था। माँ से कुछ भी कहने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था। 
उस दिन शाम जब घर पहुंचा नीचे सोसाइटी के लोग इकट्ठे थे। पूँछने पर पता चला कि शकील की माँ लोगों से शकील पर दबाव बनाने की बात कह रही थी। लोगों के घरों में गाड़ी साफ करके जो पैसे मिलते हैं वो अपनी महबूबा पर उड़ा देता है अपने बूढ़े माँ-बाप की बिल्कुल भी फ़िकर नहीं। 
माँ की बात पूरी सोसाइटी मानती थी तो उन्हें ये जिम्मा दिया गया कि शकील को समझाएं। माँ ने शकील को डांटने से पहले एक बार नासिरा और उसकी माँ से मिलने की सोची। मैं और माँ नासिरा के घर पहुँचे। पूँछने पर पता चला नासिरा अपनी अम्मी के साथ एक चाल में रहती है। उसके अब्बू का इंतकाल हुए कई बरस बीत गए। नासिरा घर की बड़ी है। दो छोटे भाई-बहन का जिम्मा उसी पर है। अम्मी को दो महीने पहले ट्यूबरक्लोसिस हो गया। दवाइयों का खर्च और खान पान बेचारी नासिरा अकेले नहीं कर पा रही थी। शकील अपनी कमाई का एक हिस्सा नासिरा से शेयर करता था। शकील का बड़ा दिल देखकर माँ की आँखे बार आयीं। बाहर तक आते-आते माँ ने नासिरा की अम्मी को शादी तक का सुझाव दे डाला। 
माँ का जस्टिस देखकर मेरा मन हल्का हो चला था। अब श्रध्दा की मांग में खुशी का रंग सजाने से मुझे कोई नहीं रोक सकता था।

लक्ष्मणरेखा...बस तुम्हारे लिए

प्रिय ईश,

तुमसे कुछ भी कहना, बातें करना तुम्हें तो पता ही है मुझे कितना अच्छा लगता था |याद है न अक्सर बिना किसी बात के मैं तुम्हें फोन कर दिया करती थी। कभी-कभी तुम अलग ही अंदाज़ में दिलकश बातें किया करते थे और कभी व्यस्तता के चलते 'कुछ जरूरी हो तो बताओ नहीं तो बाद में बात करना' ये कहकर डिसकनेक्ट कर दिया करते थे पर मुझे तो बस इसी की आदत थी। एक बहाना चाहिए था तुमसे बात करने का। आज फिर से तुमसे वो सब कुछ शेयर करने का मन कर रहा है। वो ढेर सारी बातें जो सिर्फ प्यार में ही होती हैं।

आज भी याद करती हूँ अपनी पहली मुलाक़ात मन सिहर उठता है, लगता है कल की ही बात हो। ज़िद करने लगती है हर साँस की, उसे तुम्हारी ही धड़कनों की तलाश है। तुम्हारी पहल करने की हिचक आज तक बरकरार है लेकिन मैं  अभिव्यक्ति में कभी पीछे नहीं रही...पहली बार भी नहीं जब तुम चुपके-चुपके मुझे देखते तो रहे थे पर तुम्हारे करीब जाने की कोशिश तो मैंने करी थी। कितना बेख़ौफ़ होकर मैंने तुम्हारा हाथ थाम लिया था। यहीं से शुरू हुआ था हमारे बीच बातों का सिलसिला। तुम्हारी कृतघ्न होने और मेरी दिल को छू लेने वाली पहली बात, 'थैंक यू आपने बहुत सही टाइम पर आकर मुझे बचा लिया वरना मेरी ड्रेस खराब हो जाती।'

'माई प्लेज़र' कहकर मैं मुस्करा भर दी थी।

तुम अपने काम में मशगूल रहे और मैं तुम्हारे सपनों की दुनिया में और इन सबके बीच हमारी मुलाकातें होती रहीं। तुम्हारी बेपनाह सादगी ने मेरे दिल की मोहब्बत को जवान कर दिया था। मैं तुम्हारे खयालों से लबरेज़ रहती थी। वक़्त-बेवक़्त पास आने के बहाने ढूँढती क्योंकि मुझे तुम्हारे अंदर के प्यार के समंदर का अहसास हो चुका था। कितनी बेबाकी से जवाब दिया था तुमने..'हनी ये प्यार सुनामी होता है जो अपने पीछे बर्बादी का मंजर छोड़कर जाता है। मुझे मत ले जाओ प्यार की दुनिया में।' तुम्हारे इस जवाब पर मेरा मन मथ सा गया था। तुम्हें बाहों में भरकर माथा चूमा था। तुम्हारे इतना करीब आकर ये लगा था कि अब दूर जाना नामुमकिन है। तुम्हें ये यकीन दिलाने की भरसक कोशिश की कि मैं हमेशा तुम्हें अपने प्यार की छाँव में रखूँगी। कोई सुनामी तुम्हें छू भी नहीं सकती मेरे प्यार के सिवा। तुम्हारे अंदर वाला प्यार का मीठा दर्द बाहर आ चुका था। खो से गए थे तुम इन रंगीन गलियों में और मैं प्यार की आगोश में। भूल जाती थी हर कुछ तुमसे रूबरू होने के बाद...'हनी तुम्हें पता है दुनिया सबसे खूबसूरत कब लगती है?'

'तुम्हारी बाहों में आकर।'

'कल तुम्हें पनाह देने को मेरी आगोश न रहे तब?'

'तब हनी ही कहाँ रहेगी..वो तो अपने ईश की है।'

'मान लो हम फिर भी अलग हो जाएं तो क्या करोगी?'

'जान दे दूँगी अपनी..यही सुनना चाहते हो न तुम मगर मैं ऐसा कुछ नहीं करने वाली। मुझे पता है तुम्हें मुझसे ज़्यादा प्यार कोई नहीं कर सकता। मैं हमेशा तुम्हारे आस-पास रहूँगी छाया बनकर..पर आज अचानक ये ख़याल कैसे आया?'

'कुछ नहीं बस ऐसे ही।' मैंने बहुत कोशिश की जानने की पर तुम कुछ न बोले। मुझे ऐसा लगा जैसे कुछ होने वाला था। फिर कई दिनों तक मिलना तो दूर तुम्हारी कॉल तक नहीं आयी बस एक मैसेज के सिवा, 'हनी, अब मिलना पॉसिबल नहीं।' पता है तुम्हें क्या बीती मुझपर। लगा जैसे किसी ने चेतनाहीन कर दिया हो मेरा शरीर। मैं निःशब्द सी खुद में गुम हो गयी और तुम न जाने किस दुनिया में। कैसे खुद को सम्हाला तुम्हारी यादों के साथ। अपनी भावनाओं को मैंने घुटते देखा है जैसे समंदर किनारे रेत पर कोई मछली दम तोड़ देती है। 

फिर मुझे सच का पता चला। मैं बदहवास सी भागती हॉस्पिटल पहुँची जहाँ तुम्हारी माँ मौत से लड़ रही थी। ये मेरी बदकिस्मती थी या सच को इसी तरह से सामने आना था कि मेरी आँखों के सामने माँ के वो आखिरी शब्द निकले...बहू का ध्यान रखना। तुम्हारी पत्नी तुम्हें ढाँढस बंधा रही थी। मेरे कदम खुद-ब-खुद पीछे हट गए। कुछ भी नहीं बचा था मेरे पास, सांत्वना के दो शब्द भी नहीं। मैं हॉस्पिटल से बाहर आ गयी। ये तय नहीं कर पा रही थी कि मैं छली गयी या नियति ने मेरे साथ कोई नाइंसाफी की। इतना सब कुछ हो गया और तुमने मुझे सिर्फ दो बोल बोले..सॉरी। क्या इतना कमजोर था मेरा प्यार जो सच नहीं सुन पाता?

मैं सड़क के मंजिलविहीन रास्ते पर निकल पड़ी थी। अचानक सामने से आती हुई कार दिखी। इसके बाद क्या हुआ कुछ नहीं जानती। जब मैंने आँखे खोलीं खुद को हॉस्पिटल के बेड पर पाया और इसके बाद सारा मंजर तुम्हारी आँखों के सामने था। अफसोस है कि तुम कुछ गलत समझ बैठे। आज मुझे उस इंसान के साथ देखकर हिकारत से मुँह फेर लिया। मैं उस इंसान को जानती तक न थी। फिर जब तुमने सारे रिश्ते-नाते ही खत्म कर दिए तो कहना-सुनना कैसा। अगर मैंने तुमसे प्यार किया था तो तुमने भी तो कुछ कमिटमेंट्स किए थे। क्या हक़ था मुझे हमसफ़र बनाकर बीच मंझधार में छोड़ देने का। कुछ वक्त साथ गुजारकर मीठी बातें करना ही तो मोहब्बत नहीं होता। प्यार कोई सीढ़ी नहीं होता ये तो वो ऊँचाई है जो खुद में ही मुक़म्मल है। इसके लिए कोई जिस्मानी रिश्ता होना ही तो जरूरी नहीं होता। तुम एक बार मुझसे सच बताते तो सही तुम्हें क्या लगता है मैं तुम्हारी मजबूरी नहीं समझती। मैंने प्यार किया है तुमसे और प्यार पानी पर खिंची कोई लकीर नहीं जो वक़्त के साथ मिट जाएगी। तुम महज मेरे शब्दों में नहीं मेरी आवाज हो। तुम्हारे साथ मैंने ज़िन्दगी के जो सपने बुने थे वो सब तुम्हें लौटा रही हूँ। डोंट ओरी मैं कभी तुमसे कोई हिसाब नहीं मांगूंगी, कभी कुछ जानने की कोशिश भी नहीं करूँगी। तुम जिस्म से, रूह से भले ही मुझे अलग कर दो पर मुझसे ये यादें चुराकर नहीं ले जा सकते। मैं तुम्हारी नहीं तो मैं किसी की भी नहीं। तमाम खुशियों से सजी अपनी मुख़्तसर सी प्यार की दुनिया बहुत खूबसूरत थी। शुक्रिया उन सभी लम्हों का जो तुमने मुझे दिए। श्वेत चांदनी में टंके हजारों सितारों की दुवाएँ बस तुम्हारे लिए। तुम्हें मेरे हिस्से की मुट्ठी भर खुशियां मुबारक़। हमेशा सम्हालकर रखना इन्हें। ज़िन्दगी के किसी भी मोड़ पर जरूरत के वक़्त मुझे आवाज़ देना मैं कयामत तक बस वहीं रहूँगी जहां तुमने मुझे छोड़ा। आज से हम एक-दूसरे के लिए ईशांत और हनोवर हैं। बस लक्ष्मणरेखा में तुम्हें रहना होगा क्योंकि मुझे पता है तुम बाहर निकलने की पहल कभी नहीं करोगे मेरी आखिरी सांस पर भी नहीं। मैं अपनी कसम हार जाऊँगी... तुम्हारी एक छोटी सी उफ़्फ़ भी मुझे बेचैन कर देगी, मैं जी नहीं पाऊँगी।

कोई शिकायत नहीं बस प्यार ही प्यार,

अल्लाह हाफ़िज

हनी

जाने चले जाते हैं कहाँ दुनिया से जाने वाले

सारांश बहुत भारी मन से ड्राइव कर रहा था अचानक उसे गाड़ी में कुछ प्रॉब्लम लगी। उतरकर देखा इंजन गरम हो गया था। उसे भी कहीं जाने की जल्दी नहीं थी सो बोझिल कदमों से आगे बढ़ने लगा कि शायद कहीं पानी दिख जाए। कुछ दूरी पर चहल-पहल का आभास हुआ, कदम उसे आगे बढ़ाते रहे। उसकी मंजिल कोई नहीं थी जहाँ नियति पहुंचा दे। वो अब तक अनजान था कि नियति इतनी भी क्रूर हो सकती है। पहुंचने पर पता चला कि आज पहली बार वो सही वक्त पर सही जगह पहुंचा है। वो शमशान घाट के नीरव वातावरण में था जहाँ बस दर्द चीखता है। न चाहते हुए भी उसकी नज़र दूर मुखाग्नि को तैयार एक चिता पर पड़ी....लाल रंग के कफ़न पर लिखे स्वर्णिम अक्षर जिन्हें पढ़ते ही उसके बदन में अजीब सी सनसनाहट फैल गयी। बिजली सी फुर्ती के साथ पहुँच गया। वो शब्द आँखों में तेज़ाब की तरह चुभ रहे थे।
"मेरे जीवन का सार
सार.... मेरा जीवन"
सार...इस नाम से तो मुझे मेरी इति बुलाती है। एक अजीब से दर्द ने उसकी साँसों को चोक कर दिया था। उसकी हिम्मत नहीं हो रही थी कि आगे से जाकर चेहरा देखे तभी इति का भाई शिशिर सामने आ गया।
"बहुत देर कर दी भाई आपने आने में....दी आपसे मिलना चाहती थी। बहुत बार कहा सारांश को बुला दो। मम्मी ने भी ढूंढा आपको, कई बार नंबर लगाया। हर बार इंगेज टोन... हम सब आपसे ये जानना चाहते थे कि दी आखिरी वक्त तक किसका वेट करती रही। वो आपके बहुत करीब थी न। मम्मी कहती थी कि आपको जरूर पता होगा। हम उसकी ये आखिरी इच्छा नहीं पूरी कर पाए। वो बेहोशी की हालत में बस किसी को आवाज़ देती रहती थी.." कहते-कहते शिशिर फफक पड़ा।
मुखाग्नि देने के लिए कुछ लोग शिशिर को ले गए।
सारांश मूर्तिवत खड़ा रह गया....मेरी इति मुझसे दूर नहीं जा सकती..बहुत प्यार करती थी तुम मुझसे...एक-एक कर सब मुझसे दूर हो गए...माँ-पापा, दोस्त सारे रिश्ते तो छूट गए..तुम तो मेरी हर गलती पर हँस कर टाल जाती थी...यहाँ तक कि कभी ऊँची आवाज में बात तक नहीं की... आज इतनी बड़ी सजा देकर चली गयीं... तुम्हें आना होगा, मेरी खातिर..तुम तो मेरी अपनी हो इति..
...किस मुँह से कह रहा हूँ तुम्हें अपना, तुम भी तो बहुत रोती थी मेरे लिए, कितना मनाती थीं जब मैं बात नहीं करता था...मैं कभी पलटकर नहीं देखता.... 'इति एक बार बस एक बार देखो न मुझे, अब मैं तुझे कभी नहीं रुलाऊँगा।'
इति उठने वाली नहीं थी। अब कभी नहीं उठेगी। कभी नहीं कहेगी, सार मेरी भी सुन लिया करो कभी। सारांश जानता था इति सारे जहाँ से रूठ सकती है पर अपने सार की एक आवाज पर दौड़ी चली आती। यही अति विश्वास उसे ले डूबा था। वो यह भूल गया था कि इंसान परिस्थितियों का दास होता है।
उसके सफर ने सच का आईना दिखाया था पर उस वक़्त जब उसकी कोई कीमत नहीं थी। अपने प्रायिश्चित के लिए वो शांति-पाठ में इति के घर गया। इति की माँ ने उसे वो कमरा दिखाया जहां की दीवारें इति के साथ सार के होने की गवाही दे रही थी। हर निर्जीव पड़ी चीज चीख-चीख कर कह रही थी....सार तुम्हारा होना इति का न होना बन गया...। सार भाग-भागकर हर वो चीज देख रहा था जो इति की ज़िंदगी में उसकी अहमियत को दिखा रही थीं..ये पहला गिफ़्ट.. ये झगड़ा करते हुए पेन का तोड़ना...मेरी घड़ी का कवर..मेरा पहला टूटा हुआ सेल फोन... उफ़्फ़ मेरे होंठों से लगा हुआ स्ट्रा... ओह गॉड मेरी नोटबुक का लास्ट पेज...अरे ये तो वही चाभी है अगर तब मिल गयी होती तो शायद सब कुछ ठीक होता! ओह शिट जब ये चाभी गुम हुई थी इति बार-बार मुझे बुला रही थी शायद यही देने के लिए, कुछ दूर मेरे पीछे भी आई थी वो, कॉल भी किया पर मैं अपनी उलझन में सुनता ही कब था...बस वही तो आखिरी मुलाक़ात थी मैं जेल जाने से बचने के जुगाड़ लगाता रहा और वो मुझे बचाने के...फिर भी मैंने मुड़कर नहीं देखा...।
'इति मैंने तुम्हें खो दिया है। मैं अकेला हो गया हूँ। इति आज मुझे तुम्हारे कंधे की जरूरत है। क्यों देती थी मुझे बात-बात पर सहारा, अब क्या करूँगा मैं... तुम बहुत दुखी होकर कहती थी सार, मुझे क्यों दूर करते हो इतना अगर गयी तो तुम्हारे अंदर भी नहीं रह जाऊंगी...कहाँ चली गयी...तुम तो ऐसा कोई काम नहीं करती थी जिससे मुझे तकलीफ होती फिर अब ऐसा कैसे कर सकती हो??
सारांश घुटनों पर बैठा रो रहा था। इति की माँ ने उसे चुप कराया। वो बार-बार सारांश से यही पूछने की कोशिश करती रहीं कि इति के जीवन में ऐसा कौन था जिसे वो सब लोग नहीं जान पाए। सारांश ये सच कैसे बताता कि उनकी बेटी का गुनहगार वो ही है।
"इति को हुआ क्या था आंटी?"
"मल्टी ऑर्गन फेलियर।"
"इतनी जल्दी कैसे?"
"निमोनिया हुआ था, एक बार बिस्तर पर गयी फिर उठ न पायी।"
सभी के गले रुंध चुके थे। सारांश बाहर निकल आया। उसके पास ऐसा कोई रास्ता नहीं था जिससे कि इति की आत्मा को शांति मिलती। उसे नफरत हो रही थी हर चीज से यहां तक कि अपने आप से भी।

मेरी पहली पुस्तक

http://www.bookbazooka.com/book-store/badalte-rishto-ka-samikaran-by-roli-abhilasha.php