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लक्ष्मणरेखा...बस तुम्हारे लिए

प्रिय ईश,

तुमसे कुछ भी कहना, बातें करना तुम्हें तो पता ही है मुझे कितना अच्छा लगता था |याद है न अक्सर बिना किसी बात के मैं तुम्हें फोन कर दिया करती थी। कभी-कभी तुम अलग ही अंदाज़ में दिलकश बातें किया करते थे और कभी व्यस्तता के चलते 'कुछ जरूरी हो तो बताओ नहीं तो बाद में बात करना' ये कहकर डिसकनेक्ट कर दिया करते थे पर मुझे तो बस इसी की आदत थी। एक बहाना चाहिए था तुमसे बात करने का। आज फिर से तुमसे वो सब कुछ शेयर करने का मन कर रहा है। वो ढेर सारी बातें जो सिर्फ प्यार में ही होती हैं।

आज भी याद करती हूँ अपनी पहली मुलाक़ात मन सिहर उठता है, लगता है कल की ही बात हो। ज़िद करने लगती है हर साँस की, उसे तुम्हारी ही धड़कनों की तलाश है। तुम्हारी पहल करने की हिचक आज तक बरकरार है लेकिन मैं  अभिव्यक्ति में कभी पीछे नहीं रही...पहली बार भी नहीं जब तुम चुपके-चुपके मुझे देखते तो रहे थे पर तुम्हारे करीब जाने की कोशिश तो मैंने करी थी। कितना बेख़ौफ़ होकर मैंने तुम्हारा हाथ थाम लिया था। यहीं से शुरू हुआ था हमारे बीच बातों का सिलसिला। तुम्हारी कृतघ्न होने और मेरी दिल को छू लेने वाली पहली बात, 'थैंक यू आपने बहुत सही टाइम पर आकर मुझे बचा लिया वरना मेरी ड्रेस खराब हो जाती।'

'माई प्लेज़र' कहकर मैं मुस्करा भर दी थी।

तुम अपने काम में मशगूल रहे और मैं तुम्हारे सपनों की दुनिया में और इन सबके बीच हमारी मुलाकातें होती रहीं। तुम्हारी बेपनाह सादगी ने मेरे दिल की मोहब्बत को जवान कर दिया था। मैं तुम्हारे खयालों से लबरेज़ रहती थी। वक़्त-बेवक़्त पास आने के बहाने ढूँढती क्योंकि मुझे तुम्हारे अंदर के प्यार के समंदर का अहसास हो चुका था। कितनी बेबाकी से जवाब दिया था तुमने..'हनी ये प्यार सुनामी होता है जो अपने पीछे बर्बादी का मंजर छोड़कर जाता है। मुझे मत ले जाओ प्यार की दुनिया में।' तुम्हारे इस जवाब पर मेरा मन मथ सा गया था। तुम्हें बाहों में भरकर माथा चूमा था। तुम्हारे इतना करीब आकर ये लगा था कि अब दूर जाना नामुमकिन है। तुम्हें ये यकीन दिलाने की भरसक कोशिश की कि मैं हमेशा तुम्हें अपने प्यार की छाँव में रखूँगी। कोई सुनामी तुम्हें छू भी नहीं सकती मेरे प्यार के सिवा। तुम्हारे अंदर वाला प्यार का मीठा दर्द बाहर आ चुका था। खो से गए थे तुम इन रंगीन गलियों में और मैं प्यार की आगोश में। भूल जाती थी हर कुछ तुमसे रूबरू होने के बाद...'हनी तुम्हें पता है दुनिया सबसे खूबसूरत कब लगती है?'

'तुम्हारी बाहों में आकर।'

'कल तुम्हें पनाह देने को मेरी आगोश न रहे तब?'

'तब हनी ही कहाँ रहेगी..वो तो अपने ईश की है।'

'मान लो हम फिर भी अलग हो जाएं तो क्या करोगी?'

'जान दे दूँगी अपनी..यही सुनना चाहते हो न तुम मगर मैं ऐसा कुछ नहीं करने वाली। मुझे पता है तुम्हें मुझसे ज़्यादा प्यार कोई नहीं कर सकता। मैं हमेशा तुम्हारे आस-पास रहूँगी छाया बनकर..पर आज अचानक ये ख़याल कैसे आया?'

'कुछ नहीं बस ऐसे ही।' मैंने बहुत कोशिश की जानने की पर तुम कुछ न बोले। मुझे ऐसा लगा जैसे कुछ होने वाला था। फिर कई दिनों तक मिलना तो दूर तुम्हारी कॉल तक नहीं आयी बस एक मैसेज के सिवा, 'हनी, अब मिलना पॉसिबल नहीं।' पता है तुम्हें क्या बीती मुझपर। लगा जैसे किसी ने चेतनाहीन कर दिया हो मेरा शरीर। मैं निःशब्द सी खुद में गुम हो गयी और तुम न जाने किस दुनिया में। कैसे खुद को सम्हाला तुम्हारी यादों के साथ। अपनी भावनाओं को मैंने घुटते देखा है जैसे समंदर किनारे रेत पर कोई मछली दम तोड़ देती है। 

फिर मुझे सच का पता चला। मैं बदहवास सी भागती हॉस्पिटल पहुँची जहाँ तुम्हारी माँ मौत से लड़ रही थी। ये मेरी बदकिस्मती थी या सच को इसी तरह से सामने आना था कि मेरी आँखों के सामने माँ के वो आखिरी शब्द निकले...बहू का ध्यान रखना। तुम्हारी पत्नी तुम्हें ढाँढस बंधा रही थी। मेरे कदम खुद-ब-खुद पीछे हट गए। कुछ भी नहीं बचा था मेरे पास, सांत्वना के दो शब्द भी नहीं। मैं हॉस्पिटल से बाहर आ गयी। ये तय नहीं कर पा रही थी कि मैं छली गयी या नियति ने मेरे साथ कोई नाइंसाफी की। इतना सब कुछ हो गया और तुमने मुझे सिर्फ दो बोल बोले..सॉरी। क्या इतना कमजोर था मेरा प्यार जो सच नहीं सुन पाता?

मैं सड़क के मंजिलविहीन रास्ते पर निकल पड़ी थी। अचानक सामने से आती हुई कार दिखी। इसके बाद क्या हुआ कुछ नहीं जानती। जब मैंने आँखे खोलीं खुद को हॉस्पिटल के बेड पर पाया और इसके बाद सारा मंजर तुम्हारी आँखों के सामने था। अफसोस है कि तुम कुछ गलत समझ बैठे। आज मुझे उस इंसान के साथ देखकर हिकारत से मुँह फेर लिया। मैं उस इंसान को जानती तक न थी। फिर जब तुमने सारे रिश्ते-नाते ही खत्म कर दिए तो कहना-सुनना कैसा। अगर मैंने तुमसे प्यार किया था तो तुमने भी तो कुछ कमिटमेंट्स किए थे। क्या हक़ था मुझे हमसफ़र बनाकर बीच मंझधार में छोड़ देने का। कुछ वक्त साथ गुजारकर मीठी बातें करना ही तो मोहब्बत नहीं होता। प्यार कोई सीढ़ी नहीं होता ये तो वो ऊँचाई है जो खुद में ही मुक़म्मल है। इसके लिए कोई जिस्मानी रिश्ता होना ही तो जरूरी नहीं होता। तुम एक बार मुझसे सच बताते तो सही तुम्हें क्या लगता है मैं तुम्हारी मजबूरी नहीं समझती। मैंने प्यार किया है तुमसे और प्यार पानी पर खिंची कोई लकीर नहीं जो वक़्त के साथ मिट जाएगी। तुम महज मेरे शब्दों में नहीं मेरी आवाज हो। तुम्हारे साथ मैंने ज़िन्दगी के जो सपने बुने थे वो सब तुम्हें लौटा रही हूँ। डोंट ओरी मैं कभी तुमसे कोई हिसाब नहीं मांगूंगी, कभी कुछ जानने की कोशिश भी नहीं करूँगी। तुम जिस्म से, रूह से भले ही मुझे अलग कर दो पर मुझसे ये यादें चुराकर नहीं ले जा सकते। मैं तुम्हारी नहीं तो मैं किसी की भी नहीं। तमाम खुशियों से सजी अपनी मुख़्तसर सी प्यार की दुनिया बहुत खूबसूरत थी। शुक्रिया उन सभी लम्हों का जो तुमने मुझे दिए। श्वेत चांदनी में टंके हजारों सितारों की दुवाएँ बस तुम्हारे लिए। तुम्हें मेरे हिस्से की मुट्ठी भर खुशियां मुबारक़। हमेशा सम्हालकर रखना इन्हें। ज़िन्दगी के किसी भी मोड़ पर जरूरत के वक़्त मुझे आवाज़ देना मैं कयामत तक बस वहीं रहूँगी जहां तुमने मुझे छोड़ा। आज से हम एक-दूसरे के लिए ईशांत और हनोवर हैं। बस लक्ष्मणरेखा में तुम्हें रहना होगा क्योंकि मुझे पता है तुम बाहर निकलने की पहल कभी नहीं करोगे मेरी आखिरी सांस पर भी नहीं। मैं अपनी कसम हार जाऊँगी... तुम्हारी एक छोटी सी उफ़्फ़ भी मुझे बेचैन कर देगी, मैं जी नहीं पाऊँगी।

कोई शिकायत नहीं बस प्यार ही प्यार,

अल्लाह हाफ़िज

हनी

जाने चले जाते हैं कहाँ दुनिया से जाने वाले

सारांश बहुत भारी मन से ड्राइव कर रहा था अचानक उसे गाड़ी में कुछ प्रॉब्लम लगी। उतरकर देखा इंजन गरम हो गया था। उसे भी कहीं जाने की जल्दी नहीं थी सो बोझिल कदमों से आगे बढ़ने लगा कि शायद कहीं पानी दिख जाए। कुछ दूरी पर चहल-पहल का आभास हुआ, कदम उसे आगे बढ़ाते रहे। उसकी मंजिल कोई नहीं थी जहाँ नियति पहुंचा दे। वो अब तक अनजान था कि नियति इतनी भी क्रूर हो सकती है। पहुंचने पर पता चला कि आज पहली बार वो सही वक्त पर सही जगह पहुंचा है। वो शमशान घाट के नीरव वातावरण में था जहाँ बस दर्द चीखता है। न चाहते हुए भी उसकी नज़र दूर मुखाग्नि को तैयार एक चिता पर पड़ी....लाल रंग के कफ़न पर लिखे स्वर्णिम अक्षर जिन्हें पढ़ते ही उसके बदन में अजीब सी सनसनाहट फैल गयी। बिजली सी फुर्ती के साथ पहुँच गया। वो शब्द आँखों में तेज़ाब की तरह चुभ रहे थे।
"मेरे जीवन का सार
सार.... मेरा जीवन"
सार...इस नाम से तो मुझे मेरी इति बुलाती है। एक अजीब से दर्द ने उसकी साँसों को चोक कर दिया था। उसकी हिम्मत नहीं हो रही थी कि आगे से जाकर चेहरा देखे तभी इति का भाई शिशिर सामने आ गया।
"बहुत देर कर दी भाई आपने आने में....दी आपसे मिलना चाहती थी। बहुत बार कहा सारांश को बुला दो। मम्मी ने भी ढूंढा आपको, कई बार नंबर लगाया। हर बार इंगेज टोन... हम सब आपसे ये जानना चाहते थे कि दी आखिरी वक्त तक किसका वेट करती रही। वो आपके बहुत करीब थी न। मम्मी कहती थी कि आपको जरूर पता होगा। हम उसकी ये आखिरी इच्छा नहीं पूरी कर पाए। वो बेहोशी की हालत में बस किसी को आवाज़ देती रहती थी.." कहते-कहते शिशिर फफक पड़ा।
मुखाग्नि देने के लिए कुछ लोग शिशिर को ले गए।
सारांश मूर्तिवत खड़ा रह गया....मेरी इति मुझसे दूर नहीं जा सकती..बहुत प्यार करती थी तुम मुझसे...एक-एक कर सब मुझसे दूर हो गए...माँ-पापा, दोस्त सारे रिश्ते तो छूट गए..तुम तो मेरी हर गलती पर हँस कर टाल जाती थी...यहाँ तक कि कभी ऊँची आवाज में बात तक नहीं की... आज इतनी बड़ी सजा देकर चली गयीं... तुम्हें आना होगा, मेरी खातिर..तुम तो मेरी अपनी हो इति..
...किस मुँह से कह रहा हूँ तुम्हें अपना, तुम भी तो बहुत रोती थी मेरे लिए, कितना मनाती थीं जब मैं बात नहीं करता था...मैं कभी पलटकर नहीं देखता.... 'इति एक बार बस एक बार देखो न मुझे, अब मैं तुझे कभी नहीं रुलाऊँगा।'
इति उठने वाली नहीं थी। अब कभी नहीं उठेगी। कभी नहीं कहेगी, सार मेरी भी सुन लिया करो कभी। सारांश जानता था इति सारे जहाँ से रूठ सकती है पर अपने सार की एक आवाज पर दौड़ी चली आती। यही अति विश्वास उसे ले डूबा था। वो यह भूल गया था कि इंसान परिस्थितियों का दास होता है।
उसके सफर ने सच का आईना दिखाया था पर उस वक़्त जब उसकी कोई कीमत नहीं थी। अपने प्रायिश्चित के लिए वो शांति-पाठ में इति के घर गया। इति की माँ ने उसे वो कमरा दिखाया जहां की दीवारें इति के साथ सार के होने की गवाही दे रही थी। हर निर्जीव पड़ी चीज चीख-चीख कर कह रही थी....सार तुम्हारा होना इति का न होना बन गया...। सार भाग-भागकर हर वो चीज देख रहा था जो इति की ज़िंदगी में उसकी अहमियत को दिखा रही थीं..ये पहला गिफ़्ट.. ये झगड़ा करते हुए पेन का तोड़ना...मेरी घड़ी का कवर..मेरा पहला टूटा हुआ सेल फोन... उफ़्फ़ मेरे होंठों से लगा हुआ स्ट्रा... ओह गॉड मेरी नोटबुक का लास्ट पेज...अरे ये तो वही चाभी है अगर तब मिल गयी होती तो शायद सब कुछ ठीक होता! ओह शिट जब ये चाभी गुम हुई थी इति बार-बार मुझे बुला रही थी शायद यही देने के लिए, कुछ दूर मेरे पीछे भी आई थी वो, कॉल भी किया पर मैं अपनी उलझन में सुनता ही कब था...बस वही तो आखिरी मुलाक़ात थी मैं जेल जाने से बचने के जुगाड़ लगाता रहा और वो मुझे बचाने के...फिर भी मैंने मुड़कर नहीं देखा...।
'इति मैंने तुम्हें खो दिया है। मैं अकेला हो गया हूँ। इति आज मुझे तुम्हारे कंधे की जरूरत है। क्यों देती थी मुझे बात-बात पर सहारा, अब क्या करूँगा मैं... तुम बहुत दुखी होकर कहती थी सार, मुझे क्यों दूर करते हो इतना अगर गयी तो तुम्हारे अंदर भी नहीं रह जाऊंगी...कहाँ चली गयी...तुम तो ऐसा कोई काम नहीं करती थी जिससे मुझे तकलीफ होती फिर अब ऐसा कैसे कर सकती हो??
सारांश घुटनों पर बैठा रो रहा था। इति की माँ ने उसे चुप कराया। वो बार-बार सारांश से यही पूछने की कोशिश करती रहीं कि इति के जीवन में ऐसा कौन था जिसे वो सब लोग नहीं जान पाए। सारांश ये सच कैसे बताता कि उनकी बेटी का गुनहगार वो ही है।
"इति को हुआ क्या था आंटी?"
"मल्टी ऑर्गन फेलियर।"
"इतनी जल्दी कैसे?"
"निमोनिया हुआ था, एक बार बिस्तर पर गयी फिर उठ न पायी।"
सभी के गले रुंध चुके थे। सारांश बाहर निकल आया। उसके पास ऐसा कोई रास्ता नहीं था जिससे कि इति की आत्मा को शांति मिलती। उसे नफरत हो रही थी हर चीज से यहां तक कि अपने आप से भी।

हो इश्क़ मुक़म्मल तो जानें

बुलंदियाँ तो इश्क़ की,
नाकामियों में हैं
हम तुम्हारे और तुम हमारे
ये सब समझौते हुआ करते हैं
मुक़म्मल जज़्बात
तो तब हैं
कि
तुम हममें
और हम तुममें रहें।

शर्त ये है कि...

प्रेम बंटता है अगर
तुममें और हममें
तो बँट जाने दो
मग़र शर्त ये है कि
हम तुम्हें तुम्हारे जैसा
और तुम हमें
हमारे जैसा चाहो।

प्रिय को पत्र

साथिया....
स्याह रात की सर्द चाँदनी में अनमने से बैठे थे हम, कुहासे के द्वार पर तुम्हारी दस्तक हुई। उद्देश्यहीन जीवन में सपने कुलाँचें भरने लगे। झिलमिल सितारों के बीच तुम्हारा आना उजालों के साथ मधुरता भी घोल गया। जीवन के सारे रंगों से परिचित थे हम पर किसी अजनबी के प्रति स्नेह समर्पण जैसे भाव से अनभिज्ञ भी। यौवन की दहलीज पर खड़े थे। घोड़े पर राजकुमार के आने की बहुत सी कहानियां सुन रखी थीं हमने पर तुम वही राजकुमार हो ये तो सोचा ही नहीं। 
हम दुनियावी बातों में सहजता से विश्वास नहीं करते हैं पर हमारा मन क्या कहता है उसे कभी झुठलाते नहीं। तुम्हें हमारे मन ने देखा, समझा और जाना बस इतना ही बहुत था कि हम तुम्हें जितना ही चाहते हैं वो कम लगता है। साथी तो इस दुनिया में बहुत मिलते हैं, साथ भी मिल जाता है पर मन का साथिया किसी को ही मिलता है। तुम त्याग, प्रेम, स्नेह, सहजता..... की मूरत लगे हमे। हम अपने प्रेम की छांव में ऐसे चल पड़े जैसे तूफान में कोई मुट्ठी में घास थामकर सहारा लेता है। हम प्रेम की छांव का अनुभव करने लगे और तुम हमारे रास्ते मे आने वाली कठिनाइयों का। हम तुम्हारे संग घूँट-घूँट सुधारस पान कर रहे थे। तुम्हारी हथेलियों को स्पर्श करते ही हम ऊष्मा से भर जाते थे। जब अपनी मुट्ठी में जकड़ते थे हमारी हथेलियाँ, स्पंदन से भर जाता था मन। 
हम निरन्तर प्रेम की पगडंडी पर बढ़ रहे थे पर ये आभास भी था कि हमारी मंजिल अलग है। तुम हमारी राह के साथी थे जब तक साथ हैं मन, वचन, कर्म और स्नेह से तुम्हारे हैं। जब अलग होंगे हमारे प्रेम का चिर-यौवन प्रस्फुटित होगा और हम पहले से भी कहीं अधिक अपनेपन से बस तुम्हारे रहेंगे। हमारे लिए  प्रेम ईश्वर है। तुम जितने कहीं बाहर हो उससे कई गुना अधिक हमारे भीतर हो। हम नहीं चाहते तुम अपनी दुनिया में हमें सम्मिलित करो पर तुम हमारी दुनिया हो ये कहने के अधिकार से हमें वंचित न करो। तुम तो हमारे रोम-रोम में हो, कण-कण में तुम्हीं दिखते हो। हमने जब से तुम्हें जाना, समय मौसम, काल का अनुभव नहीं। तुम हँसते हो तो दिन है, तुम्हारी उदासी रात लगती है हमें। 
तुम हमारे नहीं हो फिर भी हमें दुःख नहीं पर जिस घड़ी हम तुम्हारे न रहे वो अंतिम होगी। तुम हमारे लिए हार या जीत नहीं, हमारा स्वाभिमान हो। हमने प्रेम को सत्ता के रूप में नहीं देखा सम्मान के साथ जिया है। तुम्हें एक स्वतंत्र साथी के रूप में देखना चाहते हैं। हम तुम्हें उसी तरह प्रेम करते रहना चाहते हैं जैसे करते थे। कहते हैं प्रेम में तन का समर्पण आवश्यक है तो हम निष्ठा से समर्पित हैं, आगे भी रहेंगे...जन्म-जन्मांतर तक पर तन की प्यास बुझाकर नहीं, प्रेम को प्रेम का बंधन समझाकर। दो प्रेम करने वालों का अति आकर्षण शरीर के सुख में परिणित हो जाता है पर हमारा शाश्वत प्रेम इस मान्यता के परे है। शारीरिक सुख वो चरमोत्कर्ष है जहाँ प्रेम क्षीण हो जाता है। मन दुर्बल हो जाता है। इन आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए सामाजिक मान्यताओं का होना आवश्यक है। हम अपनी तुष्टि के लिए इनका दोहन नहीं करेंगे। हमारा प्रेम भावनाओं के चरम पर है। तुम्हें अनुभव करते रहने की मन की व्याकुलता हर पल बढ़ती है। हम हर रातों को सपनों के महल बुनते हैं इस विश्वास के साथ कि तुम हर सुबह उनको आकार दोगे। हमारे स्नेह का मर्म समझोगे और हम हर रोज लिखते रहेंगे अपने प्रेम की पाती...... प्रियतम के नाम।
पलकों पे निंदिया की डोली सजी है सपने में आना।

तुम्हारी प्रतीक्षा में,
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प्रेम: कल्पनीय अमरबेल.....तृतीय अंक


गतांक से आगे...


"और बताओ...कहाँ हो??" उफ्फ 11 दिन 22 घण्टे 44 मिनट बाद आज इनका फोन आया। मैं खुशी से रुआंसी हो गयी। पूरे 56 सेकण्ड्स तक ब्लैंक कॉल चलती रही। मैं इनका अपने पास होना फील कर रही थी...
"कुछ बोलोगी भी या नहीं?" इन्होंने तंज भरे शब्दों में बोला। मुझे तो कुछ समझ ही नहीं आ रहा था कि शुरू कहाँ से करूँ। कैसे कहूँ कि ये दिन कैसे बीते, मैं तो तुम्हारी आवाज़ सुने बग़ैर दिन का एक पहर नहीं जाने देती हूँ और तुमने इतने दिन निकाल दिए। एक बार भी न सोचा कि इस वक़्त मुझे तुम्हारे साथ की बहुत जरूरत है। प्रेम ही तो वो सम्बल होता है जो इंसान को हर भंवर से पार ले जाता है। मैं चाहती तो आज तुम्हारे इस कटु प्रश्न का उत्तर देती पर मैं कमज़ोर हूँ ज़िन्दगी, सिर्फ तुम्हारे लिए और तुम हो कि मुझे मेरे जैसा कभी समझते ही नहीं। शिकायतें बहुत हैं पर मेरा बेपनाह प्यार काफी है मुझे समझाने के लिए। किसी भी तरह से तुम्हारी उपस्थिति बनी रहे, तुम खुश रहो, मैं हर दर्द झेल लूँगी। 
"बात नहीं करनी है न, फोन रखूँ.."
"नहीं वो बात नहीं है...अच्छा तुम कैसे हो"
"मुझे क्या हुआ, बिल्कुल ठीक हूँ"
"ह्म्म्म, गुड हमेशा ऐसे ही रहो।"
"अब तुम्हारा दर्द कैसा है?"
"ठीक" सच ही कहा था मैंने बस एक फ़ोन कॉल और मेरा दर्द सचमुच ग़ायबतुम भी क्या जादू कर देते हो।
"और बताओ, क्या चल रहा है..." कैसे प्रश्न पूछते हो तुम भी, तुम्हारे बग़ैर तो सांस भी रुकने लगती है फिर कुछ और चलने का तो कोई सवाल ही नहीं। मैं इस उलझन में थी कि तुम कुछ बोलते और मैं बेताब सी सुनती तुम्हारी बातें जैसे खूंटी पर टांग दी हो सारी उलझनें। फोन पर मैं तुम्हारे साँसों की हरारत महसूस कर रही थी।मेरी याद तुम्हारी आँखों की सुर्ख धारियों में जाकर टंग गयी थी कि काम के बोझ में हंसना-बोलना भूल गए हो। होंठ भी तो ज़र्द पड़ गए हैं और तुम्हारे हाथों की नाजुक सी उंगलियां गर्म अहसास की छुअन से महरूम हैं। थक जाते होंगे न दिन भर व्यस्तता से दौड़ते पाँवमन करता है अभी तुम्हें सीने में छुपा लें। कितने बावले हो खुद का भी ध्यान नहीं रखते....
"क्या खाया सुबह से अब तक?"
"अगर नहीं खाया होगा तो खिलाओगी क्या?"
"नहीं बाबा, वो बात नहीं..." कैसे कहूँ कि जब तक तुम नहीं खाते मेरे लिए अन्न का एक दाना भी दुश्वार है। कितने-कितने पहर उपवास में निकल जाते हैं कभी ये सोचकर कि तुम भूखे होगे अभी और कभी तो तुम्हारी इतनी याद आती है कि भूख ही नहीं लगती।
"अच्छा सुनो, मुझे कहीं निकलना है। फिर बात करता हूँ।"
"ये तो कोई बात नहीं होती, प्लीज बात करो न थोड़ी देर। मैं रोने लगूँगी..."
"अरे नहीं, ऐसा नहीं है। देखो अगर बात नहीं करनी होती तो मैंने कॉल क्यों की होती। रात में बात करता हूँ, बाय।"
मेरे कुछ बोलने से पहले ही फोन डिसकनेक्ट हो गया। मेरी आँखों की कोरों से निकलकर दो आँसूं गाल पर लुढ़क आये थे। एक आँख खुशी में रोयी कि इतने दिनों के बाद आज मेरे मन ने तुम्हें महसूसा था और दूसरी सचमुच उदास थी कि इतनी जल्दी चले गए। 
कितना एकाकी कर जाते हो तुम मुझे। बस तुम तक सिमटी लगती है ये दुनिया। तुम्हारे लिए मेरे प्रेम की हद कहाँ तक है अब तो ये सोचना भी छोड़ दिया। मुझे तुम्हारे लिए जीवन भर बाती बनकर जलना मंजूर है बस तुम्हारे रास्ते उजालों से भरे रहें। जितना मेरा हर पल तुम्हें समर्पित है उतना ही मेरा कल भी। मैं हर जनम अपना आँचल तुम्हारे पाँव के नीचे बिछाऊंगी और अपने हाथों से छाँव दूँगी।

कहानी आगे भी जारी रहेगी...

PIC CREDIT: GOOGLE

कोई जवाब हो तो बताओ

उनके हवाले कर दिया हमने तुमको
जो हमसे ज़्यादा अजीज़ थे
शिकायतें अब तो और भी बढ़ गयीं
ये हक़ है तुम्हारा या मेरे चाहने की शिद्दत?

प्रेम: कल्पनीय अमरबेल.... द्वितीय अंक

गतांक से आगे



दिन भर की उहा पोह से थकी मैं ए सी के सामने बैठकर माथे को दुपट्टे से पोंछ रही थी जबकि वहाँ पसीना तो दूर की बात थकान की एक बूंद तक न थी। थकान हो भी तो किस बात की शारीरिक श्रम से मेरा दूर तक कोई नाता न रहा हाँ दिमाग़ अकेला, नन्ही सी जान बेचारा दस जनों के बराबर सोच डालता था। मैं आदी हो चुकी थी। यही तो वो रिफ्लेक्शन था कि थकान का पसीना पोंछने को हाथ अनायास ही उठ गया था। 
"उफ्फ, हद करती हो तुम भी यहाँ जमी हो और मैं ढूंढ रहा था।"
"ह्म्म्म....."
"मैं कुछ कह रहा हूँ और तुम खयालों में गुम हो।"
"फिर भी सुन तो रही हूँ न, अच्छा ये बताओ तुमने मुझे कहाँ-कहाँ ढूंढा... किचन, लॉबी, कमरा, टेरिस, घर, बाहर....मग़र जहाँ मैं हर वक़्त हूँ बस तुम्हारे लिए वहाँ...?"
"अब इमोशनल मत हो जाना, मुझे चिढ़ है रोने से..."
"हम्म, पता है।"
"मैं तुम्हें पाना चाहता हूँ, जान।"
"मैं तुम्हें पाती रहना चाहती हूँ, ज़िन्दगी।"
"याद नहीं अपने प्रेम का करार, दिन कैसे भी हों अपने पर रातें हमारी होंगी। हम इन रातों में पूरा जीवन जियेंगे। तुम्हारे हिस्से का दर्द मैं अपने प्यार से चौथाई कर दूँगा। अगर हाँ बोलो तो पूरा खत्म अभी..."
"हाँ तो कर दो न!"
"जादू है तुम्हारी आँखों में..." मैं खिल उठी थी इनकी बाहों में। इसी पल के लिए तो जीती हूँ मैं अनवरत लम्हों से संघर्ष करके। स्नेह की तपिश में मेरा दर्द जार-जार पिघल रहा था। हर आलिंगन जाने क्यों नया, ताजा सा लगता है। खिल उठती हूँ अंतर तक वो आवाज सुनकर।


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कहानी आगे भी जारी रहेगी।

फिदा हैं जिस पर हम शाम-ओ-सहर..वो अदा हो तुम

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हम
इतना आसां न था
ये सफ़र तय करना
तेरे बग़ैर ये जीवन 
और उसपर गुमां करना,
तू मेरी एक अधूरी सी तलाश सही
जान लेता है
अधूरापन ये बयां करना


तुम
मेरा तो एक ठिकाना
तेरी नज़र की पाकीज़गी,
चाहे कहीं भी रहे तू
कब की ठहरी है यहीं
जिस्म हर रोज़ फना होता
तू तो है रूह-ए-ज़मीं
एक नज़र देख इधर तो
मेरी साँसें हैं थमीं


हम
मुतमईन है तुझसे हर पल
मुझको हर खबर है तेरी
अब तो थकता है जिस्म भी
रूह कब की है तेरी
मेरे हर पल की एक प्यास है तू
आँखों से दिल तक, तलाश है तू


तुम
मैं भी थकता रहा
जीवन के रेगिस्तानों में
नंगे पाँव चलकर,
मेरा दर्द इन कदमों में न ढूंढ
दिल के छालों में समझ
कैसे दूर हूँ तुझसे
इन अधूरे खयालों में समझ


हम
तुझको गर दर्द है, मैं उसको
चीर के रख दूँ
इस कमज़र्फ जमाने को
तेरे कदमों में बिछा दूँ
तुझपे हर चीज खुशी की
न्योछावर कर दूँ
चाँद-तारे मैं गगन के
तेरे सदके में उतारूँ


तुम
न कर इतना प्यार मुझको
कि तेरा गुनहगार हो जाऊँ
मैं जियूँ इस तरह
कि ज़िंदगी से बेज़ार हो जाऊँ
तेरा मसीहा बनने के काबिल नहीं
अर्श पे मत यूँ रख मुझको
तेरी इबादत का तलबगार हो जाऊँ



Image result for kissing scene of rekha and amitabh
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हम
तू क्या है, ये तो बस मेरा ख़ुदा जाने
इक लम्हा भी नागवार हो
गर तुझसे अलग कोई दुनिया माने
न बोल कुछ भी
बस इन होठों पे इनायत कर दे
मुझे सीने से लगा ले
साँसों को मेहरबां कर दे
तेरे मख़मली लफ़्ज़ों की
मेरे जिस्म में हरारत हो जाए
बस इस दम तू ठहर जा
रूह की जिस्म से बगावत हो जाए
तेरी बाहों में रहूँ मैं
मेरी साँस मुझमें सो जाए
मुझे सीने से लगाना तो इस कदर
कि हवाओं की गुंजाइश न हो
हो मेरी मौत तेरे दामन में
कि मेरे दर्द की नुमाइश न हो
मेरे जनाज़े पे
तेरे पाँवो की धूल विदा करना
अपनी पलकों से छूकर 
मेरी माँग सजा देना
अपनी यादों के रंग
कफ़न पे सजा देना
जब थक जाए मेरी रूह तुझे देखकर
मेरी मैय्यत उठा देना
लूँ हज़ार जनम
तेरा साथ हो गर
वरना इन ख्वाहिशों को मेरे संग सुला देना

एक दिन...जब तुम खो दोगे मुझे

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एक दिन यक़ीनन तुम मुझे खो दोगे
जैसे आज तुम्हें फिक्र नहीं
मेरे रूठने-मनाने से
मेरे रोकर बुलाने से
मेरे दूर हो जाने से
जब चली जाऊंगी हमेशा की खातिर
तुम ढूंढोगे मुझे ज़र्रा-ज़र्रा
चीखोगे मेरा नाम सन्नाटों में,
मुस्कराओगे सोचकर मेरा पागलपन
कि मैं होती तो क्या करती,
आज जब मैं हूँ हर उस जगह
जहाँ तुम चाहते हो
तो कैसे समझोगे मेरा न होना
और जब महसूसोगे
मैं नहीं बची रहूँगी
वापिस आने भर को भी
झलक में मिलूँगी न महक में
न ही बेबस पुकारों में,
मैं टुकड़ा-टुकड़ा जी रही हूँ आज
रत्ती-रत्ती मरने को,
एक कण सा भी चाहते हो मुझको
तो समा लो मेरा वजूद अपनी छाया में
मेरा दम घुट रहा है
बचा लो मुझे मर जाने से
मेरा दर्द बिखर जाने से
मैं गयी तो खो जाऊंगी
तुम शिकायत करोगे
तलाशोगे मेरी आवाज हर चेहरे में
और मैं सिमट जाऊंगी
चन्द अहसासों में सिमटे बस एक नाम में
एक थी ...
तब यकीनन खो चुके होगे मुझे।

प्रेम: कल्पनीय अमरबेल...प्रथम अंक



हमारे वैवाहिक रिश्ते को अभी चन्द महीने हुए थे। अभिलाषाएं पालने में ही थी पर आवश्यकताओं ने पाँव पसारने शुरू कर दिए थे।  वो बेटे न होकर पति जो बन गए थे और मैं भी बेटी कहाँ रह गयी थी। जो एक अच्छा सा सामंजस्य चला आ रहा था सात बरसों के बेनाम जीवन में, रिश्ते को नाम मिलते ही बचकाना सा लगने लगा। प्रेम को मंजिल तक लाने में जो सफर तय किया आज वो उम्र का कच्चापन लग रहा। जाने क्यों आज ऐसा लग रहा कि प्रेम एक अमरबेल है बस देखने में सुंदर। अगर स्थिरता न हो तो ये किसके परितः अपनी साँसे जियेगा। कल हम प्रेम में थे, लव-बर्डस की उपमा दी जाती थी पर आज मैं समय हूँ और ये पहिया......

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क्रमश:
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कहानी जारी रहेगी।

मेरी पहली पुस्तक

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