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बेड नंबर एट...और तुम


...अक्षत पिछले दो दिन से आई सी यू के आठ नम्बर  बेड पर मरणासन्न पड़ी तृषा की देखभाल कर रहा था...माँ के बाद अक्षत के अलावा था ही कौन उसका...डॉक्टर्स का मानना था उसके रहते तृषा के शरीर में नामालूम सी ही सही पर हरकत होती है...
"बेड नम्बर एट..." अक्षत सिस्टर की बात पूरी होने से पहले ही आई सी यू के कपड़े पहनता हुआ अंदर की ओर भागा...दिल-जान से चाहता था वो किसी तरह तृषा को बचा सके...हर बार की तरह उसकी हथेलियों की छुअन भर से ही उन बेजान हाथों में हल्की सी सुगबुगाहट हुई...अक्षत का कलेजा मुँह में आ गया...ज़र्द सा पड़ा तृषा का नीचे का होंठ थरथराया...
"...बोलो न तृषा...एक बार 'अक्ष' कहो न... देखो मैं तुम्हारे पास आ गया...बस एक बार बोलो..." डॉक्टर का हाथ कंधे पर महसूस होते ही वह फफककर रो पड़ा...
"देखिए आज पूरे 21 दिन के बाद जो हरकत इनके अंदर हुई है...हम इससे ज़्यादा एक्सपेक्ट भी नहीं कर सकते... इट्स टोटली मिरेकल...अब हम इनके जल्द ठीक होने की उम्मीद कर सकते हैं..."
"देखिए इनकी फैमिली से मैंने बार-बार ये जानने की कोशिश की कि इनके इस अवस्था में आने के पहले आखिर ऐसा क्या हुआ था...बट दे टोल्ड नथिंग..."
"मे हिप्नोथेरेपी आर अदर थिंग्स डू समथिंग फ़ॉर बेटरमेंट?"
"इट्स नॉट अ गुड टाइम फ़ॉर दीज...ये शॉक दो तरह से होता है पहला तो ये जब ऑल ऑफ सडेन कुछ ऐसा अनएक्सपेक्टेड सुना या दूसरा तब जब कॉन्टिनुअसली किसी से ये बोला जाता रहे...यू आर यूज़लेस, यू आर गुड फ़ॉर नथिंग, नोबडी लव्स यू...एन्ड समबडी को-रिलेट दिस विद एन इंसिडेंट...तो ये बातें अनकॉन्शस माइंड में एक ट्रुथ की तरह एक्सेप्ट कर ली जाती हैं फिर अपने आपको कितना भी कन्विन्स करना चाहे मुश्किल होता है...नेगेटिव बिलीफ सिस्टम और सेल्फ डाउट, डिप्रेशन एंगजाईटी जैसे साइकोलॉजिकल डिसऑर्डर डेवलप करते हैं और यह सब कुछ लम्बे समय तक चलता रहे तो रोजमर्रा की छोटी-छोटी बातें भी वो अपनी नाकामी से को-रिलेट करने लगता है...ऐसे में पेशेंट सब्कांशस अवस्था में आ सकता है और हिप्नोथेरेपी से कैसे, किस हद तक लाभ मिलेगा ये कन्फर्म करने के लिए डॉ लूसिया को बुलाया है..."
"थैंक यू सो मच डॉक्टर..." क्या मैं ही इसके पीछे जिम्मेदार हूँ... मैंने तो उसकी हर बात सुनी फिर वो मुझे गलत क्यों समझती थी...उस दिन मैंने फोन पर बस इतना ही तो कहा था कि हर वक़्त खाली नहीं रहता हूँ तुम्हारे जैसे...उफ़्फ़ देखो तृषा मैं सब कुछ छोड़कर तुम्हारे लिए ही हूँ यहाँ डॉक्टर के जाते ही अक्षत का मन भारी हो गया वह तृषा की ओर मुड़ा... हड़बड़ी में ऑक्सीजन का पाइप पैर से उलझकर निकल गया...
तृषा का सर्द चेहरा अक्षत की बाहों में था...वो सचमुच जीत गई थी...आज वो सिर्फ उसके लिए वहाँ था...तृषा की एक ही ख्वाहिश थी कि वो ज़िंदगी की आख़िरी साँस अक्षत को महसूस करते हुए ले.
"डॉक्टर तृषा को होश आ गया, वो मुझे देख रही है..." अक्षत पागलों की तरह चीख रहा था और नर्स उसे हिलाकर बताने की कोशिश कर रही थी...
तृषा ज़िंदगी से हार चुकी थी और अक्षत अपने आपसे...

हममें हमको बस...'तुम' दे दो



कुछ उलझा-उलझा सा रहने दो
कुछ मन की हमको कहने दो
आँखों से बोल सको बोलो
कुछ सहमा-सहमा सा चलने दो
हर बात गुलाबी रातों की
हया के पहरे बैठी है
है रात अजब शर्मीली ये
हमको-तुमको यूँ निहार उठी
अब हाथ कलेजे पर रखकर
कुछ हल्का-हल्का सहने दो;
तुम हो, हम हैं सारा आलम
मदमाता यौवन, भीगे हम-तुम
आ जाओ छुपा लो हमको
मन सावन है, तन वृंदावन
मत रोको हम प्रेमाकुल हैं
बस मद्धम-मद्धम सा झरने दो;
एक ऐसी हिलोर उठी हिय में
आह की हूक जगी औ बढ़ी
तोड़ो भी हर सकुचाहट को
देखें तो जरा मसली सी कली
हममें हमको बस 'तुम' दे दो
उफ़्फ़ बिखरा-बिखरा सा रहने दो.

क्या यही प्यार है?

'सुनो न, ये मेहंदी कैसी लग रही'
'आज तुम पूरी की पूरी बहुत खूबसूरत लग रही हो' कहते हुए हैंग आउट पर ही कुछ उबासी ली।
'अच्छा देखो...तुम्हें नींद आ रही है थक गए होगे...आराम करो'
'नहीं डार्लिंग तुम्हारे लिए तो...' कहते हुए एक और उबासी।
'...अच्छा इतना कहती हो तो ठीक है सुबह बात करते हैं' हैंग आउट ओवर...पत्नी को नींद नहीं आई, उसने अपनी बहुत पुरानी आई डी लॉगिन की...सामने पति की ही आई डी दिख गई...मजाक के मूड में फ्रेंड रिक्वेस्ट कर दी..रिक्वेस्ट एक्सेप्टेड..और एक के बाद एक मैसेज आने लगे...
गलती से पत्नी ने मैसेज कर दिया 'आप सोए नहीं अब तक'
'मतलब...क्या कहना चाहती हैं आप?'
'सॉरी मेरा मतलब रात के दो बजे रहे..तभी पूछा'
15 मिनट तक फॉर्मल बातें और सफेद झूठ की रंगीनियां चलती रहीं...अचानक ही स्क्रीन पर एक मैसेज दिखता है..
'क्या इतनी रात तक भी तुम फॉर्मल ही रहती हो बेबी...अब कुछ रोमांटिक भी हो जाए'
'रोमांटिक उफ़्फ़ वीडियो चैट पर आते हैं...'
वीडियो चैट पर आते ही पति की आँखों से नींद गायब और उसे अब तक मदद की दरकार है करवा-चौथ पर अपनी पत्नी का सामना कैसे करे।

आओ न प्रेम को अमर कर दो

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तुम्हारे लिए कोई कसम न हो
फिर भी पूरा जनम है
सात फेरे न सही
हम तेरे तो हैं,
सुहाग का चूड़ा, बिछुआ, महावर
आरती का थाल
सब कुछ सजाया है
अब मान भी जाओ हमारी मनुहार
आज चंदा को अपनी नथ बनाना है
चाँदनी की पालकी में
प्रेम डगरिया जाना है,
पीपल की ओट से
स्नेह का दिया मत दिखाना
छत पर चाँद उतरने का भ्रम मत बनाना,
हमें तो दूर आसमानों में फैली
वो लाली चाहिए,
पूरा चाँद तो तुम ही हो मेरे;
कभी मन में पसर जाती है
उम्मीदों की अमावस
तब तुम्हीं तो हो न जब आँखें झुकाकर
स्वीकारोक्ति देते हो
अपने होने की, हमारे साथ हर पल,
हम नेह के सूत पर
आँखें मूँदकर चल पड़ते हैं,
तुम्हारा होना हमारे मन का उजाला जो है,
तुम हो तो हम हैं
अब आओ भी
मन कितना प्रेम-पिपासु हो रहा,
शब्दों के छज्जे पर
इसकी वय न ढ़लाओ,
श्री-गणेश कर दो कि
मन से मन का एकाकार तो हो गया
देह को हमारे नाम से मुक्त कर दो
हमें पतिता बना दो,
समा लो हमें खुद में
समर्पण का गठबंधन करा दो,
सोंख लो बून्द-बून्द हमारे कौमार्य की
हमें ईश की ब्याहता बना दो
बहुत हो गया बातों का परिणय
अब तो हमें अमरपान करा दो!

यादों की सीलन पर ठहरी धूप: भाग- III

अंतिम भाग
शिव अपनी बात कह चुके हैं और शायद सही भी कहा..बुरे वक़्त की भरपाई कहीं से भी नहीं होती। कितनी अच्छी सी थी वो कॉलेज की लाइफ..हमारी बाल-सुलभ हरकतें और फिर एकाएक किसी अजनबी इंसान के इतना करीब आ जाना कि जीवन को छोड़कर एक-दूसरे को जीने लगना। मेरी आँख ही इसीलिए खुलती थी कि शिव की सुबह कहीं हुई होगी। एक जूनून था कॉलेज जाने का, उसके साथ वक़्त बिताने का। कितना रोई थी उस दिन मैं जब बस-स्टॉप पर शिव का पैर स्लिप कर गया था...व्रत रखा यहाँ तक कि मंदिर जाकर भगवान जी से भी बोला शिव को तुरंत ठीक करें चाहे मुझे चोट लगा दें...जबकि शिव बोलता रह गया था मामूली चोट है। एक अलग ही अनुभव से गुजर रही थी मैं। कहते हैं माँ की आँखें सब पढ़ लेती हैं, माँ सरीखी दीदी ने मेरी आँखों में शिव को पढ़ लिया था बाकी की सारी औपचारिकताएं उन्होंने पूरी कर दी थीं। अपना बचपन उन्हीं की गोद में जिया था मैंने, माँ-पापा को तो बस तस्वीरों में देखा। मुझसे लिपटकर बेपनाह रोई थी वो जब मेरे हल्दी लगे हाथों को शिव ने थामा था...मेरे सास-ससुर को बार-बार यही समझाती रही कि ये बच्ची है, नादान है गलतियाँ करेगी आप समझा देना, माफ़ कर देना...शिव को भी ढ़ेर सारी हिदायतें दीं थीं। मेरी विदाई के कुछ दिन बाद ही चल बसी शायद इतना अकेलापन न सह पाई। मेरे लिए शादी न करने का फैसला तो उसने कर लिया था पर क्या उसे छोड़कर मेरा शादी करने का निर्णय सही था, मुझे ये सवाल कचोटने सा लगा। ये मैंने तब नहीं सोचा था। प्रेम का आवरण इतना मखमली होता ही है कि एक बार पैर रख दो फिर वापसी नामुमकिन। मैं शिव के खोल में इस कदर समाई और कुछ न देख सकी।
शिव और उनकी फैमिली बरेली से दिल्ली शिफ्ट हो गई, सबका यही मानना था कि एनवायरनमेंट चेंज होने से मुझे अलग फील होगा। मुझे इन लॉज़ के रूप में माँ-पापा दिखाई देते, बहुत कम्फ़र्टेबल रहने लगी उनके साथ। शिव को नॉएडा की एक मल्टीनेशनल कंपनी में जॉब मिल गई, उसके लिए नॉएडा से दिल्ली का सफर मुश्किल हो रहा था। सभी की सहमति से नॉएडा में एक फ्लैट लेकर मैं और शिव रहने लगे। शायद यहीं से नींव पड़ी मेरी आँखों के उन काले घेरों की जो वक़्त की बेबसी की दास्तां लिख रहे थे। शिव काम में व्यस्त रहने लगे और मैंने खुद में ही खालीपन इकठ्ठा करना शुरू कर दिया। उस टू बेडरूम फ्लैट को कितना सजाती सँवारती, बस यही काम बचता था मेरे हिस्से। शिव ने शुरुआत में बहुत कोशिश की कि मैं भी अप्लाई कर दूँ पर मुझे तो बस शिव की पत्नी बनना था। जब भी बात होती मना कर देती, पहले तो हर वीक-एन्ड पर दिल्ली जाना होता था फिर व्यस्तता इतनी बढ़ी कि महीने में भी एक बार मुश्किल से जा पाते। मैंने वक़्त न देने की शिकायतें करना शुरू कर दिया तब यही जवाब मिलता...कुछ दिन माँ-पापा के पास जाकर भी रह सकती हो। इसी तरह दिन बीतते रहे और हम लोगों के बीच दरार ने जगह बनाना शुरू कर दिया। दुखता तब नहीं जब हम दूर होते बल्कि पास होकर भी दूर होना बहुत तकलीफ देने लगा जैसे रिश्ता कहीं रिस रहा हो भीतर। 
उस दिन का इंतज़ार 364 दिनों से कर रही थी मैं, शिव का बर्थडे था। एक दिन पहले ही रिटर्न गिफ्ट का प्रॉमिस ले लिया था मैंने। बहुत मन से तैयार हुई थी बाहर जाने के लिए, मेरी ख़ुशी का ठिकाना न रहा जब ऑफिस से शिव जल्दी घर आ गए थे। हम दोनों अपने फेवरिट रेस्टोरेंट की कार्नर टेबल पर थे। एक अरसे के बाद शिव रोमांटिक मूड में थे। मेरी ख़ुशी आसमान में टँगे इंद्रधनुष की तरह खिली नज़र आ रही थी तभी ऑफिस से फोन आया, कॉर्पोरेट सेक्टर से किसी की मीटिंग थी और शिव ने उसे हमारे साथ डिनर पर बुला लिया। उस दिन पहली बार मैंने बहुत बेइज्जत महसूस किया था क्या शिव मुझे अपना एक दिन भी नहीं दे सकता..कुछ घंटे भी नहीं? किसी तरह डिनर कम मीटिंग का समय ओवर हुआ हम घर आ गए।
..'मालि तुम मुझे समझने की कोशिश क्यों नहीं करती, अब कुछ भी पहले जैसा नहीं रहा। मैं जानता हूँ तुम्हें अकेलापन लगता है बहुत कोशिश करता हूँ तुम्हें वक़्त देने की पर ये जिम्मेदारियां भी तो समझो। जानती हो जिन्हें मैंने डिनर के लिए इनवाइट किया था उन्हीं की वजह से मैं मॉरीशस जा पाउँगा'..मैं चिढ़कर उठ बैठी थी...'अभी बेकार बताया था जब पहुँच जाते तब बताते..' 
...'उफ़्फ़ कुछ समझोगी भी...तुम्हें सरप्राइज देना था..' ये कहते हुए तुमने वो जेब से वो लेटर निकालकर मेरी गोद में डाल दिया था। तुम्हारी सफलता पर मेरा मन झूम गया था पर मैं सहज नहीं हो पा रही थी।
'...तुम्हें ख़ुशी नहीं हुई क्या?' तुम्हारे इस प्रश्न पर मैं कुछ नहीं बोल पाई थी। शायद मेरे अंदर तुम्हें खोने का दर्द बढ़ता जा रहा था। मुझे तुमसे दूर जाने की शिकायतें थीं और तुम्हें मेरे बदल जाने की। किसी रेलवे ट्रैक की दो समानांतर पटरियों की तरह हम आगे बढ़ते जा रहे थे। तुम अपने मॉरीशस जाने की तैयारियों में व्यस्त हो गए मैं पहली बार अपने फ्लैट पर आई माँ की तीमारदारी में। याद है जब उन्होंने बच्चे की फरमाइश की थी...चाहती तो मैं भी यही थी पर तुम्हारा इतना कड़क न सुनकर मेरे पैरों के नीचे से जमीन निकल गई थी....
मैं शिव के जाने से पहले ही माँ के साथ दिल्ली आ गई। बातों ही बातों में मैंने माँ से बोला कि मैं हमेशा के लिए बरेली शिफ़्ट होना चाहती हूँ और ये बात शिव को इतनी बुरी लग गई कि बरेली आते ही मुझे तलाक के पेपर्स मिल गए। मुझे ज़िन्दगी खेल सी लगने लगी थी और तलाक़ भी उसी खेल का एक हिस्सा। शिव का साथ न होने की भरपाई करने के लिए घर के पास ही एक क्रच ज्वाइन कर लिया। 
इन चार दीवारों के अंदर पल रही नौ महीने की उदासी बादलों की खामोशियों में छितर गई थी। मेरी बाहों में सोया हुआ शिव इतना प्यारा लग रहा था जैसे पहली मुलाक़ात में लगा था...सही तो कह रहा है शिव मैं अगर उसको अपना पति नहीं मानती तो उसके नाम का सिंदूर क्यों लगा रखा है...ये बिछुआ, मंगलसूत्र सब तो उसी के नाम का है पर मुझे महज इनके नाम पर ज़िन्दगी को रीतते नहीं जाना है बल्कि समय को जीना है। शिव के मोबाइल पर हो रही रिंग ने मुझे वर्तमान में ला पटका।
"हैलो"
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"जी मैं बोल रहा हूँ"
------
"नहीं, मैंने 15 दिनों की लीव ले रखी है।"
---------
"नहीं__बट स्पेशल ही है। मैं शादी करने जा रहा। आप 21 तारीख तक सारी मीटिंग्स कैंसिल कर दीजिए। मैं अवेलेबल नहीं रहूँगा।" मेरा चेहरा दर्द, पछतावे और गुस्से से लाल हो गया। आँखों से आँसू बह निकले... क्या इतने करीब पाकर मैं शिव को फिर खो दूँगी।
मोबाइल गद्दे पर पटककर शिव ने मुझे बाहों में भर लिया।
"देखो शादी के लिए मुझे फ्रेश लड़की चाहिए...ह्म्म्म याद आया एक थी नीलिमा।"
"शिव"
खिड़की से छनकर हल्की सी धूप चेहरों पर आ गई और हम दोनों के मन में जमी यादों की सीलन को गरमाहट मिल गई।

कहानी समाप्त

सज़ायाफ़्ता स्त्री

स्त्री हूँ मैं
स्वाभिमान की पराकाष्ठा तक जाती हूँ,
प्रेम करती हूँ वो भी प्रगाढ़
खुद को मारकर
तुम्हें अपने अंदर जीती हूँ,
मेरी देह का स्वाद इतना भी सस्ता नहीं
कि जब जरूरत हो तब याद आऊँ
शेष पल प्रेमहीन जियूँ,
क्यों मिल रही है मुझे
ये धिक्कार, वेदना और तड़प
.......…..…..………
वर्जित था अति प्रेम
इस खोखले पुरुष समाज में,
झुक जाता है उनका पुरुषत्व
प्रेम का मान देने में
...शायद तभी मैं बन गई हूँ
एक सज़ायाफ़्ता स्त्री...

यादों की सीलन पर ठहरी धूप: भाग- II

गतांक से आगे
ये वक़्त ऐसे लग रहा था जैसे प्रेम का एक सिरा छोड़कर दूसरा थाम लिया हो, मेरे और शिव के होने में बस मैं और शिव ही थे। हमारे बीच मैं और तुम की सीमा-रेखा गायब सी लगी जैसे इस कमरे में उदासी कहीं हवा की रस्सी का फंदा बनाकर झूल गई। कभी-कभी अंतिम साँसें भी तो अलग सा सुकून देकर जाती हैं। कहीं से भी ये अहसास नहीं हो रहा था कि हम नौ महीने के एक लंबे अंतराल के बाद मिल रहे थे। एक लंबी सी ख़ामोशी का लिहाफ़ ओढ़े हम दोनों एक-दूसरे की बाहों में ऐसे समाए थे कि मौत भी आ जाए तो साँसें टूटने का अफ़सोस न हो। शिव की गर्म साँसें प्रेम से थरथराता मेरा बदन सम्हाले हुए हैं। उसकी बाहों का घेरा जो सुख और सुरक्षा दे रहा है उसकी तुलना मैं चहचहाते हुए चिड़ियों के बच्चों से कर सकती हूँ। कितना शोर करते हैं जब उनका शिव उनसे दूर हो जाता है। शिव, हाँ यही तो नाम है प्रेम का और सुरक्षा का। उसके होने भर से ही तो खिल उठा है घर, चहक गया है घर का हर कोना...आँखें खोलकर मैंने शिव का चेहरा देखा। सुकून से बंद उसकी पलकें देखकर साहस ही न हुआ कि उसे छोड़कर कहीं जाऊँ...क्या मेरी तरह शिव भी आज नौ महीने बाद ज़िंदा हुआ है...
"...मालि"
"हुं"
"कहाँ हो तुम?"
"यहीं तो हूँ...अपने शिव के पास"
"फिर....तुम महसूस क्यों नहीं हो रही मुझे...मेरे अंदर...मालि पास होकर भी पास क्यों नहीं लग रही..." शिव क्या नींद में बड़बड़ा रहा है ये देखने के लिए मैं अचकचाकर उठ गई। अपनी कुहनी गद्दे पर टिकाकर उसका चेहरा देखने लगी..मुझे लगा शायद मेरा सोचना सही था तभी उसने मेरा हाथ खींचकर अपने ऊपर लगभग लिटा सा लिया। मैं अपने पैरों की उँगलियों से गद्दे पर पड़ी चादर सही करने लगी। असहाय सी पड़ी हूँ उसके ऊपर, अपने बदन का बोझ उसपर ऐसे डाल रखा है जैसे मुझसे सम्हलेगा ही नहीं। सामने दीवार पर टंगी बड़ी सी काले रंग की घड़ी में लगातर चलती हुई सुईं ही एक ऐसी थी जो पूरे कमरे के जीवन्त होने का आभास दे रही थी। मिनट की सुईं से कचनार के पेड़ पर चीं-चीं करते बच्चे दिन के आगे बढ़ने का बखान कर रहे  हैं और घंटे की सुईं सा सोया शिव...उफ्फ्फ कितना मासूम और प्यारा लग रहा..जी करता है पूरा इश्क़ उड़ेल दूँ इस पर अभी का अभी...
"ये क्या तुमने अब तक पहन रखा है इसे?" शिव का पैर मेरे टो रिंग पर पड़ गया था।
"और ये मंगलसूत्र भी..." मेरे गले पर हाथ फिराते हुए बोला।
"क्यों, तुम्हें क्या लगा था मैं..."
"क्या तुम इसे उतार नहीं सकती...अभी?
"ये क्या कह रहे हो शिव?"
"मेरे कहने पर भी नहीं..."
"ये मेरे ब्याहता होने की निशानी है।"
"यू आर अ वेल एजुकेटेड गर्ल..."
"सो व्हाट...एजुकेशन नेवर टीचेस अस टु बी अनकलचर्ड..."
"मालि...ट्राय टू अंडरस्टैंड"
"शिव...प्लीज"
"मालि..."
"शिव मैं उन सब बातों को जीते रहना चाहती हूँ। मैं प्रेम करते रहना चाहती हूँ।"
"तो ऐसा बोलो न, तुम्हें जीवन की नीरसता से प्रेम है..मन की उचाटता से प्रेम है...जो थम गया उसे लेकर कुछ नहीं हासिल होने वाला...यादें मन का कोना घेरती हैं...जो जगह प्रेम की होनी चाहिए..."
"लेकिन शिव जो वक़्त हम जी चुके होते हैं वो भुलाना इतना आसान नहीं होता..."
"ये कब बोला मैंने..भुलाओ मत उन्हें..उनसे सीखो...अक्सर ऐसा होता है न मालि कि हम खुद ही खुद को उलझाकर रह जाते हैं.. ये सोचकर कि अब कुछ भी अच्छा नहीं होगा, जो बीत गया बस वही ठीक था। अब ऐसे सोचो न...जब वो वक़्त हमारा प्रेजेंट था तो क्या हम सैटिसफाइड थे?"
"हाँ सही कह रहे हो..वैसे भी तुम सही ही कहते हो..पर परिस्थितियां भी जिम्मेदार होती हैं बहुत कुछ होते रहने के लिए?"
"ह्म्म्म मान लिया पर क्या तुम्हारे या हमारे सोचने भर से परिस्थितियां कुछ कॉम्पेनसेट करने आएंगी....नहीं न! फिर तो अपना ही नुकसान हुआ।"

कहानी जारी रहेगी...

यादों की सीलन पर ठहरी धूप: भाग- I

जाने क्यों आज इतवार के दिन भी मन किया कि बिस्तर जल्दी छोड़ दूँ। चाय का पैन स्टोव पर रखा पर 'खुद बनाना खुद पीना' का खयाल मन में आते ही लाइटर अपनी जगह पर लटका रहने दिया। रेफ्रिजरेटर से नीम्बू निकालकर बॉल की तरह खेलते हुए बॉलकनी तक आ गई। 'क्या मुझे किसी का इंतज़ार है?' अपने आपसे एक बेतुका सा सवाल कर खुद में ही मुस्कराने लगी। कुछ देर बोगनविलिया के पौधों से आँख-मिचौली खेली फिर उंगली के इशारे से छुई-मुई का फैलना-सिमटना देखने लगी। जैसे कोई इंसान किसी अपने के ख्याल भर से ही खिल उठता है और उसकी गैरमौजूदगी सारे रंगों को समेटकर पीपल के पेड़ पर टाँग आती हो कि ये उसके वापिस आने का टोटका हो। धीरे-धीरे वो रंग फीके पड़ने लगते हैं और मन में एक मनुहार सी जागे कि कुछ तो हो ऐसा जिसे अच्छा कहा जाए। आखिर क्या चाहता है मन ये समझने की बेताबी अंदर इतनी बढ़ गयी कि अपने आपको अपनी ही बाहों में जकड़ लिया। मन की आँखों से अपने चेहरे के कोने पर फैली मुस्कान देखी और सच कहूँ तो बेपनाह तसल्ली सी लगी। अगर इस वक़्त पैन में चाय की पत्ती, चीनी और दूध के साथ उँगली से मिक्स कर दूँ तो बिना स्टोव ऑन किए ही चाय खौल जाए। इस तरह मेरे अंदर कुछ हिलोरें ले रहा था। वो हॉट ब्राउन सा मिक्सचर पीने की तलब इतनी तीब्र थी कि खुशबू नाक तक आ गयी। मन आसमान में घिरे बादलों में अटक गया। यूँ तो मैं ऑफ द ट्रैक रहने वाली लड़की नहीं पर कोई बात तो है जो मुझे स्टांस की पोजीशन में छोड़कर सूं-सूं करती हुई निकल रही है। खुद को किचन तक खींचकर लाना बड़ा ही मुश्किल काम था ऊपर से सामने पार्क में छितरे कचनार पर बैठी गौरैया अपने इशारों से रोक रही थी। उसे दो मिनट बोलकर मुड़ी ही थी कि सोसाइटी के गेट पर शिवांश दिख गया। बालों को लॉक करते हुए नाईट ड्रेस में ही दो फ्लोर सीढियां उतर आई तब तक शिवांश वहाँ तक आ गया। 
जाने रह-रह कर क्या कचोट रहा था भीतर कि शिवांश को इतना करीब पाते ही बदहवास सी होकर अपना बदन उसकी बाहों में झुला दिया। उसने मुझे कसकर जकड़ लिया। एक मीठी सुबह थी मेरे लिए और उसका आना किसी ख्वाब से कम नहीं। 
"बहुत सेक्सी लग रही हो इस ड्रेस में।" मैंने झेंपकर खुद को अलग किया। हम अपनी मंजिल पर आ गए। पाँच मिनट पहले के बेजान से कदम हवा से बातें करने लगे। चाय कब उबलकर ट्रे में सज गई, सोचने का मौका ही न मिला।
अब कमरे से अभागिन खामोशी जा चुकी थी। वृद्ध समय युवा सा हो चला है। कितने ही दिनों के बाद दो चाय के कप आपस में चीयर्स कर रहे हैं। मैं किसी का होना महसूस रही हूँ और वो मेरे चेहरे पर जाने क्या पढ़ रहा है। 
"सुनो, तुमने मुझे बताया था क्या?"
"क्या?"
"यही कि तुम आज इस वक़्त यहाँ आने वाले हो।"
"ह्म्म्म" 
उसका ह्म्म्म कहकर चुप हो जाना, बहुत प्यार आया इस अदा पर। 
"अच्छा तुम्हारे यहाँ कचनार खिलते हैं।" दूर लगे पेड़ पर नजर डालते हुए शिवांश बोला फिर सन शेड को छूती हुई खिड़कियों पर नजर डालते हुए जमीन पर पड़े गद्दों पर खुद को पसार लिया। मैं कमरे की तरफ फैले हुए गद्दे के एक छोर पर बैठी रही।
"एक अलग सा सुकून मिल रहा है आज। कितने ही दिनों के बाद लग रहा है कि सुबह नींद छोड़कर कुछ तो अच्छा हासिल हुआ।"
".....बहुत भागमभाग सी हो गई है ज़िन्दगी और भाग क्यों रहे हैं ये नहीं पता, मंजिल का भी कोई ठिकाना नहीं।"
"तुम शादी क्यों नहीं कर लेते?"
"बस तुम औरतें एक ही बात जानती हो।"
"हाँ तो इसमें गलत क्या बोला?"
"कुछ सही भी है?"
"ठीक है मत करो।" मैं उसके चेहरे पर उभरे भाव समझने की कोशिश करने लगी। एक बंजर सी खामोशी है, पछतावा है या फिर सच की टीस। कुछ नहीं पा सकी क्योंकि कभी-कभी ये बेहद घातक कैरेक्टर हो जाते हैं। ख़यालों से सरकते हुए मैं गद्दे के उसी छोर पर जा चुकी थी जहाँ शिवांश है, खिड़की के शीशे से सिर टिकाए बाहर जाने क्या निहार रहा शायद वही जो कुछ देर पहले मैं...
"मालि...." 
"बोलो न...." आज कितने ही दिन के बाद अपना नाम सुन रही हूँ। शिव ने मुझे कभी भी मेरे नाम से नहीं बुलाया..हमेशा मजाक उड़ाता..नीलिमा, ये भी कोई नाम होता है इससे अच्छा तो मालिनी कह दूँ... पहली बार सुनकर बहुत बुरा लगा था फिर उसने एक नया नाम दिया मुझे...मालि। प्यार हो गया मुझे इस नाम से और उसके उस अंदाज़ से....कॉलेज के पीछे वाले पार्क में एक बड़े से कचनार के पेड़ की छांव में मेरे पैरों को तकिया बनाकर लेटा था और मैं सकुचाई सी घंटे भर उसके बालों में उँगलियाँ फिराती रही थी। तभी उसने हौले से मुझे मेरे नए नाम से पुकारा था, 'मालि अब तो तुम्हारा फाइनल ईयर है, कुछ सोचा है आगे क्या करना है?' मैंने भी झट से जवाब दिया था...शादी और क्या...! 'तुम्हारी भी सोच न लड़कियों सी रहेगी।' बहुत अजीब सा लगा अगर लड़की हूँ तो ऑब्वियस सी बात है कि वही सोचूँगी।
"मालि कभी ये कचनार तुम्हें उन बीते हुए दिनों में नहीं ले जाता क्या जब हम घण्टों घास पर लेटकर निकाल दिया करते थे, कभी बात करते हुए तो कभी एक-दूसरे की ख़ामोशी को पढ़ते हुए, याद है तुम्हें जब लोगों को अपने साथ-साथ होने पर जेलसी होती थी और तब तो सब कोयला हो जाते थे जब हर बार फर्स्ट रैंक के लिए तुम्हारा नाम अनाउंस होता था..."
".....तुम्हारी आँखों में तिरती हुई ख़ामोशी मुझे जोकर तक बनने पर मजबूर कर देती थी। भले ही तुम भूल गई हो पर मैं तुम्हारे लंच का वो टेस्ट आज तक नहीं भूला" शिव पुरानी यादों की पोटली खोल चुका है, सारी बातें याद आ रही हैं कुछ ओरिजिनल हैं तो कुछ रफू की हुई। सही कह रहा है वो तब तो खुशियों की वो रफ़्तार थी कि समय को पर लग गए। कैसे प्रेम का बीज पड़ा, कब अंकुरित हुआ और एक नए पौधे का जन्म हो गया। 
पर कहीं कुछ सीलन भरी यादें भी तो हैं, दर्द की ऐसी दीवारें जहाँ स्नेह का गारा लगा ही नहीं। आज बहुत दिनों के बाद शिव का आना उस मोम के दर्द और डर को पिघला गया।
"क्या हुआ मालि, सुनो न, कुछ तो बोलो, नहीं कुछ तो शिकायत ही करो पर ऐसे आँखों को उदास मत करो, प्लीज्!" कचनार से नज़र हटाकर शिव मेरे चेहरे की सहमी सी हाँ की लकीर को पढ़ने लगे। मैं प्रेम और दर्द के बीच बैलेंस बनाने की कोशिश में हूँ और खुद को कमज़ोर भाँपते ही शिव के कंधे पर अपना सिर रख दिया। हर स्त्री का ये अधिकार होता है कि उसे उसके पुरुष की रक्षा का कवच मिले और जब वही स्त्री सच का सामना नहीं कर पाती तो सिर झुकाकर कंधे पर टिका देती है कि जैसी भी हूँ, दासी हूँ तुम्हारी और शरणागत भी रक्षा करो। शिव ने अपनी बाहें फैला दीं।
"कुछ मत बोलो! हम-दोनों के बीच जो समय ठहर गया था बह जाने दो उसे पर अब मुझे अपने करीब महसूस करो।"
"शिव"
"मालि"
एक बार फिर शिव के होने में मैं पिघल रही थी। 

साइनाइड

तोहमत के गीले तौलिए से
दर्द में तपता बदन पोछते हुए
तुम्हारे शब्दों से उभरा
हर फफोला रिस रहा है,
उन मुस्कराहटों की सीरिंज में
अम्ल भरकर बौछार करते हुए
ताजा हो रहा है वो पल एक बार फिर
कि जो मन से कभी उतरा ही नहीं,
आज फिर ज़िन्दगी
हस्ताक्षर चाहती है
मौत के दस्तावेज पर,
काश प्रेम सायनाइड होता
तो स्वाद न बताना पड़ता!

हमें मोक्ष चाहिए

अंजलि में
पुष्प और जल सजाकर
गंगा के घाट पर
तर्पण को आओगे न!
मंत्रोच्चार में
कुछ सिसकियाँ भी होंगी
अगर सुन सको तो,
भरकर लाओगे
हमारी अस्थियों का कलश
उसमें वो पल भी रखना
जो हमारे थे,
आज प्रवाहित हो जाने दो
बिना मायने के
समानांतर चल रहे संयोजन को;
इन सबके बीच
तुम्हारे चेहरे पर
एक अलग सा तेज दिखेगा
तुम कर जो रहे होगे न
अंतिम क्रिया के बाद की भी क्रियाएं
मग़र हाँ
दक्षिणा में वो स्नेह रखना न भूलना
जो हमें तुममे एकीकार करता था
हमें मोक्ष चाहिए!!

तुम साथ हो जब अपने...

इस रिवाल्वर में बस दो ही गोलियां हैं..अभी नहीं विशेष आ जाएं तब..एक उनके लिए और एक मेरे लिए, ये ठीक रहेगा
बहुत प्यार करती थी अनु विशेष से पर जाने क्यों कुछ दिनों से वो फील कहीं मिस हो रहा था। एक दशक पुराना रिलेशनशिप कभी गहन खामोशी तो कभी तानों में सिमटकर रह गया था। अनु साँसों से तो दूर रह सकती थी मग़र ज़िन्दगी से नहीं। रोज ही झगड़ती थी उससे पर दूर एक पल को भी नहीं रह पाती थी। शादी, मंगलसूत्र, सिंदूर ही कोई रीज़न तो नहीं होता कि सामनेवाला उसे प्यार करता रहे। कहीं रिश्ते में प्यार खो तो नहीं गया। उसे बस एक ही सवाल परेशान करता है ..जब विशेष अपनी साइकोलॉजिकल नीड्स के लिए उस पर डिपेंडेंट था फिर अब छोटी-बड़ी हर बात उससे छुपाने क्यों लगा है, क्या कोई है जिसे उसने ये हक़ दे दिया?? तिलमिला उठती है अनु इस बात से। विशेष का गैर-जिम्मेदारी वाला रवैया काफी है कि अनु अपना डेली रूटीन छोड़कर बस यही सोचती रहे।
आज सुबह भी विशेष बिना कुछ बताए ऑफिस के लिए निकला। कुछ ही देर में बॉस का फोन आया कि उसने छुट्टी ली है और फोन भी ऑफ कर रखा है। इतना सुनते ही अनु के पूरे बदन में सनसनी फैल गयी जैसे किसी ने हजारों सुईंया चुभा दी हों।
जब से मेड डस्टिंग करके गयी अनु हाथ में रिवाल्वर लिए आराम कुर्सी पर झूल रही है। वो विशेष को मारकर खुदकुशी करना चाहती है। उसे लगता है शायद मरने के बाद अपना खोया हुआ प्यार पा सके। मोबाइल की लगातार बजती घण्टी सुनकर आँखें खोलीं।
"मैडम अगर आप अपने पति से मिलना चाहती हैं तो तुरंत होटल उत्सव रूम नंबर 209 में पहुंच जाइए।"
खयालों की तेजी के साथ अनु 209 के सामने पहुँचकर डोंट डिस्टर्ब के टैग को तोड़ चुकी थी। दरवाजा खुलते ही गोली चलने की आवाज के साथ उसके कदम लड़खड़ा गए। अगले पल आँखें खुलते ही खुद को विशेष की बाहों में महफूज पाया। वो किरकिरी और फोम से नहा चुकी है। हैप्पी बर्थडे का मेलोडियस साउंड बज रहा है। पूरा हॉल रंग-बिरंगी लाइट्स से जगमगा रहा पर उसे विशेष की आँखों में जलते प्रेम के दिए दिख रहे थे बस। इन सब उलझनों में उसे अपना बर्थडे तक नहीं याद रह गया था।
"तुम ठीक तो हो न विशू!" उसका चेहरा छूकर फील करना चाहती थी कुछ बुरा तो नहीं हो गया।
"तुम हो न फिर..." कहते हुए विशेष ने अनाया को अपनी बाहों में जकड़ लिया।

प्रेम में हिसाब कैसा

बहुत देर से माँ मुझे जगा रही थी मैं था कि नींद छोड़ने को तैयार नहीं था। पूरे इक्कीस दिनों का टूअर था इस बार। कितने दिनों बाद आज मैं अपने घर में अपने बिस्तर पर सोया था। न उठने पर माँ ने सारी खिड़कियों से पर्दे हटा दिए। फिर भी न उठा तो चादर खींचा और मेरा मन किया कि मैं शिनचैन की तरह चादर में चिपक जाऊँ या फिर डोरेमॉन के किसी गैजेट से गायब हो जाऊँ। कुछ न कर सका मैं और माँ के आदेश पर नतमस्तक होकर उठना ही पड़ा। 
'क्या हुआ आज फिर कोई आपकी सहेली आ रही होंगी अपनी बेटी के लिए मुझे पसंद करने।' कहता हुआ मैं बाथरूम में घुस गया। यही तो सबसे मुफीद जगह होती थी मेरे लिए सोचने की। यहीं पर तो मैं पूरे दिन की इबारत बना लिया करता था। कैसे गुजारना है पूरा दिन, क्या करना है, श्रद्धा बस स्टॉप पर मिलेगी या उसे घर से पिक करना है। श्रद्धा और मैं, हम दोनों एक ही मल्टी नेशनल कंपनी में चार सालों से काम कर रहे थे। बहुत अच्छी दोस्ती हो गयी थी शुरुआती दिनों में ही हमारी। धीरे-धीरे हम लोग पूरे ऑफिस का केंद्र-बिंदु बन गए थे। हम दोनों एक दूसरे में इस कदर खोए थे कि बाहर की दुनिया में क्या हो रहा अहसास ही नहीं था। ऑफिस के चलते ज़्यादा बात तो नहीं हो पाती थी पर लंच अक्सर साथ में ही होता था। उसे मेरे टिफ़िन का पूड़ी अचार बहुत पसंद था और मेरे लिए वो रोज ही कुछ अलग सा बनाकर लाती थी। आज भी कुछ नया होगा बस यही सोचकर मैं सारा काम छोड़कर लंच के लिए भागता था। वीक-एन्ड तो किसी न किसी बहाने से साथ में ही गुजारना है। इतने करीब थे हम दोनों कि कभी रिश्ते के बारे में सोचा ही नहीं। दोस्त थे बस इतना काफी था पर लोग ऐसा कब सोचते हैं। काफी दिनों तक ऐसा चलता रहा तो सभी ने बातें बनानी शुरू कर दीं। मैं बेफिक्र सा अपने ट्रैक पर चल रहा था। मेरी एक खास आदत थी कि मैं माँ से हर बात शेयर करता था और श्रद्धा के बारे में भी माँ उतना ही जानती थी जितना कि मैं। 
'उफ़्फ़ सोचते-सोचते कब शावर ले लिया पता ही नहीं चला' अपने आप से बड़बड़ाता मैं बाथरूम से बाहर निकलकर कमरे में आ गया। चेंज कर ही रहा था तभी फोन बजा। फोन कान में लगाते ही श्रद्धा की भर्राई हुई आवाज कान में पड़ी। किसी अनहोनी की आशंका से मन दहल गया। 
"विहान आज मैं ऑफिस नहीं आ रही। माँ की तबियतअचानक खराब हो गयी।"
मुझे कुछ समझ नहीं आया तो मैंने बोल दिया ठीक है तुम घर पर माँ का ध्यान रखो कुछ जरूरत हो तो बताना। 
तैयार होकर ऑफिस जाने की मेरे अंदर जो उत्सुकता थी फोन आने के बाद तो जैसे गायब हो गयी थी। क्या करूँगा आज ऑफिस जाकर, कैसे कटेगा पूरा दिन और लंच तो उसके बगैर जैसे होगा ही नहीं। इसका एक सबसे बड़ा रीज़न यही था कि श्रद्धा बहुत रेयर केस में ही छुट्टी करती थी और उसके होते बाकी लोगों से मेरा कोई वास्ता नहीं रहता था। उसका न होना मीन्स एक उजाड़ सा नीरव वातावरण होना। मैं सोच ही रहा था तभी माँ कमरे में आ गयी, 'अरे क्या हुआ तुझे देर नहीं हो रही कब से तेरा नाश्ता टेबल पर लिए तेरा इंतज़ार कर रही हूं? जरा घड़ी देख क्या बज रहा है।' मैंने नज़र उठाकर देखा घड़ी सवा नौ बजा रही थी और ऑफिस पहुँचने में पूरा पैतालीस मिनट का वक़्त लगता था। मैं भागकर टेबल पर पहुँचा। एक बार तो मन आया कि नाश्ता छोड़ दूँ पर जानता था अगर छोड़कर गया तो माँ भी नहीं करेगी। जब से पापा नहीं रहे तब से घर का ये रूल था अगर मैं शहर में हूँ तो सुबह का नाश्ता और रात का खाना हम दोनों साथ में ही खाएंगे। हम-दोनों का एक-दूसरे के अलावा और कोई था भी नहीं। 
'क्या हुआ कोई परेशानी है क्या?' 
'नहीं माँ कुछ खास नहीं'
'ठीक है आम ही बता दे'
मैं माँ को श्रद्धा के फोन के बारे में बताते हुए बाहर निकल आया। घर से ऑफिस का रास्ता आज मुझे घंटों में लग रहा था। मैं अकेला और लम्बी छुट्टी के बाद ऑफिस पहुँचा था। ऐसा लग रहा था जैसे हर नज़र मुझे ही घूर रही थी। मैं लगातार सहज होने का प्रयत्न कर रहा था पर लोगों की नजरें और मेरा एकाकीपन मुझे असहज करा रहा था। किसी तरह काम का वक़्त तो निकल गया पर लंच वो भी श्रद्धा के बग़ैर सवाल ही नहीं उठता था। लंच का डिब्बा वहीं छोड़कर मैं कैंटीन में बैठ गया। मेरे हाथों में श्रद्धा की गिफ्ट की हुई एक किताब थी। पढ़ते-पढ़ते टाइम कब ओवर होने को था पता ही नहीं चला। चाय लेकर मैं बाहर निकल ही रहा था कि किसी ने पीछे से कंधा थपथपाया। पीछे मुड़कर देखा तो सोमेश मुस्करा रहा था। 
'और बता कैसा रहा टूर?'
'ऑफिशियल टूर जितना अच्छा हो सकता था बस उतना ही रहा।'
'क्यों तेरे साथ तो माल गयी थी?' सोमेश के मुँह से इतना गंदा शब्द सुनकर मैं चीख सा उठा था पर आवाज मेरे अंदर ही कहीं घुट गयी थी। मैंने अपने दोनों हाथ भींचकर जीन्स की पॉकेट में डाल लिए थे इस डर से कि कहीं सोमेश की गर्दन तक न पहुँच जाएं। इतनी मासूम सी श्रद्धा के लिए कोई ऐसा सोच भी कैसे सकता है। उससे मुँह लगे बिना ही मैं अपने केबिन में आ गया। फाइलों में सिर खपाता या उठाकर अपने सिर पर ही रख लेता काम में मन लगने वाला नहीं था। आज पहली बार किसी ने मुझसे ये बोला इसका मतलब तो यही हुआ न कि लोग हमारे बारे में ऐसा ही सोचते होंगे। कुछ देर तो मैं बैठा रहा फिर छुट्टी लेकर ऑफिस से निकल आया। 
गाड़ी निकाली और चल पड़ा। ये डिसाइड तो नहीं किया था कि कहाँ जाना है पर गाड़ी अपने रास्ते चलती रही। पीछे वही सड़क, इमारतें और निशान छूटते जा रहे थे जो श्रद्धा को बहुत पसंद थे। किसी भी वक़्त वो चुप नहीं रहती थी। उसका घर मुझसे पहले ही पड़ जाता था। बस स्टॉप वाले मोड़ पर मैं उसको उतार दिया करता था। वहाँ से उसका घर सामने ही दिखता था। फिर मैं अपने घर चला जाया करता था। आज भी वो बस स्टॉप आ चुका था और मेरी गाड़ी अनायास ही श्रद्धा के घर की तरफ मुड़ गयी। गाड़ी नीचे पार्क करके ऊपर गया। श्रद्धा सेकेंड फ्लोर पर रहती थी। लिफ्ट तक न जाकर मैं सीढ़ियों से गया। डोरबेल बजायी, 20 सेकण्ड्स में ही दरवाजा खुला गया। सामने मुरझाई हुई सी श्रद्धा खड़ी थी। बिखरे हुए से बाल, अस्त-व्यस्त से कपड़े लग रहा था जैसे सुबह से कुछ भी न खाया हो। मुझे अंदर बुलाकर डोर बंद कर दिया। सामने पड़े सोफे पर मुझे बैठने का इशारा कर खुद भी बैठ गयी। एक तो आज पहली बार श्रद्धा के घर आया था वो भी इस कंडीशन में, मैं बिल्कुल भी सहज नहीं हो पा रहा था। श्रद्धा मुझे पढ़ना बखूबी जानती थी वो मेरी स्थिति भांप गयी और मुझे सहज करते हुए बोली, 'चलो मैं तुम्हें अपनी मम्मी से मिलवाती हूँ।' 
मैं उसके पीछे हो लिया। बेडरूम पहुँचा तो एक दुबली-पतली अपनी उम्र से बहुत बड़ी सी दिखने वाली महिला से सामना हुआ। मैंने झुककर अभिवादन किया, प्रति उत्तर में वो मुस्करा भर दीं। फिर श्रद्धा ने बताया कि जब वो बाहर थी तभी मम्मी की तबियत अचानक खराब हो गयी थी। लीना आंटी ने डॉक्टर को दिखाया। डॉक्टर ने एंजियोग्राफ़ी के लिए बोला था पर मम्मी ने लीना आंटी को मुझे बताने को मना कर दिया था। लास्ट वीक से अब तक मम्मी बेड पर हैं, ये तो मुझे वापिस आकर पता चला। इतना कहते-कहते श्रद्धा की आँखे नम हो गयीं। अब तक तो मैं उसे मस्त, बिंदास और बेफिक्र लड़की समझता था। आज तो बिल्कुल उलट लग रही थी। मम्मी ने श्रद्धा को चाय बनाने को बोला। मैंने बहुत मना किया फिर भी वो ले आयी। एक ही चाय देखकर मैं पूछ बैठा, 'आंटी की चाय?' 
'मम्मी चाय नहीं पीतीं'
'तुम तो पीती हो न, मुझसे अकेले नहीं पी जाएगी।'
'ठीक है मैं अभी बना लूँगी'
'नहीं इसमें ज़्यादा है। मैंने तो अभी लंच किया है।' मैंने ज़बरदस्ती दूसरे कप में आधी चाय श्रद्धा के लिए डाल दी क्योंकि मुझे पता था उसने टेंशन में कुछ नहीं खाया है। दिन भर के बाद श्रद्धा के साथ चाय पीकर बहुत अच्छा सा फील हुआ। आंटी से अनुमति लेकर मैं चलने को हुआ तो श्रद्धा भी खड़ी हो गयी और दरवाजे तक छोड़ने आयी। मैंने दरवाजे के बाहर पैर निकाला फिर पीछे मुड़ गया ये जानने के लिए कि जो कुछ मुझे दिख रहा है बात बस इतनी सी ही है या कोई और परेशानी भी है। अगर कुछ है तो एक फ्रेंड होने के नाते मुझसे शेयर करे। मेरा इतना बोलना था कि वो सुबक पड़ी और इसके आगे की जो कहानी सुनाई मुझे तो सहसा यकीन ही नहीं हुआ। 
श्रध्दा का इस दुनिया में कोई नहीं था। उसके जन्म के बाद ही पापा ने माँ को डिवोर्स दे दिया था। श्रद्धा की कस्टडी उसकी मदर को मिली। जब वो 12 साल की थी माँ चल बसीं फिर उसकी ताई माँ ने उसे पाला। आज ताई माँ उर्फ बड़ी मम्मी की बीमारी ने उसे तोड़ दिया। बहुत संघर्ष भरा सफर रहा उसका और आज तक कभी मैंने उसके चेहरे पर शिकन तक न देखी। श्रद्धा ने मेरे कंधे पर सिर टिका लिया था। मैं उसे तसल्ली दे रहा था कि मेरे होते कभी खुद को अकेला न समझे। अगले दिन आने का वादा कर मैं सीढ़ियों पर आ गया था। नीचे पहुँचने ही वाला था कि श्रद्धा की आवाज सुनाई दी। पीछे मुड़कर देखा तो मेरा लंच बॉक्स लिए थी जो शायद मेज पर रह गया था। 
'ये क्या तुमने लंच नहीं किया?' वही पुराना शिकायत का लहजा क्योंकि उसके होते मुझे अपनी दिनचर्या बेहद तरतीब ढंग से सजानी पड़ती थी। 
मुझसे कुछ बोलते नहीं बन पड़ा। उसने बहुत प्यार से मेरी कलाई थाम रखी थी और मेरी आँखों में आँखे डालकर जैसे ढेर सारी नसीहतें दे रही हो। इतने दिनों के रिश्ते में आज पहली बार मैं उसकी आँखों में प्रेम पढ़ रहा था। भावनात्मक लगाव था ये तो जानता था पर क्या प्रेम कहते हैं इसे ये समझना बाकी था अभी। वो ऊपर चली गयी और मैं घर आ गया। 
रोज की तरह शावर लिया और म्यूजिक सिस्टम ऑन कर कमरे में लेट गया। रात के खाने पर माँ ने लंच वाली बात पर जमकर डांटा। बातों ही बातों में श्रद्धा की बात हुई तो मैंने उसके घर जाने वाली बात बताई पर आज पहली बार माँ से जाने क्यों वो सब बातें नहीं बतायीं। अब तक मैं श्रद्धा को लेकर बहुत सहज था पर आज अचानक ऐसा क्यों हो गया? शायद इसी को प्यार कहते हैं। क्या मैं श्रद्धा से प्यार करता हूँ और वो भी..? इन्हीं उलझनों में जाने कब नींद आ गयी। सुबह अपने दैनिक क्रिया-कलापों से निवृत्त होकर नाश्ते की मेज पर था। माँ मेड से जाने किस बात पर बहस कर रही थी बस इतना ही सुन पाया कि आजकल की लड़कियों का तो धंधा हो गया है लड़के फंसाना और इस काम में अब तो माँ-बाप तक साथ देने लगे हैं। मुझे अजीब सा लगा कहीं श्रद्धा को लेकर कुछ...पर ऐसा कैसे हो सकता है। 
मैं घर से श्रद्धा और आंटी को पिक करके हॉस्पिटल गया। एंजियोग्राफी करवाने में शाम हो गयी। मैं घर आ गया। अगले दिन सुबह ही डिस्चार्ज कराकर घर ड्राप किया। इधर दो-तीन दिन में हालात सामान्य हो गए थे पर मेरे दिल का अलार्म बुरा संकेत दे चुका था। श्रद्धा भी प्यार का इकरार कर चुकी थी। उसने तो यहाँ तक कह दिया कि वो बहुत पहले से ही मुझे प्रेम करती थी। अब मेरी ज़िंदगी का मकसद श्रद्धा को खुश देखना भर रह गया था पर माँ की परमिशन पर ही डिपेंड था। माँ से कुछ भी कहने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था। 
उस दिन शाम जब घर पहुंचा नीचे सोसाइटी के लोग इकट्ठे थे। पूँछने पर पता चला कि शकील की माँ लोगों से शकील पर दबाव बनाने की बात कह रही थी। लोगों के घरों में गाड़ी साफ करके जो पैसे मिलते हैं वो अपनी महबूबा पर उड़ा देता है अपने बूढ़े माँ-बाप की बिल्कुल भी फ़िकर नहीं। 
माँ की बात पूरी सोसाइटी मानती थी तो उन्हें ये जिम्मा दिया गया कि शकील को समझाएं। माँ ने शकील को डांटने से पहले एक बार नासिरा और उसकी माँ से मिलने की सोची। मैं और माँ नासिरा के घर पहुँचे। पूँछने पर पता चला नासिरा अपनी अम्मी के साथ एक चाल में रहती है। उसके अब्बू का इंतकाल हुए कई बरस बीत गए। नासिरा घर की बड़ी है। दो छोटे भाई-बहन का जिम्मा उसी पर है। अम्मी को दो महीने पहले ट्यूबरक्लोसिस हो गया। दवाइयों का खर्च और खान पान बेचारी नासिरा अकेले नहीं कर पा रही थी। शकील अपनी कमाई का एक हिस्सा नासिरा से शेयर करता था। शकील का बड़ा दिल देखकर माँ की आँखे बार आयीं। बाहर तक आते-आते माँ ने नासिरा की अम्मी को शादी तक का सुझाव दे डाला। 
माँ का जस्टिस देखकर मेरा मन हल्का हो चला था। अब श्रध्दा की मांग में खुशी का रंग सजाने से मुझे कोई नहीं रोक सकता था।

मेरी पहली पुस्तक

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