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लक्ष्मणरेखा...बस तुम्हारे लिए

प्रिय ईश,

तुमसे कुछ भी कहना, बातें करना तुम्हें तो पता ही है मुझे कितना अच्छा लगता था |याद है न अक्सर बिना किसी बात के मैं तुम्हें फोन कर दिया करती थी। कभी-कभी तुम अलग ही अंदाज़ में दिलकश बातें किया करते थे और कभी व्यस्तता के चलते 'कुछ जरूरी हो तो बताओ नहीं तो बाद में बात करना' ये कहकर डिसकनेक्ट कर दिया करते थे पर मुझे तो बस इसी की आदत थी। एक बहाना चाहिए था तुमसे बात करने का। आज फिर से तुमसे वो सब कुछ शेयर करने का मन कर रहा है। वो ढेर सारी बातें जो सिर्फ प्यार में ही होती हैं।

आज भी याद करती हूँ अपनी पहली मुलाक़ात मन सिहर उठता है, लगता है कल की ही बात हो। ज़िद करने लगती है हर साँस की, उसे तुम्हारी ही धड़कनों की तलाश है। तुम्हारी पहल करने की हिचक आज तक बरकरार है लेकिन मैं  अभिव्यक्ति में कभी पीछे नहीं रही...पहली बार भी नहीं जब तुम चुपके-चुपके मुझे देखते तो रहे थे पर तुम्हारे करीब जाने की कोशिश तो मैंने करी थी। कितना बेख़ौफ़ होकर मैंने तुम्हारा हाथ थाम लिया था। यहीं से शुरू हुआ था हमारे बीच बातों का सिलसिला। तुम्हारी कृतघ्न होने और मेरी दिल को छू लेने वाली पहली बात, 'थैंक यू आपने बहुत सही टाइम पर आकर मुझे बचा लिया वरना मेरी ड्रेस खराब हो जाती।'

'माई प्लेज़र' कहकर मैं मुस्करा भर दी थी।

तुम अपने काम में मशगूल रहे और मैं तुम्हारे सपनों की दुनिया में और इन सबके बीच हमारी मुलाकातें होती रहीं। तुम्हारी बेपनाह सादगी ने मेरे दिल की मोहब्बत को जवान कर दिया था। मैं तुम्हारे खयालों से लबरेज़ रहती थी। वक़्त-बेवक़्त पास आने के बहाने ढूँढती क्योंकि मुझे तुम्हारे अंदर के प्यार के समंदर का अहसास हो चुका था। कितनी बेबाकी से जवाब दिया था तुमने..'हनी ये प्यार सुनामी होता है जो अपने पीछे बर्बादी का मंजर छोड़कर जाता है। मुझे मत ले जाओ प्यार की दुनिया में।' तुम्हारे इस जवाब पर मेरा मन मथ सा गया था। तुम्हें बाहों में भरकर माथा चूमा था। तुम्हारे इतना करीब आकर ये लगा था कि अब दूर जाना नामुमकिन है। तुम्हें ये यकीन दिलाने की भरसक कोशिश की कि मैं हमेशा तुम्हें अपने प्यार की छाँव में रखूँगी। कोई सुनामी तुम्हें छू भी नहीं सकती मेरे प्यार के सिवा। तुम्हारे अंदर वाला प्यार का मीठा दर्द बाहर आ चुका था। खो से गए थे तुम इन रंगीन गलियों में और मैं प्यार की आगोश में। भूल जाती थी हर कुछ तुमसे रूबरू होने के बाद...'हनी तुम्हें पता है दुनिया सबसे खूबसूरत कब लगती है?'

'तुम्हारी बाहों में आकर।'

'कल तुम्हें पनाह देने को मेरी आगोश न रहे तब?'

'तब हनी ही कहाँ रहेगी..वो तो अपने ईश की है।'

'मान लो हम फिर भी अलग हो जाएं तो क्या करोगी?'

'जान दे दूँगी अपनी..यही सुनना चाहते हो न तुम मगर मैं ऐसा कुछ नहीं करने वाली। मुझे पता है तुम्हें मुझसे ज़्यादा प्यार कोई नहीं कर सकता। मैं हमेशा तुम्हारे आस-पास रहूँगी छाया बनकर..पर आज अचानक ये ख़याल कैसे आया?'

'कुछ नहीं बस ऐसे ही।' मैंने बहुत कोशिश की जानने की पर तुम कुछ न बोले। मुझे ऐसा लगा जैसे कुछ होने वाला था। फिर कई दिनों तक मिलना तो दूर तुम्हारी कॉल तक नहीं आयी बस एक मैसेज के सिवा, 'हनी, अब मिलना पॉसिबल नहीं।' पता है तुम्हें क्या बीती मुझपर। लगा जैसे किसी ने चेतनाहीन कर दिया हो मेरा शरीर। मैं निःशब्द सी खुद में गुम हो गयी और तुम न जाने किस दुनिया में। कैसे खुद को सम्हाला तुम्हारी यादों के साथ। अपनी भावनाओं को मैंने घुटते देखा है जैसे समंदर किनारे रेत पर कोई मछली दम तोड़ देती है। 

फिर मुझे सच का पता चला। मैं बदहवास सी भागती हॉस्पिटल पहुँची जहाँ तुम्हारी माँ मौत से लड़ रही थी। ये मेरी बदकिस्मती थी या सच को इसी तरह से सामने आना था कि मेरी आँखों के सामने माँ के वो आखिरी शब्द निकले...बहू का ध्यान रखना। तुम्हारी पत्नी तुम्हें ढाँढस बंधा रही थी। मेरे कदम खुद-ब-खुद पीछे हट गए। कुछ भी नहीं बचा था मेरे पास, सांत्वना के दो शब्द भी नहीं। मैं हॉस्पिटल से बाहर आ गयी। ये तय नहीं कर पा रही थी कि मैं छली गयी या नियति ने मेरे साथ कोई नाइंसाफी की। इतना सब कुछ हो गया और तुमने मुझे सिर्फ दो बोल बोले..सॉरी। क्या इतना कमजोर था मेरा प्यार जो सच नहीं सुन पाता?

मैं सड़क के मंजिलविहीन रास्ते पर निकल पड़ी थी। अचानक सामने से आती हुई कार दिखी। इसके बाद क्या हुआ कुछ नहीं जानती। जब मैंने आँखे खोलीं खुद को हॉस्पिटल के बेड पर पाया और इसके बाद सारा मंजर तुम्हारी आँखों के सामने था। अफसोस है कि तुम कुछ गलत समझ बैठे। आज मुझे उस इंसान के साथ देखकर हिकारत से मुँह फेर लिया। मैं उस इंसान को जानती तक न थी। फिर जब तुमने सारे रिश्ते-नाते ही खत्म कर दिए तो कहना-सुनना कैसा। अगर मैंने तुमसे प्यार किया था तो तुमने भी तो कुछ कमिटमेंट्स किए थे। क्या हक़ था मुझे हमसफ़र बनाकर बीच मंझधार में छोड़ देने का। कुछ वक्त साथ गुजारकर मीठी बातें करना ही तो मोहब्बत नहीं होता। प्यार कोई सीढ़ी नहीं होता ये तो वो ऊँचाई है जो खुद में ही मुक़म्मल है। इसके लिए कोई जिस्मानी रिश्ता होना ही तो जरूरी नहीं होता। तुम एक बार मुझसे सच बताते तो सही तुम्हें क्या लगता है मैं तुम्हारी मजबूरी नहीं समझती। मैंने प्यार किया है तुमसे और प्यार पानी पर खिंची कोई लकीर नहीं जो वक़्त के साथ मिट जाएगी। तुम महज मेरे शब्दों में नहीं मेरी आवाज हो। तुम्हारे साथ मैंने ज़िन्दगी के जो सपने बुने थे वो सब तुम्हें लौटा रही हूँ। डोंट ओरी मैं कभी तुमसे कोई हिसाब नहीं मांगूंगी, कभी कुछ जानने की कोशिश भी नहीं करूँगी। तुम जिस्म से, रूह से भले ही मुझे अलग कर दो पर मुझसे ये यादें चुराकर नहीं ले जा सकते। मैं तुम्हारी नहीं तो मैं किसी की भी नहीं। तमाम खुशियों से सजी अपनी मुख़्तसर सी प्यार की दुनिया बहुत खूबसूरत थी। शुक्रिया उन सभी लम्हों का जो तुमने मुझे दिए। श्वेत चांदनी में टंके हजारों सितारों की दुवाएँ बस तुम्हारे लिए। तुम्हें मेरे हिस्से की मुट्ठी भर खुशियां मुबारक़। हमेशा सम्हालकर रखना इन्हें। ज़िन्दगी के किसी भी मोड़ पर जरूरत के वक़्त मुझे आवाज़ देना मैं कयामत तक बस वहीं रहूँगी जहां तुमने मुझे छोड़ा। आज से हम एक-दूसरे के लिए ईशांत और हनोवर हैं। बस लक्ष्मणरेखा में तुम्हें रहना होगा क्योंकि मुझे पता है तुम बाहर निकलने की पहल कभी नहीं करोगे मेरी आखिरी सांस पर भी नहीं। मैं अपनी कसम हार जाऊँगी... तुम्हारी एक छोटी सी उफ़्फ़ भी मुझे बेचैन कर देगी, मैं जी नहीं पाऊँगी।

कोई शिकायत नहीं बस प्यार ही प्यार,

अल्लाह हाफ़िज

हनी

जाने चले जाते हैं कहाँ दुनिया से जाने वाले

सारांश बहुत भारी मन से ड्राइव कर रहा था अचानक उसे गाड़ी में कुछ प्रॉब्लम लगी। उतरकर देखा इंजन गरम हो गया था। उसे भी कहीं जाने की जल्दी नहीं थी सो बोझिल कदमों से आगे बढ़ने लगा कि शायद कहीं पानी दिख जाए। कुछ दूरी पर चहल-पहल का आभास हुआ, कदम उसे आगे बढ़ाते रहे। उसकी मंजिल कोई नहीं थी जहाँ नियति पहुंचा दे। वो अब तक अनजान था कि नियति इतनी भी क्रूर हो सकती है। पहुंचने पर पता चला कि आज पहली बार वो सही वक्त पर सही जगह पहुंचा है। वो शमशान घाट के नीरव वातावरण में था जहाँ बस दर्द चीखता है। न चाहते हुए भी उसकी नज़र दूर मुखाग्नि को तैयार एक चिता पर पड़ी....लाल रंग के कफ़न पर लिखे स्वर्णिम अक्षर जिन्हें पढ़ते ही उसके बदन में अजीब सी सनसनाहट फैल गयी। बिजली सी फुर्ती के साथ पहुँच गया। वो शब्द आँखों में तेज़ाब की तरह चुभ रहे थे।
"मेरे जीवन का सार
सार.... मेरा जीवन"
सार...इस नाम से तो मुझे मेरी इति बुलाती है। एक अजीब से दर्द ने उसकी साँसों को चोक कर दिया था। उसकी हिम्मत नहीं हो रही थी कि आगे से जाकर चेहरा देखे तभी इति का भाई शिशिर सामने आ गया।
"बहुत देर कर दी भाई आपने आने में....दी आपसे मिलना चाहती थी। बहुत बार कहा सारांश को बुला दो। मम्मी ने भी ढूंढा आपको, कई बार नंबर लगाया। हर बार इंगेज टोन... हम सब आपसे ये जानना चाहते थे कि दी आखिरी वक्त तक किसका वेट करती रही। वो आपके बहुत करीब थी न। मम्मी कहती थी कि आपको जरूर पता होगा। हम उसकी ये आखिरी इच्छा नहीं पूरी कर पाए। वो बेहोशी की हालत में बस किसी को आवाज़ देती रहती थी.." कहते-कहते शिशिर फफक पड़ा।
मुखाग्नि देने के लिए कुछ लोग शिशिर को ले गए।
सारांश मूर्तिवत खड़ा रह गया....मेरी इति मुझसे दूर नहीं जा सकती..बहुत प्यार करती थी तुम मुझसे...एक-एक कर सब मुझसे दूर हो गए...माँ-पापा, दोस्त सारे रिश्ते तो छूट गए..तुम तो मेरी हर गलती पर हँस कर टाल जाती थी...यहाँ तक कि कभी ऊँची आवाज में बात तक नहीं की... आज इतनी बड़ी सजा देकर चली गयीं... तुम्हें आना होगा, मेरी खातिर..तुम तो मेरी अपनी हो इति..
...किस मुँह से कह रहा हूँ तुम्हें अपना, तुम भी तो बहुत रोती थी मेरे लिए, कितना मनाती थीं जब मैं बात नहीं करता था...मैं कभी पलटकर नहीं देखता.... 'इति एक बार बस एक बार देखो न मुझे, अब मैं तुझे कभी नहीं रुलाऊँगा।'
इति उठने वाली नहीं थी। अब कभी नहीं उठेगी। कभी नहीं कहेगी, सार मेरी भी सुन लिया करो कभी। सारांश जानता था इति सारे जहाँ से रूठ सकती है पर अपने सार की एक आवाज पर दौड़ी चली आती। यही अति विश्वास उसे ले डूबा था। वो यह भूल गया था कि इंसान परिस्थितियों का दास होता है।
उसके सफर ने सच का आईना दिखाया था पर उस वक़्त जब उसकी कोई कीमत नहीं थी। अपने प्रायिश्चित के लिए वो शांति-पाठ में इति के घर गया। इति की माँ ने उसे वो कमरा दिखाया जहां की दीवारें इति के साथ सार के होने की गवाही दे रही थी। हर निर्जीव पड़ी चीज चीख-चीख कर कह रही थी....सार तुम्हारा होना इति का न होना बन गया...। सार भाग-भागकर हर वो चीज देख रहा था जो इति की ज़िंदगी में उसकी अहमियत को दिखा रही थीं..ये पहला गिफ़्ट.. ये झगड़ा करते हुए पेन का तोड़ना...मेरी घड़ी का कवर..मेरा पहला टूटा हुआ सेल फोन... उफ़्फ़ मेरे होंठों से लगा हुआ स्ट्रा... ओह गॉड मेरी नोटबुक का लास्ट पेज...अरे ये तो वही चाभी है अगर तब मिल गयी होती तो शायद सब कुछ ठीक होता! ओह शिट जब ये चाभी गुम हुई थी इति बार-बार मुझे बुला रही थी शायद यही देने के लिए, कुछ दूर मेरे पीछे भी आई थी वो, कॉल भी किया पर मैं अपनी उलझन में सुनता ही कब था...बस वही तो आखिरी मुलाक़ात थी मैं जेल जाने से बचने के जुगाड़ लगाता रहा और वो मुझे बचाने के...फिर भी मैंने मुड़कर नहीं देखा...।
'इति मैंने तुम्हें खो दिया है। मैं अकेला हो गया हूँ। इति आज मुझे तुम्हारे कंधे की जरूरत है। क्यों देती थी मुझे बात-बात पर सहारा, अब क्या करूँगा मैं... तुम बहुत दुखी होकर कहती थी सार, मुझे क्यों दूर करते हो इतना अगर गयी तो तुम्हारे अंदर भी नहीं रह जाऊंगी...कहाँ चली गयी...तुम तो ऐसा कोई काम नहीं करती थी जिससे मुझे तकलीफ होती फिर अब ऐसा कैसे कर सकती हो??
सारांश घुटनों पर बैठा रो रहा था। इति की माँ ने उसे चुप कराया। वो बार-बार सारांश से यही पूछने की कोशिश करती रहीं कि इति के जीवन में ऐसा कौन था जिसे वो सब लोग नहीं जान पाए। सारांश ये सच कैसे बताता कि उनकी बेटी का गुनहगार वो ही है।
"इति को हुआ क्या था आंटी?"
"मल्टी ऑर्गन फेलियर।"
"इतनी जल्दी कैसे?"
"निमोनिया हुआ था, एक बार बिस्तर पर गयी फिर उठ न पायी।"
सभी के गले रुंध चुके थे। सारांश बाहर निकल आया। उसके पास ऐसा कोई रास्ता नहीं था जिससे कि इति की आत्मा को शांति मिलती। उसे नफरत हो रही थी हर चीज से यहां तक कि अपने आप से भी।

इस वर्तमान का भविष्य क्या???


देखने में सुडौल, खूबसूरत शरीर के मालिक पेशे से इंजीनयर मौलिक चंद्रा अपने हर काम में निपुण हैं। जितने देखने में सरल मन कहीं उससे अधिक मधुर। एक-एक कर सारी खूबियाँ उनमें समायी थी सिवाय मन की कमजोरी के। सभी के लिए इतना अच्छा सोचते कि स्वयं का ध्यान रखने का मौका नहीं मिलता। ऐसे में अगर कोई कुछ कह देता वो उसी के जैसा सोचने लगते। जब लोगों को ये पता चलता लोग हर तरह से उनका उपयोग करते। उनसे अपने मन की करा लेते। 
उनके एक बहुत अच्छे मित्र को कुछ मजे लेने की सूझी। कुछ पुरानी खुन्नस भी निकालनी थी उन्हें। शाम होते ही ऑफिस आ गए, "यार मौलिक अपने ग्रुप के सभी लोगों की बैंड बज गयी अब तू ही बचा है..."
"सही बोल रहा तू, मुझे पता तुम सबसे मेरी खुशी नहीं देखी जाती।" मौलिक बात काटते हुए बोला।
"मैं ये सब नहीं जानता। तू तो पार्टी से बचना चाह रहा। अब जल्दी से फाइनल कर।" मोहित चहकते हुए बोला।
"नहीं यार वो बात नहीं, मुझपर बहुत जिम्मेवारियां हैं। अभी कुछ वक्त और रुकना चाहता हूँ।"
"अरे पागल है क्या, वो आ जायेगी न तो दोनों मिलकर करना फिर सब ठीक हो जायेगा।"
"तू नहीं समझता आजकल अच्छी लड़की मिलती कहाँ हैं।"
"उसकी टेंशन मत ले तू मैं तो लड़कियों की लाइन लगा दूँगा। मुझे पता है तू इतना डिस्टर्ब क्यों है। देख यार हर लड़की एक जैसी नहीं होती और मैं तो कहता हूँ तूने जल्दबाजी भी बहुत कर दी थी। तूने लिव-इन का ऑफर देकर ही गलती की। तुझे निचोड़कर चली गयी। जाने ही देना था तो ऐसे न जाने देता। साली को देना था कान के नीचे एक। उसकी औकात बताकर भेजता कि तू भी क्या था। अब यहीं अपनी भाभी की फ्रेंड को ही ले। इतनी खूबसूरत है कितने ही लड़कों ने प्रपोज किया पर मजाल है जो किसी से बात कर ले। रिश्ता वहीं करेगी जहाँ घरवालों की मर्जी होगी।"
"हाँ सही कह रहे हो भाई। लड़की को संस्कारी ही होना चाहिए.... अच्छा मैं निकलता हूँ जाना है कहीं। फिर मिलते हैं।"
"हाँ, मैं भी घर जा रहा हूँ।"
मोहित और मौलिक दोनों ही अलग रास्तों पर निकले थे पर दोनों की सोच एक ही थी। मौलिक जहाँ अपने अतीत को भुलाकर नयी शुरुआत करना चाहता था वहीं मोहित दिव्या से उसका रिश्ता कराकर अपने अतीत को जीना चाहता था। 
मोहित के घर पहुँचते ही उसकी पत्नी ने शादी में जाने की बात की। तैयार होते हुए उसने अपनी पत्नी को मौलिक के बारे में बताया कि वो दिव्या और मौलिक का रिश्ता कराना चाहता है। 
"अरे ये क्या कह रहे हो। इतने शालीन, सभ्य मौलिक भाई और वो आवारा लड़की जिसने तुम्हें तक नहीं छोड़ा।"
"हाँ तो मैं कौन सा धर्म का ठेकेदार हूँ। वैसे भी मौलिक को तुम जानती ही कितना हो।"
"फिर भी कम से कम उन्हें इस तरह तो न फँसाओ।"
मोहित ने मौलिक को फोन कर शादी में जाने की बात याद करायी। मौलिक भी झट से तैयार हो गया।
"अब मौलिक को जबरदस्ती क्यों बुलाया? देखो ये गलत कर रहे हो तुम।"
"बस मेरी मर्जी।"
शादी के हाल में मौलिक, मोहित और उसकी पत्नी से मिला। कुछ औपचारिक बातें हुईं। तभी सामने से दिव्या आ गयी।
"इनसे मिलो मौलिक ये हैं हमारे यहाँ की फैशन डिज़ाइनर दिव्या,,, और दिव्या ये हैं इंजीनियर साहब मौलिक।" कहते हुए मोहित ने परिचय कराया।
कुछ देर तक औपचारिक बातें होती रहीं फिर कुछ खिलाने के बहाने दिव्या मौलिक को बाहर तक ले आयी। एकांत पड़ी कुर्सियों पर दोनों बैठ गए। मोहित अपनी पत्नी के गुस्से को नजरअंदाज करता रहा। 
ये एक छोटी सी मुलाक़ात एक सिलसिले का सबक बन गयी। मोहित तो जैसे आमादा था सब कुछ अभी हो जाये। मौलिक प्यार के पन्ने पलटने में व्यस्त था। वही दिव्या इन सब बातों से बेखबर जीवन के मजे ले रही थी। दिव्या की स्वच्छंदता सबसे बड़ी रुकावट थी। मौलिक दिव्या के इस व्यवहार को उसकी जहीनता समझ रहा था। 
"मौलिक इतने स्लो ट्रैक पे क्यों चल रहा?"
"यू मीन?"
"नथिंग"
"कहाँ आज इतनी सुबह..."
"अरे मैं तो नितिन के लिए आया था। एक भाईसाहब आगे वाले मोड़ पर हैं, उनके पास जाना है। तू यहाँ क्या कर रहा चल न मेरे साथ।"
"अरे नहीं, ऑफिस में बहुत काम है।"
"कोई काम नहीं। वापिस आकर कर लेना।"
मोहित मौलिक को जबरदस्ती अपने साथ ले गया। 
दोनों एक तांत्रिक के दरवाजे पर थे। नॉक करते ही उन्हें अंदर बुलाकर बिठाया गया। मौलिक को महसूस हुआ कि मोहित का कोई इम्पोर्टेन्ट काम नहीं था बस बहाने से ले आया। मोहित ने बातों ही बातों में मौलिक की पूरी कहानी सुना डाली। 
"परेशान क्यों होता है तू, तेरी परेशानियां तो चुटकी बजाते जाएंगी।" इतना कहकर उस तांत्रिक ने आंख बंद कर मन्त्र पढ़ने शुरू कर दिए।
"घोर अनर्थ तुझपर बहुत बड़ी विपदा आने वाली है। सही समय पर आ गया तू। ये ले ताबीज पहन  ।" मौलिक की ओर ताबीज बढ़ाते हुए बोला।
"देख मैं तुझसे इसके बदले कुछ भी नहीं ले रहा।" 
"अरे ऐसा कैसे बाबा। ये लीजिये, अब हम आज्ञा चाहते हैं।" मोहित ने बाबा को मुद्रा देकर अनुमति ली। अब मौलिक के दिमाग ने सोचना बंद कर दिया था। उसकी दुनिया दिव्या, मोहित और तांत्रिक तक सिमट कर रह गयी थी। तांत्रिक उसे सफलताओं के सब्ज-बाग दिख रहा था। दिव्या और मोहित का आहार तो वो पहले से ही बना था। जो शख्स इतना पढ़ा-लिखा होने के बावजूद ऐसी हरकत करे तो समाज में वैल्यू कम होना स्वाभाविक था यहाँ तक कि उसके जूनियर भी दूर होने लगे थे।
एक शाम मौलिक उचाट मन से ऑफिस में बैठा हुआ था तभी सामने से दिव्या को आता देख खुश हो गया। 
"मौलिक, ये मैं क्या सुन रही हूँ तुम्हारे बारे में, तुम इतने गिरे हुए इंसान हो। मुझे पाने के लिए उस ढोंगी बाबा का सहारा ले रहे। बस यही संस्कार हैं और तुम्हारी शिक्षा।"
"ये किसने कह दिया तुमसे। तुम्हें गलतफहमी हुई है। मैं किसी बाबा को नहीं जानता।"
"झूठ मत बोलो। मैं उस बाबा का स्टिंग ऑपरेशन करके आ रही हूं।" इतना कहकर एक जोरदार आवाज के साथ पूरे ऑफिस में सन्नाटा पसर गया। मौलिक के गाल पर दिव्या की उंगलियों के निशान छप गए थे। तभी तड़-तड़ की आवाज के साथ आफिस में अंधेरा हो गया। कहीं शार्ट-सर्किट हुआ था। लोगों में अफरा-तफरी मच गई। दिव्या जा चुकी थी। वो बूढ़ा तांत्रिक मौलिक की गिरेबान पकड़कर अपनी आखिरी किश्त मांग रहा था। मौलिक ईश्वर को याद कर अपनी उन अच्छाइयों का वास्ता दे रहा था जो उसने जीवन में कभी की हों। 
तभी मौलिक के कानों में फोन की घण्टी बजी। 
"ज़िन्दगी, तुमने मुझे जगा दिया। थैंक यू सो मच। शायद मौलिक ने बहुत अच्छाइयां की अपने जीवन में कि ये एक स्वप्न ही था इससे ज़्यादा कुछ नहीं।

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क्या यही इंसाफ है?

"जज साहब, मैंने इस आदमी को मारा है। मुझे सजा दीजिये। प्लीज जज साहब...." कहते-कहते निर्मला की चीखें पूरे कोर्ट में गूंज गयीं थीं। हर कोई यही जानना चाहता था कि कटघरे में खड़ी ये औरत खुद के लिए सजा क्यों चाहती है जबकि इसका पति भी इसे निर्दोष कह रहा है। सारे सुबूत निर्मला के पक्ष में थे वो कहीं से भी अपने श्वसुर की हत्या जैसे जधन्य अपराध की दोषी नहीं दिख रही थी। जज साहब चाहकर भी फ़ैसला नहीं सुना पा रहे थे। निर्मला की घिग्गी के साथ ही सारा माहौल शांत था। हर आंख में ढेरों सवाल थे। वहीं एक ओर निर्मला का पति शांत खड़ा हुआ था।
जज साहब ने 2 घंटे के लिए कोर्ट को बर्खास्त कर दिया ताकि वो पूरा मामला समझ सकें।
थोड़ी ही देर में एक अर्दली ने निर्मला को जज साहब से मिलने का फरमान सुनाया। ये जज साहब की ज़िंदगी का पहला ऐसा केस था जिसमें गुनाह चीख़ रहा था कि निर्दोष को बरी किया जाए पर निर्दोष खुद को सलाखों के पीछे ले जाना चाहता था।
"निर्मला जी, देखिये मैं आपको व्यक्तिगत रूप से नहीं जानता पर ये जानना चाहता हूँ कि आप खुद को दोषी क्यों मानती हैं? अगर बता सकने लायक हो तो मुझे बताइये शायद मैं कुछ मदद कर सकूँ?" निर्मला जज के सामने सर झुकाये खड़ी थी जज का सवाल सुनते ही फफक पड़ी।
"जज साहब, मैं इस आदमी के साथ नहीं रहना चाहती। मेरा इस दुनिया में कोई और नहीं है। रही बात छविनाथ की तो उसको मैं ज़िंदा छोड़ने वाली नहीं थी। मैं हंसिया से उसकी गर्दन उड़ा देती मगर वो छज्जे के किनारे आकर कूदकर मर गया। ये आदमी जिसे आप लोग मेरा पति कहते हो ये जहरीला नाग है। ब्याह के बाद से ही इसने अपनी पत्नी बाप को सौंप दी। खुद नशा पीकर धुत रहता, बाहर की औरतों के साथ अय्याशी करता। मैं इसके बाप की हवस का शिकार बनती। कुछ बोलती तो खाल उधेड़ देता।  ऐसी ही मौत मरना था इसे। जज साहब मुझे उम्र क़ैद की सजा दो। अगर आज़ाद हुई तो...." निर्मला जज साहब के पैरों में लिपट गयी।
निर्मला को एक ओर लगभग धकेलते हुए खिड़की तक चले गए। शून्य में इस कदर खो गए कि ज़िन्दगी निर्वात लगी उस पल।
उन्हें तो फैसला गवाहों और सुबूतों के आधार पर करना था। अदालत मानवीय संवेदना को नहीं मानती न ही इन पर आधारित निर्णय लेती है।

लांछन

"सन्नो..." ननद की आवाज सुनते ही सन्नो ने पलटकर देखा। खीझ भरा गुस्सा देखकर सहम गयी। वो कुछ बोल पाती इससे पहले ही उसकी बात काट दी गयी, "देख अब तक बहुत सह लिया तुझे। अब तो नरेश भी नहीं रहा, क्या करेंगे हम लोग तेरा। वैसे भी हमारे घर में छोटे-छोटे बच्चे हैं कहीं इन्हें कुछ हो गया तो। अब तेरा यहाँ से जाना ही ठीक है।"
सन्नो को कुछ बोलने का मौका नहीं दिया गया। ननद और जेठानी उसे आंगन से खीचते हुए बाहर अहाते तक ले गयीं, लगभग धकेलते हुए दरवाजा अंदर से बंद कर लिया। सन्नो ने सास की तरफ़ ज्यों ही पलट कर देखा उसने ऐसे मुँह फेर लिया जैसे पहचानती ही नहीं।
अब वो अहाते के दरवाजे पर गुमसुम उस दहलीज को निहार रही थी जहाँ 2 साल पहले ब्याह कर लायी गयी थी। नरेश दिल्ली के एक कारखाने में काम करता था और वहीं एक चॉल में रहता था। उसे अपने पति के चाल-चलन पर शुरू से ही संदेह था पर कभी घर की इज्जत और कभी उसके औरत होने की मजबूरी उसे चुप रखती थी। माँ-बाप बूढ़े हो चले थे, भाइयों ने कोई सुध ही नहीं ली।
पिछले महीने नरेश की तबियत अचानक बिगड़ गयी। दिल्ली से आने पर पता चला कि वो एड्स के शिकंजे में है। उसके पैरों तले जमीन खिसक गयी। तब सास, जेठानी और ननद ने पैरों पर सर रख दिया था कि घर की इज्जत का सवाल है बात बाहर न जाये। सन्नो ने पूरे एक महीने तक पति की जी-जान से सेवा की, अंततः वो चल बसा। अंतिम समय में सन्नो को उसकी आँखों में पश्चात्ताप दिखा था पर तब जब जीवन में कोई झनकार नहीं बची थी।
आज सन्नो की सिसकी नहीं रुक रही कि कौन उसे निर्दोष मानेगा। नरेश के जीते जी वो चुप रही अब किससे कहेगी कि वो बदचलन नहीं है।
'हे प्रभु, अगर कलयुग में धरती नहीं फट सकती समाने को तो सीता मइया जैसा लांछन क्यों लगवाते हो???' सन्नो की आत्मा चीख रही थी।

इंसानियत से इंसानियत तक



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ट्रैफिक सिग्नल पर ग्रीन लाइट का इंतज़ार करते हुए मेरी नज़र गाड़ी साफ करते लड़के पर गयी। कुछ जान-पहचाना चेहरा दिखते ही मैंने कार का शीशा खोला, "अरे मासूम तुम!" मुझे खुशी से चहकता देख मासूम मेरी कार विंडो के पास आ गया।
"दीदी आप, पहचान गयीं मुझे?" इतना कहते ही उसकी आंख में आँसू आ गए।
"क्यों नहीं पहचानूँगी तुझे...अच्छा ये बता हुस्ना कैसी है, और तूने ये हुस्ना का काम कब से शुरू कर दिया?"
"दीदी हुस्ना का उसके अब्बू ने घर से निकलना बंद कर दिया, आप तो जानती ही हैं सब कुछ।" इतना कहते ही वो फफक कर रो पड़ा।
मैंने मासूम से गाड़ी में बैठने को कहा और अनुभव से हुस्ना के घर चलने को। वहाँ से तकरीबन 30 मिनट की दूरी पर था।
गाड़ी हाई वे पर दौड़ रही थी और मैं अपनी यादों की हसीन गलियों में। यही कोई 5 साल पहले मुझे मेरे अब्बू ने कल्याण अपार्टमेंट के एक फ्लैट में जेल की तरह शिफ्ट कर दिया था वहाँ कोई इंसान तो दूर परिंदा भी पर नहीं मार सकता था। मेरा गुनाह ये था कि मैं एक हिन्दू लड़के से प्यार कर बैठी थी। पूरे 72 घण्टे बाद मुझे सामने वाले फ्लैट में एक लड़का पेपर डालते हुए दिखा। मेरे आवाज देने पर वो खिड़की के पास आ गया। पूछने पर पता चला वो हॉकर है, रोज नीचे से पेपर डालकर चला जाता था आज सामने से खिड़की बन्द थी तो ऊपर आ गया। मैंने एक चिट पर अपना फ्लैट नंबर और अपार्टमेंट का नाम लिखकर अनुभव का पता बताते हुए देने को कहा।
अगले दिन वो अनुभव का रिप्लाई लेकर आ गया साथ ही हुस्ना को अब्बू की गाड़ी साफ करने को लगा दिया। हुस्ना और मासूम की मदद से अनुभव ने एक सेल फ़ोन मुझ तक पहुंचाया। मैं बाहर तो नहीं जा सकती थी पर अनुभव तक अपने मेसेज पहुंचा सकती थी। हुस्ना और मासूम हमारा बहुत ख़याल रखते थे। मेरे पैदा होते ही अम्मी गुजर गई। अब्बू मुझे इस बात का दोषी अब तक मानते हैं। मुझे अनुभव में माँ-बाप हर किसी का प्यार दिखा और अब मासूम, हुस्ना तो मुझे अल्लाह के बंदे दिखे। हुस्ना गाड़ी साफ करती थी और मासूम हॉकर था। हुस्ना उन मासूमों में से एक थी जो अपनों में रहकर यौन-उत्पीड़न का दंश झेलते हैं। मासूम की पाकीज़गी पर वो फिदा थी। उसे पहली बार कोई ऐसा मर्द मिला था जो उसके जिस्म का दीवाना नहीं बल्कि मन का तलबगार था।
जैसे ही अनुभव की फाइनेंसियल क्राइसिस खत्म हुई, हमने शादी कर ली। अब्बू की रज़ामन्दी तो नहीं मिली दुवाएं भी न मिल सकीं। आज उन बातों को 5 साल बीत गए। इस दौरान मैं खुद में इतनी मशरूफ़ रही कि मासूम और हुस्ना से न मिल सकी। जबकि मैं और अनुभव अक्सर उन दोनों का जिक्र किया करते थे।
अचानक लगे ब्रेक से मैं हक़ीक़त में आ गयी। गाड़ी हुस्ना के घर के सामने वाली गली में थी। हम लोगों को इस तरह आया देख हुस्ना के अब्बू सहम गए। अनुभव को देख उनकी आँखों में मीडिया का भय दिखा। हुस्ना रोते हुए मुझसे लिपट गयी। मैंने उसके माथे को सहलाया। उसकी आँखों में यकीन दिख मुझे। हम हुस्ना को लेकर आ गए। वापिस आते एक अच्छा सा सुकून मिल रहा था मुझे पर एक सवाल ज़ेहन में था कि एक हुस्ना को तो मैंने आज़ाद करा दिया समाज तो ऐसी हुस्ना से पटा पड़ा है। वो खुली हवा में सांस लेने को छटपटा रही हैं कब चेतेंगे हम अपने कर्तव्यों के प्रति कि कोई हुस्ना अत्याचार सहने को मजबूर न हो?

वो जूस वाला...


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"देख...देख...जरा ढंग से, आज फिर नहीं आया तेरा वो जूस वाला।"
"हाँ तो ठीक है न! कौन सा मेरी जागीर ले गया?"
"और क्या अब तो ऐसे बोलेगी ही तू!"
"अपने काम से काम रख और गाड़ी चलाने पे ध्यान दे। वैसे मुझसे ज़्यादा अब तू जूस वाले का इंतज़ार करती है।" मेरा इतना कहना था कि वो चुप होकर गाड़ी चलाती रही। मैं अपनी फ्रेंड के साथ रोज़ इसी रास्ते से आफिस जाती थी। पहले तो कभी ध्यान नहीं दिया पर एक दिन साथ में पानी न होने पर जूस का ठेला दिख गया। वैसे तो मैं बाजार की कभी कोई चीज़ नही खाती-पीती थी पर वो जूस उस दिन मुझे अमृत सरीखा लगा। जूस पीने से पहले मेरी दो शर्त थीं। पहली तो ये कि साफ-सफाई हो और दूसरी कि मौसमी मतलब मौसमी, इसके अलावा कोई और जूस न निकाला गया हो। दोनों कैटेगरी में जूस वाले को 100 आउट ऑफ 100 जाते थे। उसका सर्व करने का शालीन तरीका भी मुझे बहुत पसंद आया।
हम दोनों अक्सर रुककर जूस पी लेते थे। एक दिन हम सामने से बिना रुके निकल गए। दूसरे दिन जाते ही उसने पूछा, "मैडम आप कल नहीं आयीं?"
"अरे भैया जी, कल हमारे पास चेंज नहीं था।"
"तो क्या हुआ बाद में ले लेते। अब रोज़ पी लिया करिए पैसे एक साथ लेंगे।"
मैंने उसे सौ का नोट दिया, वो चेंज वापिस करने लगा।
"आप इसे रख लीजिए, कल फिर आऊंगी तो नहीं दूँगी।"
"अरे नहीं मैडम हम ये नहीं लेंगे। आप पहले जूस पियेंगी जब 100 रुपये हो जाएंगे हम इकट्ठा ले लेंगे।"
मैंने ज़बरदस्ती 100 रुपये ठेले पर डाल दिये और चली गयी। रास्ते भर मेरी दोस्त बड़बड़ाती रही, न जान न पहचान क्या जरूरत थी 100 रुपये देने की उसे। ये सब ऐसे ही होते हैं, अगर भाग जाए तो....। मैं चुप रही।
पर उस दिन के बाद से मैं आज तक ताने सुन रही हूँ। मैं भी परेशान हूँ इसलिए नहीं कि पैसों का गम है बल्कि उस जगह वो जूस का ठेला देखने की आदत सी हो गयी थी। अब किसी और जूस में वो टेस्ट नहीं आता था।
मैं उधेड़बुन में थी कि गाड़ी एक गाय से टकराकर डिवाईडर पर पलट गई। मेरी आँखें हॉस्पिटल में खुलीं। बाद में पता चला कि गिरने की वजह से मेरे सर में चोट आ गयी थी। मेरी फ्रेंड किसी की हेल्प से मुझे हॉस्पिटल तक लायी। हेल्प करने वाला कोई और नहीं बल्कि वही जूस वाला था। आज से ठीक 21 दिन पहले उसके बेटे का रोड एक्सीडेंट हो गया था। तब से आज तक वो इसी हॉस्पिटल के आस पास रहता है। पैसों के लिए कभी-कभी मौसमी का जूस भी निकालता है। एकदम बदल सा गया है वो, पहले से बहुत दयनीय लाचार सा दिखने लगा है। मेरे होश में आते ही जूस का गिलास लेकर आ गया। आज कितने दिनों के बाद वो टेस्ट पी रही थी मैं। मेरी फ्रेंड ने पैसे निकालकर देने को हाथ बढ़ाया।
"क्यों शर्मिंदा कर रही हैं मैडम, अभी तो आपके 100 रुपये हैं हमारे पास। हम गरीब हैं पर बेईमान नहीं। बहुत लाचार हो गए बच्चे को कोई दवा असर नहीं कर रही। आपको पैसे देने भी न आ पाए।" मेरी फ्रेंड कुछ बोलती इससे पहले ही डॉक्टर का बुलावा आ गया।
"रामआसरे जी, आपके बच्चे को होश आ गया। डॉक्टर साहब आपको बुला रहे हैं।"
मैं जूस वाले भैया उर्फ रामआसरे को वार्ड की तरफ भागते देख रही थी। मेरी फ्रेंड आँखों की कोरों पर आँसुओं को छुपाने की कोशिश कर रही थी।

एक थी शी

रोज़ की तरह आज भी शी उसे बेपनाह याद किये जा रही थी। शरीर बुखार से तप रहा था फिर भी उसे अपना नहीं ही का ही ख्याल आ रहा था। एक तरफ ही था जो दूर भागता रहता था। शी कितना भी कोशिश करती पर खुद को नहीं समझा पा रही थी। उसके लि दूरी मौत का दूसरा नाम थी। ही जो पहले उसे इमोशनली सपोर्ट करता था, अब अचानक कतराने लगा था। काफी दिनों से ये सब देखते हुए शी अब अंदर तक टूट गयी थी। एक अलग सा वैक्यूम बन गया था उसके अंदर।
लेटे-लेटे अचानक शी को कुछ घबराहट सी महसूस हुईअनजाने में ही उसका हाथ गले पर चला गया, बहुत खालीपन सा महसूस हुआ उसे। शी के गले में हमेशा ही एक ैन हुआ करती थी। एक रोज़ ही से बाते करते हुए वो कब उसे निगल गयी पता ही न चला। बहुत परेशान हुई थी वो। उसकी परेशानी का सबब ये नहीं था कि चैन गयी या लोगों को क्या जवाब देगी या ैन के बगैर वो रह नहीं पाएगी बल्कि उसे ये लग रहा था कि माँ से नज़र कैसे मिलाएगी? बहुत प्यार से माँ ने उसे गिफ्ट किया था, क्या कहेगी उनसे कि सम्हाल नहीं सकी उनका प्यार या फिर ये कि ही उसके लि माँ से भी ज़्यादा इम्पोर्टेन्ट हो गया था।
आज शी की घुटन का सबसे बड़ा कारण यही है कि ही उसकी जिंदगी में ऐसे मिल गया था जैसे हवा में साँसे घुल जाती हैं पर ही ने एक अलग ही दुनिया बना ली थी। जिसमें हर वो शख्स था जिसे वो अपना कहता था अगर कोई नहीं था तो वो शी।
शी के लि जीने की कोई वजह नहीं थी। यहां तक कि उसने अपने आखिरी वक्त में ही से बोलना भी नहीं जरूरी समझा। कहीं दो शब्द भी न छोड़े अपने ही के लि
रात के दो बजे बिस्तर से उठकर माँ के कमरे में आयी। उसका ये वक़्त चुनने का कारण ही था। वो हर रात दो बजे तक उसकी कॉल का वेट करती रहती थी, आज भी किया पर उसे मायूसी इस कदर निगल चुकी थी कि इंतज़ार को एक और रात नहीं दे सकती थी।
"मुझे माफ़ कर दो माँ, मैंने तुम्हारा दिल दुखाया। अब मुझे जीने का कोई हक़ नहीं।" इतना कहकर माँ के पैरों पर सर रख दिया। अब तक नींद की गोलियां अपना असर कर चुकी थीं।
शी इज़ नो मोर नाउ.....

मेरी पहली पुस्तक

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