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माँ

बारिश, जुगनू, गुड़िया,
देखा फिर होश कहाँ,
रंग, तितली, फूल, हवा,
अब ये ही मेरी दुनिया।
नन्हीं आँखे, नन्हें सपने,
बस देखे है तेरी मुनिया।
कोई और भाए न मुझे,
मेरा जीवन तो तू है माँ।

स्त्री या सुनामी!

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सुनो, तुम दिन भर खटती रहती हो
घुँघरू की ताल पर नाचती हुई
सबके लिए फिक्रमंद
जरूरतों के मुताबिक
थोड़ा-थोड़ा जीती हो,
कभी घर के हिसाब में,
कभी बच्चों की तकरार में,
कभी माँ-बाबूजी की अवस्था
को समझने में
खुद भी उलझ जाती हो,
घर के राशन से दवाई तक
रिश्ते-नातों से लेकर
बच्चों की पढ़ाई तक,
समाज, घराना, मित्र व्यवहार
सबमें इतनी सजग
जैसे समर्पण की देवी हो,
सबको अपना बना लेती हो,
हथेलियों से छांव करने को आतुर,
बस नेह के लिए बनी हो,
चेहरे पर बसी पुरकशिश मुस्कान
सारे रहस्य छुपा लेती है,
कभी तो थकती होगी,
कुछ तो दुखता होगा,
कोई तो शिकायत होगी,
कितनी सहजता से पीती हो
दर्द का विष
जैसे योगी ने हिमालय पे पिया था;
हजार आशनाओ में लिपटी वो मादकता,
आज भी यौवन की हथेली पर
ओस की बूँद सी दिखती है:
दिन की टिक-टिक पर थिरक कर भी
ऐसे सजाती हो मेरी रातों को
कि हर रात निखर जाती है
सुहागरात में;
तुम्हारी हर छुअन पहले स्पर्श जैसी,
वही कोमलता
जो रग-रग में स्रावित होती है,
मेरे हर आग्रह पर आज भी
उतनी ही समर्पित
तुम्हारा उद्वेग
मेरे आवेश को समा लेता है,
तुम जीती रहती हो मुझे बूँद-बूँद
मेरे स्खलित होने तक;
मैं निढ़ाल हो जाता हूँ
तुम फिर भी सजग रहती हो
जीवन के जतन में,
जितना मैं दिन और रात में जीता हूँ,
तुम जीती रहती हो पल-पल,
रात्रि की कोमलांगना
दिन की अष्टभुजी बन जाती हो,
वाह, क्या बात है तुममें
स्त्री हो या सुनामी!
जहाँ भी रहती हो,
लहरों की तरह
बस तुम ही तुम रहती हो।

इंद्रधनुष

सुनो, आज धूप है और बारिश भी
तुम भी आ जाओ न;
क्यों अकेला छोड़ते हो ख़ामख़ा हमको,
हम नहीं होंगे तुम्हे सताएगा कौन,
तुम्हारे बग़ैर हमें मनाएगा कौन?
जानते हो न तुम हमारी जरूरत नहीं
इस दिल की ज़ीनत हो,
हमारी बेवजह ज़िन्दगी का
साजो-सामान हो तुम,
अब ज़िद के शामियाने में कितनी देर ठहरोगे?
लाल महावर हमारे पाँवों की धूमिल हो चली,
होंठो की गुलाबी रंगत फीकी पड़ रही,
कजरारी आँखे सुर्ख हो गयी,
बारिश थमने को, धूप उतरने को है,
एक इंद्रधनुष आकाश में खिलने को है,
दूजा हमारे मन में कब खिलाओगे,
आओ न कि हर घड़ी इंतज़ार में है,
हर नज़र तुम्हारे दीदार में है,
हम अपने आँचल की चंवर लिए बैठे
झलक अपने होने की कब दिखाओगे?

मेरा मन तुम्हारा हुआ!

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याद है अब भी मुझे
तुम्हारा होना पल-पल यहाँ,
जैसे धूप में छतरी कर रहा था
तुम्हारा स्पर्श,
बातों की स्नेहिल बयार में
बही जा रही थी मैं,
तुम्हारा खुलकर हँसना,
जी भरकर बोलना,
अनवरत क्षितिज की तरफ
मेरे होने की गवाही ढूंढना,
गोया मेरा कोई बिम्ब वहां उभर रहा हो,
मेरा होना तो उस शून्य की तरह था
जो तुममें डूबा हुआ था,
एकटक जमीन को भेदती मेरी नज़र
तुम्हें सिर्फ तुम्हें देख रही थी।
स्पर्श को मचलती मेरी मादकता
उस रोज़ तुम्हारे उन्माद से टकरा रही थी;
जैसे यौवन नाच उठेगा
तुम्हारी पाकीज़गी से गले लगने को,
प्रेम भी था हममें, आकर्षण भी था,
मेरा होना भी था उस पल में,
तुम्हारी मौजूदगी भी थी;
जाने क्यों शाम की आंख लग गयी,
वो दिन भी ढल गया,
तुम ख़्वाबों वाली रात का आसरा देकर
मेरी मुस्कान समेटे चले गए:
सुनो,
वो रोज जो तुमने दिया था मुझे
उस रोज की तरह
आओ न आज फिर
उम्मीदों की दहलीज़ पर एक दिया जलाने।
ऐसा लगता है मेरा मन
तुम्हे खो रहा है;
सुन रहे हो आओगे न!

तुम हो इस पल!

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एक अजीब सी घुटन हो रही मेरे भीतर
जैसे तुम मेरे शब्दों से बंधकर रह गए हो,
महसूसती हूँ तुम्हें अपने बहुत पास,
हाथ बढ़ाती हूँ तुम्हें छूने को;
तुम मुस्कराते हो,
कहते हो,
'कदम भी तो बढ़ाओ'
और मैं कदम-दर-कदम
सफर तय करती जा रही हूँ।
ये तो वो मुकाम है
जिसे लोग ज़िंदगी कहते हैं;
इसमें तुम कहाँ हो?
मुझे तो तुम्हारा होना
अपनापन लगता है बस,
बाकी सब तिलिस्म की दीवारें हैं
अजनबी आहटें हैं यहाँ,
आओ न एक रोज
कुछ देर ठहरो
बादलों के बिम्ब पर,
मैं अपनी देह की ऊष्मा गलाकर
स्याही बनाना चाहती हूँ,
इस रूहानी मिलन की बेला में
मेरे लरजते होठों को इतना शान्त कर दो
कि भीतर की ऊर्जा का आकाश
कलम की लेखनी सोखकर अमर कर दे
मेरे उन्माद भरे शब्दों को,
कम न पड़ने दो मेरे आवेग को,
मैं जीती रहना चाहती हूँ
स्नेह से पगे इस आकर्षण में,
तुम्हारे होने के इस पल में।

मेरी पहली पुस्तक

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