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टार्चर हो सकने की सहनशक्ति

१• कुछ स्त्रियाँ होती हैं

बसंती सी

नाचती रहती हैं कुत्तों के सामने,


२• कुछ पुरुष होते हैं

गब्बर से

चलाते रहते हैं गोली मनोरंजन के लिए


३• कुछ स्त्रियां गब्बर भी होती हैं


४• कुछ पुरुष मगर बसंती नहीं होते


५• कोई भी पुरुष बसंती नहीं होता


आइये करते हैं चुनाव


पहला सही, दूसरा सही,

पहला और तीसरा सही,

चौथा सही पाँचवा सही;



अश्लीलता फूहड़ता और

हिंसा के दौर में

चुनाव अच्छे या बुरे का नहीं रहा

'टार्चर हो सकने की सहनशक्ति' का है.


तुम केसरिया हो


 •तुम प्रिय

तुम प्रियता

सांसारिक निजता

हिय दृष्टा हो


तुम अंतर्दिष्ट सखा हो


तुम अतीत का

नाम जप

तुम स्नेह का

प्रतीक्षित तप


मैं हूँ सूर तुम दृष्टा हो


तुम फाग

तुम ही फाग राग

अनछुआ रंग

कुसुमित पराग


मैं श्याम कमल तुम केसरिया हो


कविता


•कविता

मन की चारदीवारी से निकला

इमोशनल कंटेंट


•कविता

एक परिभाषा

‘टेम्पोरेरी’ की


•कविता

सरेंडर है प्रेम का


•कविता

लिखवाती है मुझसे

ख़ुद को


•कविता

रुचती है तो

चुभती भी है


 •सबसे अच्छी वह कविता लिखी

जो अब तक लिखी ही नहीं गयी

प्रेम का टाइम कैप्सूल

 



•मेरी कविताएँ

तुम्हारे लिए लिखी गयी

मेरी चिट्ठियाँ हैं

पायी जायेंगी

युगों से कल्पों तक

बनी रहेंगी

मिटती सभ्यताओं में भी

सुरक्षित रहेंगी

बम, मिसाइल से

नहीं पकड़ पायेगा इन्हें

ड्रोन और रडार


लिखती हूँ

हर हिचकी पर एक कविता

मेरी स्याही का रंग

उसी तासीर का है


हमें जोड़े रखने वाला नेटवर्क

एक हिचकी


जाने कौन-कौन

पढ़ रहा होगा

भविष्य में प्रेम अपना

जाने कितनी तीव्रता का

विस्फोट हो

जब आम किया जाये

अपने प्रेम का

टाइम कैप्सूल


बस तुम यूँ ही रहना

मेरे सैटेलाइट में

जब चाहूँ तुम्हें देख सकूँ


राजनीति के रायते से प्रेम के गलियारे तक...

 



राजनीति के रायते से प्रेम के गलियारे तक...

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प्रेमी की पत्नी के नाम

 

कुछ भी नहीं सोचती मैं

तुम्हारे बारे में

न ही लेती हूँ

कोई इल्ज़ाम अपने सर.

न सुन पायी उसके मुँह से

कभी अपना नाम सरे राह

न ही हुई कभी हमबिस्तर

जब-जब तुम्हें लगा

कि तुम झमेलों में हो

मैं शिकन हटाती रही

उस माथे की

जिस पर बोसा

बस तुम्हारा हुआ.

तुम्हारा अधूरा प्रेम बनकर

नहीं मिला कभी वो मुझे,

वरन एक शिशु की तरह

जिसे माँ चाहिए

एक विद्यार्थी बनकर

जो शिक्षा की खोज में हो

उसे बुद्ध बनना है प्रेमी नहीं

वो मुझ तक

पुरुषार्थ लेकर नहीं आया,

अपने अंदर का पुरुष

हर बार

वह छोडकर तुम्हारे पास

आया यहाँ

जैसे नदी का पानी

जाता तो है समंदर तक

पर नदी लेकर नहीं

तुम भीगती हो उसमें

मैं तो बस भागती हूँ

हमारी कहानी में

कोई इच्छा नहीं है

कोई चेष्टा नहीं है

प्रत्याशा भी नहीं

एक संयोग से उपजी हुई

कोई पृष्ठभूमि जैसा

कुछ घटा हमारे मध्य

जैसे मिल जाती है

प्रतीक्षा की पीड़ा

किसी-किसी देहरी को

कैसे बाँध सकती हो तुम मुझे

घृणा के बंधन में

मेरी और तुम्हारी तुलना ही क्या

तुम तो

मेरे प्रणय काव्य के सौंदर्य का प्रत्येक भाग भी

स्वयं पर अनुभव कर रही होगी

और वो मेरे लिए

मेरे सुख के दिनों की कविता

एवं पीड़ा में प्रतीक्षा बन पाया

बस इतना सा आत्मसात किया मैनें उसे

अपने भीतर

फिर भी

वो कमीज पर लगा

कोई लिपिस्टिक का दाग नहीं

जो धोकर गायब कर दूँ,

हर शब्द में भाव बनकर

समाहित हो गया है मुझमें

मैं नहीं माँगने आयी किसी दरवाजे पर

‘आज खाने में क्या बना लूँ'

कहने का अधिकार

तुम भी मत चाहना कि मैं

उस पर उड़ेल दूँ 'विदा का प्यार’


मेरा भविष्य

मेरी देह के आकर्षण पर नहीं

शब्दों की संगत पर है

अश्रुओं का उल्कापात नहीं

पलाश की अनल बरसने दो

उसके लाये हुए हर पारिजात को

तुम्हारे चरणों की रज मिले


नुक्ते भर प्रेम




वह पहाड़ियों की ढलान से
भेड़ें हाँककर आता है
और वह उसे पश्मीना ओढ़ा देती है
वह खाली गिलास की ओर देखता है
वह पानी लिए हाज़िर होती है
वह पाँवों की उँगलियों को भीतर की ओर मोड़ता है
वह देह सहित बिछ जाती है
कब, कहाँ, किसमें, कैसे, कितना है
दोनों ही नहीं जानते
मगर यह इश्क़ में क के नीचे
जो नुक्ते भर इश्क़ है न
वह इन्हीं जैसों की बदौलत है

यह जो पहाड़ है न
कोई किताब हो जैसे
और तुम्हारे शब्द
गोया पहाडियों पर फैली भेड़े

तम्बू से रामलला महल में आयेंगे

 तम्बू से जब उठे लला अपने महल में आयेंगे

आयेंगे जो महल में संग सिया को भी लायेंगे

लायेंगे जो सिया को दुलारे हनुमंत भी आयेंगे

आये हनुमंत तो अयोध्या के भाग खुल जायेंगे



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मिथिला की दुलारी है जनक की प्राण प्यारी

जनक पियारी अब है अयोध्या की उजियारी

रघुनन्दन सनेही के लिए, दीये हम जलायेंगे

जलायेंगे जो दीये तो संग फाग भी मनायेंगे


सह गये सारे ही कष्ट आया समय विशिष्ट

आया समय विशिष्ट, भाग प्रधान लिखे परिशिष्ट

लिखी जो परिशिष्ट करा दो दाखिल ख़ारिज

करो दाखिल ख़ारिज, माने उसे मौलाना, पुजारी, प्रीस्ट


सोचो हर सनातनी के भाग खुल जायेंगे

तम्बू से रामलला महल में आयेंगे


संक्षेप में जीवन

•जन्म क्या है
“ब्राँड न्यू एप का लाँच”

•बचपन क्या है
टिक टाक वीडियो

•बुढ़ापा क्या है
"पुराने एप का नया लोगो”

•कर्म क्या हैं
“ट्रैश”

•मृत्यु क्या है
“ट्रैश का ऑटो डिलीट”

•संसार क्या है
“ईश्वर की लैबोरेटरी”

लेखक: एक योद्धा

एक लेखक
योद्धा होता है विचारों का
उसके रगों में दौड़ती है विद्युत
इतनी ही चपलता से
जैसे कोई अश्व दौड़ रहा हो युद्ध भूमि में
विरोधी सेना को परास्त करने के उद्देश्य से

रण क्षेत्र में विरोधी सेना होती है
एक समूचा, संगठित विपक्ष
जबकि लेखक के युद्ध में
उसे पार पाना होता है अपने ही उन विचारों से
जिन्हें वो स्वयं हाशिये पर रखना चाहता है

एक लेखक नहीं लिख पाता मन की यथावत
क्योंकि वो एक विचारक भी है
और लोगों की अपेक्षा में दृष्टा भी
वो परिष्कृत करता है भावनाओं को
उन्हें विचारो का मूर्त रूप देने के लिए

छिद्रों से बने एक घड़े सा मस्तिष्क
तरल-तरल बहता बहता है समाज में
और ठोस वो स्वयं में रखता जाता है
कभी-कभी इतना भर जाता है लेखक
कि इस नियम को धता बता देता है
'लेखक को अवसाद नहीं होता
लेखक आत्महत्या नहीं करता'

योद्धा भी तो मारा जाता है.

मेरी पहली पुस्तक

http://www.bookbazooka.com/book-store/badalte-rishto-ka-samikaran-by-roli-abhilasha.php