दर्द का हर डंक

दर्द का पर्यायवाची बन गया ये जीवन
और हर पर्याय पर
भिनभिना रही हैं मधुमक्खियां
कि हर आहट पर
डंक मारने को आतुर,
बेतरतीब सी दौड़ती जा रही हैं
हज़ारों गाड़ियां सड़क पर
इनके नीचे कुचला जा रहा है
सीधा-सादा मानव
कोरताल की सड़कों पर
लाली बिखेरता हुआ,
जाने कितने घरों का
सूरज अस्त हो रहा है
क्या फर्क पड़ेगा उन बेवा माओं को
जो हर शाम हथेलियों की थपकी से
बनाती थी तीन रोटियां
खुद डाइटिंग करती थी
अपने बेटे का पेट भरने को,
किसी तरह अपने जिस्म को ढकती थी
अधखुले कपड़ों में
उसे फैशन का नंगा नाच नहीं पता
पर सभ्यता का डंक सालता था हर वक़्त,
कूप-मण्डूक हो गयी हैं वो
सिमट जाती है उनकी उदासी कोठरी में
जहाँ दिन का सूरज तो किसी तरह
छन कर पहुँच जाता है
पर नहीं जलने देता है रात का दिया
दर्द का हर डंक;
हम सब भी मूंद लेते हैं आँखे
थक चुके होते हैं इतना दर्द देखकर
फिर एक दिन
हमारी आत्मा चीखती है
उस बेवा की लाश की सड़ांध पर।

उदासी के नाम चन्द शेर

आज मुझे कोई गुज़रा जमाना नहीं याद,
गुज़र जाए मेरा आज बस यही फरियाद

हद से गुज़र जाए गर दर्द, तसल्ली कहाँ
सायबां न कोई, दर्द ही बन गयी है दुआ

उदासी से भर जाती है उसके पाजेब की रुनझुन,
गर देखा कोई शहीद-ए-वतन तोपों की सलामी पे।

सर्द रातें हैं, चाँद की आँखों में नमी है
तेरे याद की शाम ढल चुकी है कहीं।

अख़बार श्वेत-श्याम की नुमाइंदगी भर है
खूनी हर खबर है पन्नों के बीच लिपटी।

मैं लखनऊ हूँ...

हर अदा में हमारी, इस शहर का मिजाज़ है,
हर सल्तनत के सर पे सादगी का हिजाब है,
नफ़ासत के साथ यहाँ मौशिकी भी रहती है,
तहज़ीब से तराशा ये लखनऊ लाजवाब है।
















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कोई जवाब हो तो बताओ

उनके हवाले कर दिया हमने तुमको
जो हमसे ज़्यादा अजीज़ थे
शिकायतें अब तो और भी बढ़ गयीं
ये हक़ है तुम्हारा या मेरे चाहने की शिद्दत?

Teen sher

बड़ी बेतरतीब सी है ये किताब ज़िन्दगी की
चलो हर एक पन्ने से सिलवटें हटा दी जाएं।

सोते हैं तो आँखों में मख़मली ख्वाब लेकर,
हर सुबह की नवाज़िश है काँटों का गुलाब

काश कि तुम भी पलटते इक बार मेरी जानिब,
इक शबीह* के दीदार में यूँ मैं शज़र* तो न होता

शबीह-तस्वीर
शज़र-वृक्ष

कहीं भी रहूँ मैं

मैं
तिनके-तिनके से बने
घर में रहूँ,
या
गुम्बदनुमा महलों में
संवर के रहूँ,
हे प्रभु!
इस तरह तराशना मेरे मन को
सिमट जाऊँ दर्द में
खुशी में बिखर के रहूँ,
चलूँ मैं जिधर
रास्ते नेक हों
हाथ काँटों का थामूं
पग में चुभते अनेक हों,
औरों की राह में
फूल ही मैं बनूँ
भले खुद
मैं गम के सहर में रहूँ।

जहाँ बस प्रेम होता है...

वहाँ न तो दिन होता है
न रात होती है,
न जश्न होता है
न बारात होती है..
प्रेम की गोदावरी
जहाँ बहती रहती है;
हथेलियों में रेखाएं नहीं होती
न ही पाँवों में निशान
होंठ भी कब हिलते हैं
अपनी जगह से,
आँखे लम्हे बुनती रहती हैं
और साँसें
बस सदियां चलती जाती है,
तन निःश्वास हो जाए
फिर भी
मन, प्रेम की उजास में
प्राणवान रहता है।

सुख की मरीचिका

इश्क़ की भंवर के उस पार
सुख की मरीचिका तक जो पहुँचे
खुशी छलकी आँखों से
न ग़म में रोये,
कस्तूरी भी संग थी
मृग भी था
पर तलाश वहीं की वहीं है
ज़िन्दगी जहाँ थी
वहीं अब भी थमी है।

प्रेम: कल्पनीय अमरबेल.... द्वितीय अंक

गतांक से आगे



दिन भर की उहा पोह से थकी मैं ए सी के सामने बैठकर माथे को दुपट्टे से पोंछ रही थी जबकि वहाँ पसीना तो दूर की बात थकान की एक बूंद तक न थी। थकान हो भी तो किस बात की शारीरिक श्रम से मेरा दूर तक कोई नाता न रहा हाँ दिमाग़ अकेला, नन्ही सी जान बेचारा दस जनों के बराबर सोच डालता था। मैं आदी हो चुकी थी। यही तो वो रिफ्लेक्शन था कि थकान का पसीना पोंछने को हाथ अनायास ही उठ गया था। 
"उफ्फ, हद करती हो तुम भी यहाँ जमी हो और मैं ढूंढ रहा था।"
"ह्म्म्म....."
"मैं कुछ कह रहा हूँ और तुम खयालों में गुम हो।"
"फिर भी सुन तो रही हूँ न, अच्छा ये बताओ तुमने मुझे कहाँ-कहाँ ढूंढा... किचन, लॉबी, कमरा, टेरिस, घर, बाहर....मग़र जहाँ मैं हर वक़्त हूँ बस तुम्हारे लिए वहाँ...?"
"अब इमोशनल मत हो जाना, मुझे चिढ़ है रोने से..."
"हम्म, पता है।"
"मैं तुम्हें पाना चाहता हूँ, जान।"
"मैं तुम्हें पाती रहना चाहती हूँ, ज़िन्दगी।"
"याद नहीं अपने प्रेम का करार, दिन कैसे भी हों अपने पर रातें हमारी होंगी। हम इन रातों में पूरा जीवन जियेंगे। तुम्हारे हिस्से का दर्द मैं अपने प्यार से चौथाई कर दूँगा। अगर हाँ बोलो तो पूरा खत्म अभी..."
"हाँ तो कर दो न!"
"जादू है तुम्हारी आँखों में..." मैं खिल उठी थी इनकी बाहों में। इसी पल के लिए तो जीती हूँ मैं अनवरत लम्हों से संघर्ष करके। स्नेह की तपिश में मेरा दर्द जार-जार पिघल रहा था। हर आलिंगन जाने क्यों नया, ताजा सा लगता है। खिल उठती हूँ अंतर तक वो आवाज सुनकर।


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कहानी आगे भी जारी रहेगी।

फिदा हैं जिस पर हम शाम-ओ-सहर..वो अदा हो तुम

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हम
इतना आसां न था
ये सफ़र तय करना
तेरे बग़ैर ये जीवन 
और उसपर गुमां करना,
तू मेरी एक अधूरी सी तलाश सही
जान लेता है
अधूरापन ये बयां करना


तुम
मेरा तो एक ठिकाना
तेरी नज़र की पाकीज़गी,
चाहे कहीं भी रहे तू
कब की ठहरी है यहीं
जिस्म हर रोज़ फना होता
तू तो है रूह-ए-ज़मीं
एक नज़र देख इधर तो
मेरी साँसें हैं थमीं


हम
मुतमईन है तुझसे हर पल
मुझको हर खबर है तेरी
अब तो थकता है जिस्म भी
रूह कब की है तेरी
मेरे हर पल की एक प्यास है तू
आँखों से दिल तक, तलाश है तू


तुम
मैं भी थकता रहा
जीवन के रेगिस्तानों में
नंगे पाँव चलकर,
मेरा दर्द इन कदमों में न ढूंढ
दिल के छालों में समझ
कैसे दूर हूँ तुझसे
इन अधूरे खयालों में समझ


हम
तुझको गर दर्द है, मैं उसको
चीर के रख दूँ
इस कमज़र्फ जमाने को
तेरे कदमों में बिछा दूँ
तुझपे हर चीज खुशी की
न्योछावर कर दूँ
चाँद-तारे मैं गगन के
तेरे सदके में उतारूँ


तुम
न कर इतना प्यार मुझको
कि तेरा गुनहगार हो जाऊँ
मैं जियूँ इस तरह
कि ज़िंदगी से बेज़ार हो जाऊँ
तेरा मसीहा बनने के काबिल नहीं
अर्श पे मत यूँ रख मुझको
तेरी इबादत का तलबगार हो जाऊँ



Image result for kissing scene of rekha and amitabh
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हम
तू क्या है, ये तो बस मेरा ख़ुदा जाने
इक लम्हा भी नागवार हो
गर तुझसे अलग कोई दुनिया माने
न बोल कुछ भी
बस इन होठों पे इनायत कर दे
मुझे सीने से लगा ले
साँसों को मेहरबां कर दे
तेरे मख़मली लफ़्ज़ों की
मेरे जिस्म में हरारत हो जाए
बस इस दम तू ठहर जा
रूह की जिस्म से बगावत हो जाए
तेरी बाहों में रहूँ मैं
मेरी साँस मुझमें सो जाए
मुझे सीने से लगाना तो इस कदर
कि हवाओं की गुंजाइश न हो
हो मेरी मौत तेरे दामन में
कि मेरे दर्द की नुमाइश न हो
मेरे जनाज़े पे
तेरे पाँवो की धूल विदा करना
अपनी पलकों से छूकर 
मेरी माँग सजा देना
अपनी यादों के रंग
कफ़न पे सजा देना
जब थक जाए मेरी रूह तुझे देखकर
मेरी मैय्यत उठा देना
लूँ हज़ार जनम
तेरा साथ हो गर
वरना इन ख्वाहिशों को मेरे संग सुला देना

मेरी पहली पुस्तक

http://www.bookbazooka.com/book-store/badalte-rishto-ka-samikaran-by-roli-abhilasha.php