मैंने जिस गछ के गले लगकर
अपना दर्द कहा
बहुत रोया वो भी
उस पर आरी चली, ये बहाना बना
एक रोज उस काष्ठ की आँखें बहीं
तंतुओं को दबाया गया तब पता ये चला.
वो सिसकने लगा, मैं सहती रही
उसकी देह पर दर्द की नक्काशी उभरी
तराशे हुए सफ़हे पर बून्द-बून्द स्याही में
मुझे तुम्हारी झलक मिली
कभी लग नहीं पायी थी
तुम्हारे गले खुलकर
आज हरफ़-दर-हरफ़
ख़ुद मैं तुममें मिली.
आज फिर मुझे आती रही सिसकी
आज फिर टहलती रही नंगे पाँव मन पर
तुम्हारे नाम की हिचकी.
प्रेम की गहन अनुभूतियों से सजी रचना प्रिय अभिलाषा जी | जीवन में जब कोई किसी व्यक्ति विशेष का प्रतीक बन आता है उसका महत्व उतना ही हो जाता है | अपनी तरह की आप रचना | हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं|
जवाब देंहटाएंहृदयतल से आभार रेणु जी आपका! 🙏
हटाएंबहुत आभार मीना जी! 🙏
जवाब देंहटाएंमर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति है यह, निस्संदेह! ऐसी जो आंखें नम कर दे।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंबेहद हृदयस्पर्शी अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत सुन्दर
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