रेत रेत लिख दिया
देह खेत लिख दिया
उँगलियाँ कलम हुईं
श्याम श्वेत लिख दिया
तार तार मन को जब
प्यार प्यार लिख दिया
दिल के ज़ख़्म में भी
तूने शहरयार लिख दिया
धानी, लहू को करके
दिन का उतार लिख दिया
इतना दिया प्यार तुमने
के कर्जदार लिख दिया
To explore the words.... I am a simple but unique imaginative person cum personality. Love to talk to others who need me. No synonym for life and love are available in my dictionary. I try to feel the breath of nature at the very own moment when alive. Death is unavailable in this universe because we grave only body not our soul. It is eternal. abhi.abhilasha86@gmail.com... You may reach to me anytime.
रेत रेत लिख दिया
देह खेत लिख दिया
उँगलियाँ कलम हुईं
श्याम श्वेत लिख दिया
तार तार मन को जब
प्यार प्यार लिख दिया
दिल के ज़ख़्म में भी
तूने शहरयार लिख दिया
धानी, लहू को करके
दिन का उतार लिख दिया
इतना दिया प्यार तुमने
के कर्जदार लिख दिया
कुम्हार चाक पर कच्ची मिट्टी को हाथों की थाप से गढ़ा करता था. उसके बनाये हुए घड़े लोगों में इतने पसंद किए जाते थे कि बिना वजह ही लोग लेते थे. कुछ लोग तो बस देखने ही आते थे. उनकी सबसे बड़ी विशेषता एक ओर झुका होकर भी संतुलन बनाये रखना था. कुम्हार के अंदर न तो गर्व था न ही पैसों का लालच. एक दिन एक गायक उधर से गुजरा उसे भी ये कला पसंद आयी. वो वहीं बैठकर रियाज़ करने लगा.
एक दिन उसने कुम्हार के मन में ये बात डाल दी कि उसके गीतों से ही घड़ों ने संतुलन बनाना सीखा. कुम्हार मुग्ध था गायक पर उसकी बात मानता चला गया. फिर गायक बोला कि सभी के घड़े तो टेढ़े नहीं होते फिर तुम्हारे ही क्यों? कुम्हार को अपनी खासियत ही कमी लगने लगी...गायक को सुनकर उसकी चाक पर हाथों की थाप धीरे धीरे सीधी पड़ने लगी. गायक की रुचि घड़ों में कम हुई वो चला गया और एक दिन सब की रुचि भी...अब कुम्हार घड़े नहीं बनाता गीत गाता है.
चिड़िया पेड़ के प्रेम में इतनी मशगूल थी कि अपने पंख भूलती रही. पेड़ उसे सर्दी, गर्मी, बारिश से बचाता. अपने पत्तों की छाँव में आसरा देता. उसकी कोपलें चिड़िया को दुलारतीं. बहुत ख़ुश हुई चिड़िया और पेड़ को भी अच्छा लगा क्योंकि अब तक उसके पास सब अपने लिए आते थे मगर पहली बार चिड़िया पेड़ के लिए थी वहाँ. वो भी बहुत सारे प्यार के साथ. दोनों के प्रेम की चर्चा होने लगी. भौंरा, तितली, हवा, पर्वत सब दोनों को अलग करने की युक्ति सोचते. अब पेड़ को भी लगने लगा ये सही नहीं. चिड़िया पेड़ से और ज़्यादा प्रेम करने लगी. एक दिन एक चिड़ा ने पेड़ से मित्रता कर ली. पेड़ ने चिड़िया का भविष्य उस चिड़े के साथ सोच लिया. आकंठ पेड़ के प्रेम में डूबी चिड़िया और प्रेम करने लगी. पेड़ को उदासीन देख उसका प्रेम वेदना में बदल गया. सारे पंख झड़ गए. प्रेम की पुजारिन चिड़िया ने पेड़ की बात मानने की हामी भर दी. चिड़े के साथ पहली उड़ान भरे इससे पहले ही वो जमीन में आ गिरी. उसे पेड़ की आगोश में ज़मींदोज़ कर दिया गया.
आज तक वो पेड़ ख़ामोश खड़ा है. उसकी आवाज़ चिड़िया की मृत देह
मैंने इमरोज़ नहीं चाहा
न ही उसकी पीठ
तुम्हारा नाम उकेरने को,
तुम साहिर भी मत बनना
शायद ही कभी मैं
चूल्हे पर चढ़ा सकूँ
तुम्हारे नाम की चाय
बस यूँ ही बने रहना
मेरी सुबह, मेरी शाम और रात
मेरी आत्मा के साथी.
आज जैसे ही शादी के लिए हाँ बोला मैंने, सभी के चेहरे अचानक खिल उठे. तुम्हारा भी फ़ोन आ गया. बंद थी जो बात इतने दिन से कैसे शुरु कर पाऊँ दोबारा. मन में कुछ नहीं है अब. तुम लोगों ने जो निर्णय लिया और जिस तरह से मेरी स्वीकृति की मुहर लगवायी... मैंने अपनी नियति मान लिया इसे.
आने वाले सोमवार इंगेजमेंट की रस्म है और हर वक़्त की तरह मेरे मुँह से निकल गया, "जो पसन्द हो बनवा लेना. मुझे तो पहनना ही है बस." तुम सब मुझे शायद आख़री बार 'पागल लड़की' कहकर हँस रहे होगे क्योंकि रस्म की पहली पोशाक पहनने से पहले मुझे अपना मन उतार कर रखना होगा कहीं और...किसी के पास. मुझे ख़ुद पर दुनियादारी का लिबास डालना है.
जब मख़मल सी सुर्खियाँ
अम्ल के पार होती हैं
जब चाहत कलम में
तार तार होती है...
जब सरगोशियाँ न हों हवा में
और दिन पलट जाये
जब लफ़्ज़ का वरक़ पर
मरासिम ठहर जाये
जब तू न हो और मेरा वक़्त
बस तेरे साथ गुज़रे
जब तेरी आँखों में सब पढ़ें
मेरी ग़ज़ल के मिसरे
तब तो कहने देना तुम्हीं मेरे गुलज़ार हो
मेरी ज़िंदगी के चारों दिनों का एतबार हो!
उँगली पर गिनने भर को ही दिन हुए थे शादी को हमारी. मेरा जीवन उसकी ख़ुश्बू से महकता इससे पहले ही मेरे जीवन की सुहागरात हो गयी थी. एक-दूसरे को स्पर्श करना तो दूर हमने आँख भी नहीं मिलायी. सात फेरों के साथ उसे अपना बनाकर लाया था. मेरा ध्येय उसकी देह नहीं था. अपनी भावनाएँ मार चुका था. अब कर्तव्य की बारी थी.
बहुत हिम्मत जुटाई मैंने उसकी तरफ श्वेत ग़ुलाब बढ़ाया ये कहकर कि इसमें जो चाहे रंग भर ले.
उसने साड़ी का पल्लू आगे बढ़ाया, "इसे श्वेत ही रहने देते हैं."
स्थिति स्पष्ट हो चुकी थी. मेरे चेहरे पर पसरी थकान ने देह को निढ़ाल कर दिया. रात लगभग दो बजे नींद खुली तो बिस्तर का वो स्थान रिक्त मिला. कमरे का पूरा सामान अपनी जगह था बस वो श्वेत ग़ुलाब छोड़कर.
मुझे चंद रात दीं पर उसी चाँद रात वो उठकर चली गयी थी.
तीन महीने की अनुभूति और तीन रातों की देखा-देखी बस जब संग इतना सा ही था तो मन शीघ्र ही उचाट होने लगा. घर पर भी मैं कम समय रुकने लगा. दीदी बात-बात पर परेशान हो उठती. पापा मुझसे कुछ नहीं कह पाते तो मेरे हिस्से का भी वो ही सुनती. सौभाग्या के साथ शेष समय बीतता रहता. कभी टी वी तो कभी उसकी तोतले स्वर में कहानियाँ बस यही चलता. खाने की मेज पर पसरा सन्नाटा और अधिक है अब. आँखों में पनपी अपेक्षा ने इसे बढ़ाने का काम किया. पहले से ही मैं कोई बहुत अधिक उत्सुक नहीं रहा विवाह को लेकर. काम के स्थान से लेकर मित्रों तक यही शिकायत रही कि सब कुछ अकेले ही कर लिया. वो तो अच्छा हुआ कि सब कुछ अकेले ही हुआ. अनुमेहा कहानी बनने से बच गयी.
खाने के बाद सौभाग्या से कुछ वार्तालाप और सोने की बारी. सौभाग्या रोज की तरह अपनी मामी का सामान देखने लगी. कितने मन से पापा ने हर उस सामान से कमरा भर दिया था जिसकी आवश्यकता अनुमेहा को होती. उसके पापा को स्पष्ट बोल दिया था कि वो अपनी बेटी को बस उन कपड़ों में विदा करें जिन्हें पहनकर वो हमारे घर में अपने शुभ क़दम रखेगी. आज भी सौभाग्या मुझसे कह कर सोने गयी कि सुबह होते ही मैं उसकी मामी को लेकर आऊँ.
एक अनचीन्हा सा स्पर्श मेरे पास क्यों रहता है अब तक. तीन महीने हो गये. न तो कोई उसका कोई साथ न ही मुड़कर आने की सूरत. पापाओं की वार्तालाप भी इस बात पर आकर समाप्त हो गयी कि ईश्वर ऐसी बेटी किसी को न दे.
मैं स्मृतियों में था तभी व्हाट्सएप संदेश की बीप हुई. रात १० बजे कौन ही याद करता तो कौतूहल वश उठाकर देखा. अपरिचित नम्बर से आये 'हेलो' का उत्तर दिया तो उधर से पुनः सन्देश आया…*कल समय हो तो हम मिलते हैं.
मेरी आँखों में विस्मय तैर गया. मेरे 'न' कहने पर उधर से कई संदेशे एक साथ आये पर कोई गुत्थी न सुलझी तो मैंने फोन बंद कर किनारे रख दिया. सुबह देखा तो अंतिम संदेश…*तुम्हारा दिया हुआ उपहार 'श्वेत ग़ुलाब' तुम्हें लौटाना है. नीचे पता लिखा था.
बहुत कुछ याद आ गया मुझे. जैसे समय आगे बढ़ने ही नहीं दे रहा झकझोर देता है और मैं चुपचाप समर्पण कर देता हूँ. सर्दियों की कड़कती हवा मेरे आसपास दर्द का मफ़लर… बस यही रह गया जीवन. अनमना सा मैं मिलने चला गया. शिफॉन की ग़ुलाबी खुले पल्लू में साड़ी के अंदर जैसे दूध और हल्दी मिश्रित कोई प्रतिमा रख दी गयी हो. अनु...मेह...मेरे स्वर को वाक तंतु ने उच्चारित होने के पहले ही अंदर खींच लिया. चेहरे पर भाव नदारद थे और शृंगार भी. माथे पर कुमकुम की बिंदी. अधर तो स्वयं ही लाल इनको लाली की जरुरत कहाँ! गर्दन की लंबाई की परिधि में लटकता हुआ मंगलसूत्र नाम का धागा अब भी है. साहस जुटाकर पैर भी देख लिए. तसल्ली की कुछ बूँदें मन को तर कर गयीं कि दोनों पैरों की उँगलियों में बिछिया भी. उसकी चंचल सी आँखें यहाँ-वहाँ जाने क्या देख रही थीं, एक बार तो मेरी आँखों में देखते ही हट गयीं. झुकी तो नहीं पर कहीं और ही घूमती रहीं.
हाय-हेलो की औपचारिक सी अनौपचारिक बात हुई. मेरे पास बोलने को कुछ नहीं था.
"जानते हो मैंने सोचा था जब हम मिलेंगे तो कोई और बात नहीं करेंगे." उसने चुप्पी तोड़ी.
"जब नहीं मिले तब भी कोई बात हुई क्या हमारे बीच?" मेरे इतना कहते ही वो चुप हो गयी.
"हमारे बीच कोई और बात न होने का कोई मतलब भी है." जाने क्यों वो घुमाना चाह रही थी.
"कोई बात होती तो क्या कोई फ़र्क पड़ने वाला था?" मैंने पूछ ही लिया.
"तुम ऐसा क्यों सोचते हो?"
"बिकॉज़ यू नो इट वुडन्ट हेल्प." मैं बाहर आकाश में छितरे बादलों को देखने लगा. शीशे की खिड़की से बाहर दिख रहे बादलों का रंग और मेरे सामने बैठी औरत का रंग मुझे एक समान लग रहा था. समझ नहीं पा रहा हूँ नीला कहूँ या स्याह. होटल पैराडाइज इन जितना अपनी भीतरी साज-सज्जा के लिए प्रसिद्ध है उतना ही बाहर दिखते मनोरम दृश्य के लिए भी. मुझे घुटन सी हो रही है. उसकी बात का कोई उत्तर नहीं दे पाया.
"क्या हमें अपना जीवन अपने हिसाब से जीने का अधिकार नहीं मिलना चाहिए?" उसने पुनः मौन तरंगों पर प्रहार किया.
"हाँ हाँ क्यों नहीं!" मैं तो जैसे इसी बात की प्रतीक्षा कर रहा था.
"तुमने मुझसे नहीं पूछा तो मैं ही बता देती हूँ."
"क्या?"
"यही कि मैं किसी से प्रेम करती हूँ." ठंडी हवा का झोंका मेरे कानों को चीरता हुआ निकल गया. क्या यही बकवास करने के लिए मुझे बुलाया था! अपने मन से ही पूछ बैठा मैं.
"अब अगर किसी और से प्रेम करती हो और अपने वैवाहिक जीवन को प्रयोग की वेदी पर रख ही चुकी हो तो चली क्यों नहीं जाती उसके पास? क्या लेने आयी हो मेरे पास? क्यों बुलाया मुझे? क्या यही सब सुनाने के लिए? बोलो...है कोई उत्तर तुम्हारे पास?" मेरा स्वर तीब्र और तेज भी हो गया था. गुस्से से मेरा चेहरा तमतमा गया. ये सच है कि उसकी ओर से ऐसा ही कुछ प्रत्याशित था परंतु सच को इस तरह सुनकर मैं स्वयं को सम्हाल नहीं पाया. मेरे कहने के दो मिनट बाद भी जब कोई उत्तर नहीं मिला तो मैंने उसके चेहरे की ओर देखा.
यह क्या! उसके चेहरे पर तो सादगी पसरी है जैसे मेरी बात का कोई प्रभाव ही नहीं. मेरे पीछे के खुले आसमान को देखकर पढ़ने का प्रयास करती सी लग रही थीं उसकी आँखें. मेरी आँखों के लगभग २० डिग्री के अंतर पर होने के कारण मैं अब अच्छे से उसका चेहरा देख पाया. आँखों के नीचे गहरे काले घेरे उभरे हुए, उसने इन पर शृंगार की कोई परत भी नहीं चढ़ायी है. एक बार मेरा मन बोला भी कि प्रेम करने वालों का तो ये चेहरा नहीं होता पर मैं गलत भी हो सकता था इस बात से सहानुभूति की एक लहर दौड़ गयी मेरे अंदर. उसका नितांत मौन हो जाना अखर गया. मैं पुनः बोल पड़ा.
"कुछ और या कहानी ख़त्म?"
"कैसे ख़त्म हो जाने दूँ अपने प्रेम की कहानी?"
"तो जाओ न उसी के पास. क्यों आयी हो यहाँ?"
"इसके लिए मुझे तुम्हारी मदद चाहिए होगी."
"कैसी मदद?"
"मैं जिसके साथ प्रेम संबंध में हूँ वो शादीशुदा है."
"अच्छा...और तुम यहाँ मेरी मदद माँगने आयी हो? क्या समझा है तुमने मुझे...तुम्हें क्या लगता है मैं एक साथ इतनी ज़िन्दगी ख़राब करुँगा?"
"तुम मुझे ग़लत समझ रहे. हम लोग बहुत दिनों से प्रेम में हैं. ऐसे कैसे छोड़ दूँ?"
"फिर तुमने मुझसे शादी क्यों की?"
"मेरे पास कोई रास्ता नहीं था. मुझे पता था कि मैं तुम्हें मना लूँगी पर…"
"पर क्या?...बोलो? और ये बातें तो तुम घर छोड़े बग़ैर भी कह सकती थीं."
"जब उसने ख़ुद शादी की तो उसे मेरी इतनी याद नहीं आयी जितनी मेरी शादी होने के बाद आयी. शायद मेरा तुम्हारी बाहों में सोना उसे अखर जाता तभी उसने मेरी शादी की रात ही मुझे अपने प्यार का वास्ता देकर समझाया और मैं ख़ुद को रोक नहीं पायी." उसकी बात सुनकर मेरे पैरों के तलवों में सुइयां सी चुभने लगीं जैसे किसी ने दोनों पाँव बाँध दिए हैं. ठण्ड कानों को सुन्न कर चुकी है. अपनी कुर्सी से उठकर किसी तरह शीशे तक गया. छूकर देखा सब कुछ ठीक है.
"तुम्हें शारीरिक रुप से कुछ नहीं हुआ है. तुम स्वस्थ हो. जब हम कोई अप्रत्याशित बात सुन लेते हैं तो सभी के साथ ऐसा ही होता है. कुछ बातों के प्रति हमारा मस्तिष्क अधिक उद्दीप्त होता है." ज्ञान की प्रयोगशाला बोलती हुई मेरे पीछे आ गयी.
'ये जिसे शॉक समझ रही ये तो एक तरह से शॉक थेरेपी है मेरे लिए पर इसे क्या पता' मैं अपने आप से बड़बड़ाया. उसकी बातों का मेरे पास न तो कोई उत्तर था न ही समाधान. मैं बाय कहकर तेजी से दरवाज़े तक आया.
"इस श्वेत ग़ुलाब का क्या करुँ मैं?" उसकी आवाज़ पर पीछे मुड़ा.
"काले रंग से रंग लेना." सहसा ही मेरे मुँह से निकल पड़ा. दस मिनट पहले का चेहरा अपनी आभा खोता दिखा. पहली बार आँखें मिलीं. बहुत से प्रश्न-उत्तर थे दोनों के बीच. मन में आया एक बार उसे अपनी अनु कहकर पुकारुँ. पूछूँ कि इस तरह किसी के पीछे लगकर अपना जीवन क्यों मिटा रही. जिसे छोड़ना था वो छोड़ गया पर मैं हिम्मत न जुटा पाया.
"पूछोगे नहीं कुछ?" शायद उसने मन की सुन ली.
"...न...नहीं." अपनी मुट्ठियाँ भींचते हुए मैंने सधा सा उत्तर दिया. सामने ग़ुलाबी सूत में लिपटी 'स्त्री' कोई और नहीं मेरी अर्धांगिनी है. बहुत सी भावनाएँ मचल उठी. भागकर उसे सीने से लगा लेने का मन हुआ पर अहम ने रोक लिया. आज पहली बार मेरे हृदय में रिश्ते की आग भड़की थी. उसने अपना बायाँ हाथ आगे किया और मैंने दाहिने हाथ से उसे थामकर गले से लगा लिया. आज पहली बार पब्लिक प्लेस में मैंने किसी स्त्री का चुम्बन लिया. मेरे मन की दृढ़ता साक्ष्य है इस बात की कि परिणय प्रकृति का सर्वोत्तम उपहार है.
सहसा ही एक झिझक ने आ घेरा मुझे. ये तो वही है जिसने मुझे धोखा दिया. मैं ऐसा कैसे कर सकती है.
"व्हाट हैपेंड?" मेरे अलग होती ही वो बोली.
"हमारे बीच कुछ हो भी सकता है क्या?" मैं बड़बड़ाया.
"वो हो चुका जो होना था. अब तुम उस फीलिंग से इनकार नहीं कर सकते जो हमारे बीच अभी पनपी." मैं कौतूहल से उसका चेहरा देखने लगा. सच का दृढ़ भाव दिखा वहाँ. वो सच जो मैं न बोल पाता और शायद डिज़र्व भी नहीं करता.
"मैं यहाँ एक पल भी नहीं रुक सकता. बहुत घुटन हो रही है."
"चलो कहीं खुले में चलते हैं."
चहलकदमी करते हुए हम बाहर निकल आये. दोनों ही शाँत हैं सम्भवतः पानी में जो पत्थर कुछ देर पहले उछला था वो नीचे बैठते ही पानी को स्थिर कर गया. चलते-चलते कई बार अनु मेरे बहुत पास आ जाती और उसकी साड़ी लहराती हुई मुझे छू जाती. मैं बिना किसी झिझक कदमताल कर रहा. कुछ दूरी पर एक नेवला देखते ही वो डर गई. उसने मेरी कुहनी के भीतर से अपनी कुहनी का घेरा बना लिया. मुझे समझ में नहीं आ रहा कि मैं इतना सहज कैसे हो सकता हूँ.
"मुझे पीला रंग बहुत पसंद है और तुम्हें?" उसने मेरी तरफ प्रश्न उछाला. मैं समझ गया अब ग़ुलाब अपनी रंगत बदलने वाला है.
"जो तुम्हें पसंद." वो खिलखिलाकर हँसी. मेरा रोम-रोम पुलकित हो गया कि आज मैं कितने दिनों के बाद किसी के मुस्कुराने का कारण बना हूँ. अगले ही पल सीने में कुछ कचोटता सा लगा.
"कुछ देर बैठते हैं." वो बेंच देखते हुए बोली.
"तो क्या आज ऑफिस न जाऊँ?" मैंने घड़ी पर नज़र डाली.
"अब कैसे जाओगे?" उसके प्रश्न को ही मैं उत्तर मान बैठा. बेंच पर वो मेरे पास ही बैठ गयी. मैंने सिर टिकाकर आँखों को बंद कर लिया. उसके और मेरे बीच हवा आने भर का फासला है पर उसके अहसासों से एक छुअन मिल रही है. आज वो साथ है तो अच्छा लग रहा...क्या मुझे पत्नी का ही सामीप्य चाहिए? अपने आप से ही कई प्रश्न कर रहा है मन. अपने माथे पर किसी स्पर्श के अनुभव के साथ आँख खोल दी तो देखा वो अपने रुमाल से कुछ साफ कर रही.
"देखो न चिड़िया की बीट…"
"और तुमने अपना रुमाल ख़राब कर दिया."
"तो क्या उसके लिए कोई दूसरी लाओगे?"
"दूसरा गंतव्य तो तुमने देखा है."
"हम्म…"
"अनु...तुमने क्या सोचा?"
"यही कि जब तुम भी मेरा साथ नहीं दोगे तो मैं ही उस पर प्रेशर करुँगी कि डाइवोर्स देकर मुझे अपना ले."
"तुम्हें क्या लगता ये सब इतना आसान है? वो मान जायेगा तुम्हारी बात? उसकी शादी हो गयी. वो अपनी लाइफ में सेट हो गया. किसी के चले जाने से एक समय के बाद वो स्पेस ऑटोफिल हो जाता है और वो अपना एनवायरनमेंट ओक्यूपाई कर लेता है....और ख़ुद ही सोचो जब वो प्लेस फिल हो गया तो एडजस्टमेंट करना पड़ेगा. क्या प्रेम में ये पॉसिबल है?"
"शायद तुम सही हो!" अनु ने गहरी साँस छोड़ते हुए कहा. मैंने अपनी बात जारी रखी.
"अनु प्रेम में प्रेम किया जा सकता है. किसी के आने और चले जाने के बाद भी पर प्रेम में वापसी की सूरत को बस समझौता कहते हैं. क्या किसी रिश्ते की बुनियाद समझौता हो सकती है?"
"हम्म!" अनु अब भी शांत है.
"मान लो उसने तुम्हें न अपनाया या अपनाए जाने के बाद तुम्हारे बीच वो प्यार न रहा…?"
मेरा मन जाने क्यों उद्विग्न होकर बहा जा रहा. मैं अनु को गुमराह तो नहीं कर रहा? कहीं मैं उससे प्यार तो नहीं करने लगा? लेकिन एक्स्ट्रा मैरिटल अफेयर से रोकना ग़लत भी तो नहीं. मैं उधेड़बुन में था.
"सुनो, अगर यही सब बातें मैं तुमसे कहूँ? तो क्या तुम उसे भूल जाओगे? क्या हम एक नया जीवन शुरु कर सकेंगे?"अनु ने मेरे पैरों के नीचे ठीक सामने बैठकर मेरी आँखों में आँखें डालते हुए कहा.
"ये क्या कह रही हो तुम?" मैं आवेश में बोल पड़ा.
"वही जो तुम सुन रहे हो."
"लेकिन मैंने कब कहा कि मेरे साथ ऐसा कुछ है?"
"उस रात जैसे ही मैं कमरे में पहुँची थी तुम्हारी एक्स का व्हाट्स एप मेसेज आ गया. मेसेज पढते ही मेरे होश उड़ गए. सारे सपने एक साथ ख़त्म दिखे. मैंने चेक किया तो पाया कि तुमने अपना फोन 24 घण्टे पहले ही फॉर्मेट किया था. यहाँ तक कि व्हाट्स एप एकाउंट डिलीट भी किया था. उस मेसेज के सहारे मैं ब्लू डायरी तक पहुँची जिसके हर पेज पर खून से कुछ न कुछ लिखा था. बहुत बड़े सदमे की रात थी वो मेरे लिए." मैं अपराधी की तरह अनु की बात सुन रहा था तभी ख़याल आया.
"तुम्हें मेरे मोबाइल का पासवर्ड कैसे पता चला?"
"सौभाग्या उसमें गेम खेल रही थी वो पहले से ही फ्री था. ये सब देखकर मुझे तुमसे नफ़रत हो गयी कि मेरा क्या क़ुसूर था? मुझसे शादी ही क्यों की? तुम्हें किसी के साथ शेयर कैसे कर सकती थी?"
"ओह्ह शिट."
"वो अतीत है तुम्हारा. अब तुम्हें सब कुछ भूलना होगा. वो सब बातें याद करो जो मुझसे कहीं हैं अभी."
"अनु...मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा. मैं क्या करुँ, कहाँ जाऊँ?"
"क्या अब भी तुम्हें ये सोचना शेष रह गया? क्या मैं बस इसलिए त्याग करुँ कि स्त्री हूँ और तुम पुरुष हो तो कुछ भी करने के लिए स्वतंत्र हो?"
"शायद तुम सही हो."
"शायद नहीं सौ फीसदी."
"ये बताओ जब तुम मुझसे इतनी नाराज़ थीं तो यहाँ तक कैसे पहुँची?"
"मुझे पिछले हफ्ते दीदी ने फ़ोन किया. उन्होंने बस इतना ही कहा कि मैं उनका अतीत जानती ही हूँ अब अगर भाई के साथ कुछ बुरा हुआ तो…"
"ह्म्म्म… बहुत बुरा हुआ उसके साथ. सौभाग्या एक साल की भी नहीं थी जब जीजाजी चल बसे."
"वो तुम्हें इस तरह नहीं देख सकतीं"
"और तुम?"
"मैं भी." बेंच से उठकर हम रास्ते पर आ गए. शायद यही मेरी भटक को मिला सही रास्ता है. उस रात अगर वो अँधेरे में उठकर न जाती तो मेरे जीवन में उजाला कभी न आ पाता.
"आज हमारे प्रेम को लाल गुलाब मिल गया." इतना कहते ही उसने मुझे कसकर छाती से भींच लिया. उसकी गर्म साँसें मेरे हर ज़ख़्म पर मरहम सी लग रही हैं.
ब्रह्मा का वास है
तुम्हारी कलाई में
मुट्ठी में शिव
और उँगलियों में चतुरानन
चारों दिशाओं में घूमती कलाई
बस एक भी शब्द पर
ठहर भर जाए
तोड़ देते हो
अपने ही सारे आयाम
सृजन के.
प्रिय है कलाई ही इतनी
कि मुट्ठी और उँगलियाँ
वंचित हैं स्नेह से अब तक.
नदी दीदी, नदी दीदी
कहीं टेढ़ी, कहीं सीधी
तुम तो हो बड़ी ज़िद्दी
नदी दीदी, नदी दीदी
दुनिया भर की करती सैर
थकते नहीं हैं तुम्हारे पैर
तुम तो हो बड़ी ज़िद्दी
नदी दीदी, नदी दीदी
रोको तो नहीं रुकती
आगे किसी के नहीं झुकती
तुम तो हो बड़ी ज़िद्दी
नदी दीदी, नदी दीदी
रहती हो सदा बहती
न सुनती हो न ही कहती
तुम तो हो बड़ी ज़िद्दी
नदी दीदी, नदी दीदी
© निवेदिता अग्रवाल
भुबनेश्वर, ओडिशा
ये उद्गार हैं एक नन्हीं कलम के. आज अपनी लेखनी से इतर अपने ब्लॉग पर कुछ आप लोगों के लिए प्रस्तुत कर रही हूँ. मुझे आपकी कलम ने प्रभावित किया, आपके सोचने के तरीके के कारण. पहली बार मैंने नदी के लिए माँ के अतिरिक्त कोई अन्य संबोधन सुना. ये वो सोच है जहाँ हम सभी का विस्तृत मन नहीं पहुँचा. किंतु बाल सुलभ मन ने नदी को एक जीवंत किरदार के रुप में देखा. गोया नदी हमारे आपके बीच से निकलकर अपनी मंजिल तय कर रही हो. नदी का हठ, नदी का दर्द, नदी का दृढ़ प्रतिज्ञ होना... बालमन के सोचने के विशिष्ट तरीके से मेरी भावनाएँ जुड़ गयीं और मुझे लगा कि आप सभी तक यह अवश्य पहुँचना चाहिए.
आप कक्षा छः की छात्रा हैं. पढ़ने में मेधावी होने के साथ कराटे और नृत्य जैसी विधाओं में भी विशेष रुचि है. सबसे अच्छी बात की आपका गणित से विशेष अनुराग है. आपको उज्ज्वल भविष्य की शुभकामनाएं!
अब आ जाये अगर गुस्सा मुझ पर
तो दूर न कर देना ख़ुद से
तो पहले ही जता देना मुझसे
मैं चूम ललाट मना लूँगी
रख अधरों पर तुम्हारे तर्जनी अपनी
अंगुष्ठ से ठोढ़ी सहला दूँगी.
अब आ जाये अग़र गुस्सा मुझ पर
जो चाहे मुझको तुम कह लेना
दिल हल्का अपना कर लेना
आवाज़ जो तुमको देती रहूँ
कुछ मत कहना गुस्सा रहना
मैं रात धरा के शानों पर
रोते हुए बिता दूँगी
जब आऊँ अगली सुबह तुम तक
तुम चाय का प्याला उठा लेना
कुछ मत कहना चुप ही रहना
बस लिखते जाना, पढ़ने देना.
अब आ जाये अग़र गुस्सा मुझ पर
मेरे हक़ की स्याही और को तुम
न देना, इतना सुन लेना
दो-चार रोज को मौन भला
महीनों मातम में न बदल देना
गले लगा लेना हमको
या गला दबा देना मेरा
पर दर्द से अपने न जुदा करना
मुझे कभी-कभी तो मिला करना
अब आ जाये अग़र गुस्सा मुझपे
बस गुस्सा ही किया करना
क्यों रुठ गयी हैं बादलों से बूँदें
कहीं समन्दर ने इनसे नाता तो नहीं तोड़ा होगा
जैसे मैं होती जा रही हूँ दूर तुमसे
हर साँस पर अब साँस भी तो नहीं आती
और यादें हैं कि ज़िबह किए देती
जैसे छूट जाती है पतंग अपनी डोर से
नील गगन की रानी आ गिरती है जमीन
लुटी, कटी, नुची, सौ ज़ख़्म लिए
वो भी हाथ नहीं बढ़ाता उठाने को
जिसने लड़ाया पेंच, जितनी भी आए खरोंच
जैसे पार्थिव हो जाता है कोई आयुष्मान
तबाही मचा शाँत हुआ चक्रवात
सब कुछ बहता रहता है बिना नीर
चलता है मन-प्रपात
बस इसी तरह छोड़ते हो तुम मुझे हर बार.
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