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तितिक्षु प्रेमी

मैंने इमरोज़ नहीं चाहा

न ही उसकी पीठ

तुम्हारा नाम उकेरने को,

तुम साहिर भी मत बनना

शायद ही कभी मैं

चूल्हे पर चढ़ा सकूँ

तुम्हारे नाम की चाय

बस यूँ ही बने रहना

मेरी सुबह, मेरी शाम और रात

मेरी आत्मा के साथी.

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