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प्रेम का संत्रास

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तुम्हारी चुप्पियों का विस्तारित आकाश

भर देता है मुझे दर्द के नक्षत्रों से

आकाश गंगा की समग्रता

भंग करती है मेरी एकाग्रता और

पैदा करती है मुझमें एक नयी चौंक

बात-बात पर इतनी सजग तो कभी न हुई मैं

मैंने देवदार के पत्तों पर भी

अपना मन भर आहार जिया है

मैं रखना चाहती हूँ उस पर अपना बड़बोलापन

कितनी भी प्रेम की गागर भर लूँ मन में

थाह गहरी तो तुम्हारे मौन की रही है सदैव

भुला दी हैं तुमने मुझे वायुमंडल की समस्त भाषाएँ

रात्रि की मेरुदंड पर अधाधुंध दर्द लिखती हूँ

क्यों देखते हो तुम उसे कलंक

मैं सोना चाहती हूँ मृत्यु की एक पूरी नींद

तुम जागकर भटकते रहते हो मुझमें

इतना कि बन जाते हो मेरी सुबहों का मंगल

मैं औषधि का प्याला बढ़ाती हूँ तुम्हारी ओर

तृप्त होऊँ तुम्हें पीते देखकर और

ले लूँ चुम्बन तुम्हारे अधरों का

अमरत्व चखना है मुझे सृष्टि का

तुम्हारे होने तक उत्सव मना सकूँ मैं भी.

तुम्हारे मन का गृहस्थ मौन है न

और मेरे मन का सन्यास, मोह भर उपजी पीड़ा.

22 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज रविवार 12 सितम्बर 2021 शाम 3.00 बजे साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  2. न जाने मन में कितने संत्रास विचरते रहते हैं ।
    स्त्री मन आसान नहीं न समझना ।
    सुंदर भावाभिव्यक्ति ।

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  3. अमरत्व चखना है मुझे सृष्टि का

    तुम्हारे होने तक उत्सव मना सकूँ मैं भी.
    तुम्हारे मन का गृहस्थ मौन है न
    और मेरे मन का सन्यास, मोह भर उपजी पीड़ा...
    ...अत्यंत संवेदनशील और अन्तःकरण को छू लेने वाली इन पंक्तियों हेतु बधाई आदरणीया रोली अभिलाषा जी।

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  4. सादर नमस्कार ,

    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (14-9-21) को "हिन्द की शान है हिन्दी हिंदी"(4187) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
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    कामिनी सिन्हा






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  5. गहरे भावों से ओतप्रोत बहुत ही भावनात्मक और खूबसूरत रचना!

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  6. नारी मन के अंतरद्वंद्वों को व्यक्त करती भावपूर्ण रचना!

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  7. 'तुम्हारे मन का गृहस्थ मौन है न

    और मेरे मन का सन्यास' ... वाह, बहुत खूब!

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  8. सुंदर, सार्थक रचना !........
    ब्लॉग पर आपका स्वागत है।

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