जाने क्यों मेरा मन आज बंजारा हो गया!


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भटकता फिर रहा है बेसुध सा
राही है किसी पथ का न रहबर
फ़िज़ा-फ़िज़ा में कुछ तलाशे है
ढूंढे हवा-हवा आशियाना
नील-गगन में इंद्रधनुष की छत के तले
हवाओं के सहन में रहना चाहे
किसी डोर पे ये ठहरे न कहीं
सरे-शाम से ही आवारा हो गया
जाने क्यों मेरा मन आज बंजारा हो गया
अठखेलियां करे हिरनियों सी
इठलाए नदी की रवानियों में
टहलता रहे बादलों, तितलियों सा
है तो मेरा, मुझसे भी भागा फिरे
डोर रह गयी मेरे हाथ में
छोड़कर मेरा मधुमास
ऐसी लगी इन निगाहों की प्यास
कि थम गयी तुमपे तलाश
अपना तो हुआ न कभी, तुम्हारा हो गया।

कैसे पहुँचे 10,000 पाठकों तक 1 घण्टे में!!!


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बहुत दिमाग घुमाया
सर चकराया
गुस्सा भी आया,
क्या मेरी बातें हैं
जलेबी की तरह गोल-गोल
समझ नहीं आते लोगों को
मेरे सीधे बोल
जो मेरे संग नहीं बिताते
दो मिनट अनमोल,
2017 तो गया बीत
कहाँ बदली उनकी रीत
मैं हारी नहीं तो क्या
कहाँ हुई जीत,
लिखने से पहले 
अब पूछती हूँ खुद से
कि मेरी बेजान लेखनी
अब कौन पढ़ेगा
फिर दिमाग कैसे
कोई सृजन गढ़ेगा,
इस व्यंग्य को पढ़ने वालों
मेरे प्रिय मित्रों
मेरा सवाल सुलझा दो
कहीं मिलता हो गर
दस हजार का आँकड़ा
मुझे भी दिला दो,
कमेंट बॉक्स में उत्तर लिखे बिना मत जाना
पहली बार मंगल ग्रह पर पार्टी रखी है
आप सब जरूर आना,
2018 दस्तक पर है
मुस्कराते हुए बुलाना
वर्ष का हर दिन मंगलमय हो
बस गुनगुनाते हुए बिताना।

जिज्ञासा के बाद शून्यता!

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कहाँ होती है
जिज्ञासा के बाद शून्यता
वो तो अनुभवों के
असीम द्वार खोलती है,
हर बचपन एक बार 
ओले खाने की
लालसा रखता है
बड़प्पन हमें
'कैसे बनते हैं ओले'
इस प्रश्न पर घुमाता है;
बढ़ता ही रहता है
जिज्ञासा का आकार,
शून्यता तो 
जिज्ञासा के बाद
कुछ खोने की 
अवस्था में आती है
कि
हर बचपन की आंखों में
एक सपना पलता है
जब वो बड़ा होगा
माँ-पापा को 
महलों की नवाज़िशें देगा
मग़र ए दिल 
जिज्ञासा युवा पत्नी की 
आंखों में शून्य हो जाती है
और बुढ़ापा 
वृद्धाश्रम की सीढ़ियों पर
भंडारे की पूड़ियों में दम तोड़ता है।

मत छोड़ मुझे ज़िंदा!!!


दर्द का दशानन जीत गया
उम्मीद की सिंड्रेला हार गई
'निचोड़ लो रक्त इन स्तनों से
लहू-लुहान कर दो छाती,
घुसा दो योनि-मार्ग में
जो कुछ भी चाहो'
मेरी आत्मा चीखी थी
फफोलों से दुख रहा था
मेरा जिस्म
जब वो सारे वहशी
बारी-बारी से
अपनी गंधेली साँसे भर रहे थे
मेरी नासिका में,
उन कुत्तों का बदन 
मसल रहा था
मेरी छाती के उभारों को,
बारी-बारी से चढ़ रहे थे
मेरे ऊपर
मैं छटपटा रही थी दर्द में
और वो हवस की भूख में
कसमसा रहे थे,
भयंकर दर्द कि
मेरी साँसे घुट रही थी
दोनों हाथों से
मेरी गर्दन को भींचकर
मेरे मुंह पर 
चाट रहे थे
पूरे चेहरे पर
दांतो के निशान आ गए थे,
एक हाथ से
नंगा कर दिया था
योनि में लगातार 
प्रहार हो रहे थे
कुछ अंदर गया पहली बार
मेरी चिंघाड़ आस-पास तक 
गूंज गयी थी,
फिर एक दो तीन चार
...........
कितने ही नामर्द, नपुंसक
कुत्तों का लिंग
अंदर-बाहर होता रहा,
वो आह-आह कर 
सिसकी भरते रहे,
मैं बेजान-बेजुबान
पत्थर सी हो चुकी थी,
मेरी योनि 
अनवरत रिस रही थी
मैं नहीं जानती 
वो द्रव्य सफेद, लाल था
या फिर पीला,
मुझे तो मेरे पास
संवेदना का ज़र्द, सफेद, 
असंवेदनशील मृत चेहरा
दिख रहा था बस;
शायद मेरा रस झड़ चुका था,
तभी तो
वो मुझे
ज़िंदा लाश बनाकर छोड़ गए थे,
सांस तो अब भी आती है
मगर शर्म अब नहीं आती;

मेरी पहली पुस्तक

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