इश्क़ की भंवर के उस पार
सुख की मरीचिका तक जो पहुँचे
खुशी छलकी आँखों से
न ग़म में रोये,
कस्तूरी भी संग थी
मृग भी था
पर तलाश वहीं की वहीं है
ज़िन्दगी जहाँ थी
वहीं अब भी थमी है।
To explore the words.... I am a simple but unique imaginative person cum personality. Love to talk to others who need me. No synonym for life and love are available in my dictionary. I try to feel the breath of nature at the very own moment when alive. Death is unavailable in this universe because we grave only body not our soul. It is eternal. abhi.abhilasha86@gmail.com... You may reach to me anytime.
सुख की मरीचिका
प्रेम: कल्पनीय अमरबेल.... द्वितीय अंक
गतांक से आगे
दिन भर की उहा पोह से थकी मैं ए सी के सामने बैठकर माथे को दुपट्टे से पोंछ रही थी जबकि वहाँ पसीना तो दूर की बात थकान की एक बूंद तक न थी। थकान हो भी तो किस बात की शारीरिक श्रम से मेरा दूर तक कोई नाता न रहा हाँ दिमाग़ अकेला, नन्ही सी जान बेचारा दस जनों के बराबर सोच डालता था। मैं आदी हो चुकी थी। यही तो वो रिफ्लेक्शन था कि थकान का पसीना पोंछने को हाथ अनायास ही उठ गया था।
"उफ्फ, हद करती हो तुम भी यहाँ जमी हो और मैं ढूंढ रहा था।"
"ह्म्म्म....."
"मैं कुछ कह रहा हूँ और तुम खयालों में गुम हो।"
"फिर भी सुन तो रही हूँ न, अच्छा ये बताओ तुमने मुझे कहाँ-कहाँ ढूंढा... किचन, लॉबी, कमरा, टेरिस, घर, बाहर....मग़र जहाँ मैं हर वक़्त हूँ बस तुम्हारे लिए वहाँ...?"
"अब इमोशनल मत हो जाना, मुझे चिढ़ है रोने से..."
"हम्म, पता है।"
"मैं तुम्हें पाना चाहता हूँ, जान।"
"मैं तुम्हें पाती रहना चाहती हूँ, ज़िन्दगी।"
"याद नहीं अपने प्रेम का करार, दिन कैसे भी हों अपने पर रातें हमारी होंगी। हम इन रातों में पूरा जीवन जियेंगे। तुम्हारे हिस्से का दर्द मैं अपने प्यार से चौथाई कर दूँगा। अगर हाँ बोलो तो पूरा खत्म अभी..."
"हाँ तो कर दो न!"
"जादू है तुम्हारी आँखों में..." मैं खिल उठी थी इनकी बाहों में। इसी पल के लिए तो जीती हूँ मैं अनवरत लम्हों से संघर्ष करके। स्नेह की तपिश में मेरा दर्द जार-जार पिघल रहा था। हर आलिंगन जाने क्यों नया, ताजा सा लगता है। खिल उठती हूँ अंतर तक वो आवाज सुनकर।
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कहानी आगे भी जारी रहेगी।
फिदा हैं जिस पर हम शाम-ओ-सहर..वो अदा हो तुम
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हम
इतना आसां न था
ये सफ़र तय करना
तेरे बग़ैर ये जीवन
और उसपर गुमां करना,
तू मेरी एक अधूरी सी तलाश सही
जान लेता है
अधूरापन ये बयां करना
तुम
मेरा तो एक ठिकाना
तेरी नज़र की पाकीज़गी,
चाहे कहीं भी रहे तू
कब की ठहरी है यहीं
जिस्म हर रोज़ फना होता
तू तो है रूह-ए-ज़मीं
एक नज़र देख इधर तो
मेरी साँसें हैं थमीं
हम
मुतमईन है तुझसे हर पल
मुझको हर खबर है तेरी
अब तो थकता है जिस्म भी
रूह कब की है तेरी
मेरे हर पल की एक प्यास है तू
आँखों से दिल तक, तलाश है तू
तुम
मैं भी थकता रहा
जीवन के रेगिस्तानों में
नंगे पाँव चलकर,
मेरा दर्द इन कदमों में न ढूंढ
दिल के छालों में समझ
कैसे दूर हूँ तुझसे
इन अधूरे खयालों में समझ
हम
तुझको गर दर्द है, मैं उसको
चीर के रख दूँ
इस कमज़र्फ जमाने को
तेरे कदमों में बिछा दूँ
तुझपे हर चीज खुशी की
न्योछावर कर दूँ
चाँद-तारे मैं गगन के
तेरे सदके में उतारूँ
तुम
न कर इतना प्यार मुझको
कि तेरा गुनहगार हो जाऊँ
मैं जियूँ इस तरह
कि ज़िंदगी से बेज़ार हो जाऊँ
तेरा मसीहा बनने के काबिल नहीं
अर्श पे मत यूँ रख मुझको
तेरी इबादत का तलबगार हो जाऊँ
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हम
तू क्या है, ये तो बस मेरा ख़ुदा जाने
इक लम्हा भी नागवार हो
गर तुझसे अलग कोई दुनिया माने
न बोल कुछ भी
बस इन होठों पे इनायत कर दे
मुझे सीने से लगा ले
साँसों को मेहरबां कर दे
तेरे मख़मली लफ़्ज़ों की
मेरे जिस्म में हरारत हो जाए
बस इस दम तू ठहर जा
रूह की जिस्म से बगावत हो जाए
तेरी बाहों में रहूँ मैं
मेरी साँस मुझमें सो जाए
मुझे सीने से लगाना तो इस कदर
कि हवाओं की गुंजाइश न हो
हो मेरी मौत तेरे दामन में
कि मेरे दर्द की नुमाइश न हो
मेरे जनाज़े पे
तेरे पाँवो की धूल विदा करना
अपनी पलकों से छूकर
मेरी माँग सजा देना
अपनी यादों के रंग
कफ़न पे सजा देना
जब थक जाए मेरी रूह तुझे देखकर
मेरी मैय्यत उठा देना
लूँ हज़ार जनम
तेरा साथ हो गर
वरना इन ख्वाहिशों को मेरे संग सुला देना
इस वर्तमान का भविष्य क्या???
देखने में सुडौल, खूबसूरत शरीर के मालिक पेशे से इंजीनयर मौलिक चंद्रा अपने हर काम में निपुण हैं। जितने देखने में सरल मन कहीं उससे अधिक मधुर। एक-एक कर सारी खूबियाँ उनमें समायी थी सिवाय मन की कमजोरी के। सभी के लिए इतना अच्छा सोचते कि स्वयं का ध्यान रखने का मौका नहीं मिलता। ऐसे में अगर कोई कुछ कह देता वो उसी के जैसा सोचने लगते। जब लोगों को ये पता चलता लोग हर तरह से उनका उपयोग करते। उनसे अपने मन की करा लेते।
उनके एक बहुत अच्छे मित्र को कुछ मजे लेने की सूझी। कुछ पुरानी खुन्नस भी निकालनी थी उन्हें। शाम होते ही ऑफिस आ गए, "यार मौलिक अपने ग्रुप के सभी लोगों की बैंड बज गयी अब तू ही बचा है..."
"सही बोल रहा तू, मुझे पता तुम सबसे मेरी खुशी नहीं देखी जाती।" मौलिक बात काटते हुए बोला।
"मैं ये सब नहीं जानता। तू तो पार्टी से बचना चाह रहा। अब जल्दी से फाइनल कर।" मोहित चहकते हुए बोला।
"नहीं यार वो बात नहीं, मुझपर बहुत जिम्मेवारियां हैं। अभी कुछ वक्त और रुकना चाहता हूँ।"
"अरे पागल है क्या, वो आ जायेगी न तो दोनों मिलकर करना फिर सब ठीक हो जायेगा।"
"तू नहीं समझता आजकल अच्छी लड़की मिलती कहाँ हैं।"
"उसकी टेंशन मत ले तू मैं तो लड़कियों की लाइन लगा दूँगा। मुझे पता है तू इतना डिस्टर्ब क्यों है। देख यार हर लड़की एक जैसी नहीं होती और मैं तो कहता हूँ तूने जल्दबाजी भी बहुत कर दी थी। तूने लिव-इन का ऑफर देकर ही गलती की। तुझे निचोड़कर चली गयी। जाने ही देना था तो ऐसे न जाने देता। साली को देना था कान के नीचे एक। उसकी औकात बताकर भेजता कि तू भी क्या था। अब यहीं अपनी भाभी की फ्रेंड को ही ले। इतनी खूबसूरत है कितने ही लड़कों ने प्रपोज किया पर मजाल है जो किसी से बात कर ले। रिश्ता वहीं करेगी जहाँ घरवालों की मर्जी होगी।"
"हाँ सही कह रहे हो भाई। लड़की को संस्कारी ही होना चाहिए.... अच्छा मैं निकलता हूँ जाना है कहीं। फिर मिलते हैं।"
"हाँ, मैं भी घर जा रहा हूँ।"
मोहित और मौलिक दोनों ही अलग रास्तों पर निकले थे पर दोनों की सोच एक ही थी। मौलिक जहाँ अपने अतीत को भुलाकर नयी शुरुआत करना चाहता था वहीं मोहित दिव्या से उसका रिश्ता कराकर अपने अतीत को जीना चाहता था।
मोहित के घर पहुँचते ही उसकी पत्नी ने शादी में जाने की बात की। तैयार होते हुए उसने अपनी पत्नी को मौलिक के बारे में बताया कि वो दिव्या और मौलिक का रिश्ता कराना चाहता है।
"अरे ये क्या कह रहे हो। इतने शालीन, सभ्य मौलिक भाई और वो आवारा लड़की जिसने तुम्हें तक नहीं छोड़ा।"
"हाँ तो मैं कौन सा धर्म का ठेकेदार हूँ। वैसे भी मौलिक को तुम जानती ही कितना हो।"
"फिर भी कम से कम उन्हें इस तरह तो न फँसाओ।"
मोहित ने मौलिक को फोन कर शादी में जाने की बात याद करायी। मौलिक भी झट से तैयार हो गया।
"अब मौलिक को जबरदस्ती क्यों बुलाया? देखो ये गलत कर रहे हो तुम।"
"बस मेरी मर्जी।"
शादी के हाल में मौलिक, मोहित और उसकी पत्नी से मिला। कुछ औपचारिक बातें हुईं। तभी सामने से दिव्या आ गयी।
"इनसे मिलो मौलिक ये हैं हमारे यहाँ की फैशन डिज़ाइनर दिव्या,,, और दिव्या ये हैं इंजीनियर साहब मौलिक।" कहते हुए मोहित ने परिचय कराया।
कुछ देर तक औपचारिक बातें होती रहीं फिर कुछ खिलाने के बहाने दिव्या मौलिक को बाहर तक ले आयी। एकांत पड़ी कुर्सियों पर दोनों बैठ गए। मोहित अपनी पत्नी के गुस्से को नजरअंदाज करता रहा।
ये एक छोटी सी मुलाक़ात एक सिलसिले का सबक बन गयी। मोहित तो जैसे आमादा था सब कुछ अभी हो जाये। मौलिक प्यार के पन्ने पलटने में व्यस्त था। वही दिव्या इन सब बातों से बेखबर जीवन के मजे ले रही थी। दिव्या की स्वच्छंदता सबसे बड़ी रुकावट थी। मौलिक दिव्या के इस व्यवहार को उसकी जहीनता समझ रहा था।
"मौलिक इतने स्लो ट्रैक पे क्यों चल रहा?"
"यू मीन?"
"नथिंग"
"कहाँ आज इतनी सुबह..."
"अरे मैं तो नितिन के लिए आया था। एक भाईसाहब आगे वाले मोड़ पर हैं, उनके पास जाना है। तू यहाँ क्या कर रहा चल न मेरे साथ।"
"अरे नहीं, ऑफिस में बहुत काम है।"
"कोई काम नहीं। वापिस आकर कर लेना।"
मोहित मौलिक को जबरदस्ती अपने साथ ले गया।
दोनों एक तांत्रिक के दरवाजे पर थे। नॉक करते ही उन्हें अंदर बुलाकर बिठाया गया। मौलिक को महसूस हुआ कि मोहित का कोई इम्पोर्टेन्ट काम नहीं था बस बहाने से ले आया। मोहित ने बातों ही बातों में मौलिक की पूरी कहानी सुना डाली।
"परेशान क्यों होता है तू, तेरी परेशानियां तो चुटकी बजाते जाएंगी।" इतना कहकर उस तांत्रिक ने आंख बंद कर मन्त्र पढ़ने शुरू कर दिए।
"घोर अनर्थ तुझपर बहुत बड़ी विपदा आने वाली है। सही समय पर आ गया तू। ये ले ताबीज पहन ।" मौलिक की ओर ताबीज बढ़ाते हुए बोला।
"देख मैं तुझसे इसके बदले कुछ भी नहीं ले रहा।"
"अरे ऐसा कैसे बाबा। ये लीजिये, अब हम आज्ञा चाहते हैं।" मोहित ने बाबा को मुद्रा देकर अनुमति ली। अब मौलिक के दिमाग ने सोचना बंद कर दिया था। उसकी दुनिया दिव्या, मोहित और तांत्रिक तक सिमट कर रह गयी थी। तांत्रिक उसे सफलताओं के सब्ज-बाग दिख रहा था। दिव्या और मोहित का आहार तो वो पहले से ही बना था। जो शख्स इतना पढ़ा-लिखा होने के बावजूद ऐसी हरकत करे तो समाज में वैल्यू कम होना स्वाभाविक था यहाँ तक कि उसके जूनियर भी दूर होने लगे थे।
एक शाम मौलिक उचाट मन से ऑफिस में बैठा हुआ था तभी सामने से दिव्या को आता देख खुश हो गया।
"मौलिक, ये मैं क्या सुन रही हूँ तुम्हारे बारे में, तुम इतने गिरे हुए इंसान हो। मुझे पाने के लिए उस ढोंगी बाबा का सहारा ले रहे। बस यही संस्कार हैं और तुम्हारी शिक्षा।"
"ये किसने कह दिया तुमसे। तुम्हें गलतफहमी हुई है। मैं किसी बाबा को नहीं जानता।"
"झूठ मत बोलो। मैं उस बाबा का स्टिंग ऑपरेशन करके आ रही हूं।" इतना कहकर एक जोरदार आवाज के साथ पूरे ऑफिस में सन्नाटा पसर गया। मौलिक के गाल पर दिव्या की उंगलियों के निशान छप गए थे। तभी तड़-तड़ की आवाज के साथ आफिस में अंधेरा हो गया। कहीं शार्ट-सर्किट हुआ था। लोगों में अफरा-तफरी मच गई। दिव्या जा चुकी थी। वो बूढ़ा तांत्रिक मौलिक की गिरेबान पकड़कर अपनी आखिरी किश्त मांग रहा था। मौलिक ईश्वर को याद कर अपनी उन अच्छाइयों का वास्ता दे रहा था जो उसने जीवन में कभी की हों।
तभी मौलिक के कानों में फोन की घण्टी बजी।
"ज़िन्दगी, तुमने मुझे जगा दिया। थैंक यू सो मच। शायद मौलिक ने बहुत अच्छाइयां की अपने जीवन में कि ये एक स्वप्न ही था इससे ज़्यादा कुछ नहीं।
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मैं रूठा नहीं .... छूट गया हूँ।
हाँ, मैं छोड़ आया हूँ
किसी को तड़पते हुए अपने पीछे
स्नेह की हाँड़ी पर
संबंधों की गर्माहट
जो मेरे दर्द को सींचती थी,
समय-असमय
मेरी जरूरतों के वक़्त
वो बेहिसाब जीती थी मेरे लिए
मैं उसपर खर्च हुए पलों का हिसाब
रखने लगा हूँ आजकल,
मैं उसकी साँसे कम कर रहा हूँ
छीन कर उसकी मुस्कराहटों के पल,
वो दुनिया से लड़ जाती थी मेरे लिए
मैं चुपकी लगा आया उसके होठों पर
कि मुझसे मुबाहिसे न करे,
मुझे गलतियां करने से न रोके;
मैं जीना चाहता हूँ
खुलकर हंसना चाहता हूँ
मजे लेना चाहता हूँ ज़िन्दगी के
वो हर बार टोकती है
मेरी विफलताओं का हवाला देकर
मैं आगे बढ़ता रहता था
और वो हर जतन करती थी
कि मुझे डूबने से रोक ले
मैं उसे मृतप्राय छोड़कर बढ़ जाता था
मैं डूबता
और वो तिनका बनकर फिर सहारा देती
मेरे सारे गुनाह, अपशब्दों को
भुला दिया करती,
गले से लगाती मुझे
बहुत प्यार करती
मेरा दम घुटता उसके निःस्वार्थ प्रेम में
मैं उससे हर बात जुदा रखता
उसे बहुत फिक्र होती थी
कि कोई बुरा न कह सके मुझे
मैं सबकी सुनता
पर उसकी सुनता ही कब था,
अब भी नहीं सुनूंगा मैं उसकी फिक्र
नहीं चाहता अपनी बातों में
मैं उसका जिक्र:
तभी तो
दफन कर आया उसे
उसी मिट्टी में
जिसकी वो बनी थी,
गला घोंटकर आया हूँ
उस हसरत का
जो मुझे सुनने के लिए थी
गर्म सलाखें आंखों में उतार दीं
अब न आंखें रहेंगी
न मुझे देखने का सपना
साथ लाया हूँ
राख उस चिता की,
रोज़ उस राख के कुछ कण
अपने पांवों में लगाऊंगा
कि ये सफलता की ओर ही बढ़े,
उसकी निःस्वार्थ चाहत
जो मुझे सिर्फ और सिर्फ
अर्श पर देखने की थी
इस टोटके में साथ रहेगी।
मैंने लिखना छोड़ दिया है
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तुम्हारी मुस्कराहटों के नाम
वो जो रक्तिम अक्षर थे
आखिरी थे मेरी कलम से
तोड़ दिया अग्र भाग
कि ये विवश हो जाये,
अब नहीं होगी न, वो स्याही
जो तुम
अपनी देह की ऊष्मा पिघलाकर
दिया करती थीं,
तुम्हारी झनकार लय थी
मेरे गीत का
सुलझाते हुए तुम्हारे अलकों को
शब्द बिखरते थे हर पन्ने पर
जब झुकाती थीं तुम पलकें
माधुर्य सिमट आता था कविता में;
न भी होती थीं तो
मुझमें छुपी होती थीं
तुम तो चुरा ले गईं खुद को मुझसे
अब कहाँ से लाऊँ वो रस
मैंने लिखना छोड़ दिया है
क्योंकि
रूठे हुए मीत को मनाऊँ कैसे
बिन मीत गीतों में रस लाऊँ कैसे
मैं मृत्यु हूँ...
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कोई भी मुझे जीत नहीं सकता
मैं अविजित हूँ,
गांडीव, सुदर्शन, ब्रह्मास्त्र हो या
ए के-47...56
इनकी गांधारी हूँ मैं,
समता-ममता, गरिमा-उपमा
मद, मोह, लोभ-लालच,
ईर्ष्या, तृष्णा, दया,
शांति...आदि
सभी उपमाओं से परे हूँ;
मेरा वास हर जीवन में है
जन्म के समय से पहले ही
मेरा निर्धारण हो जाता है
बूढ़ा, बच्चा और जवान
मैं कुछ भी नहीं देखती
क्योंकि मैं निर्लज्ज हूँ;
गरीबी-अमीरी कुछ भी नहीं है
मेरे लिए,
दिन क्या रात क्या,
झोपड़ी, महल और भवन
इनके अंदर साँसे लेता जीवन
मेरी दस्तक से ओढ़ता है कफन
इमारतें हो जाती हैं बियाबान
मंजिल है हर किसी की
बस शमशान;
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..........
अगर नहीं किया मेरा वरण
तो कैसे समझोगे प्रकृति का नियम
बिना पतझड़
कैसे होगा बसंत का आगमन,
पार्थ को रणक्षेत्र में
मिला है यही ज्ञान
मौत से निष्ठुर बनो
न हो संवेदनाओं का घमासान
गर डरो तो बस इतना कि
मैं आऊँ तो मुस्करा कर मिलना
अभी और जीना है
अच्छे कर्म करने को
ये पश्चाताप मन में न रखना,
मेरा आना अवश्यम्भावी है
मैं कोई अवसर भी नहीं देती,
दबे पाँव, बिन बुलाए
आ ही जाऊंगी
करना ही होगा मेरा वरण
फिर क्यों नहीं सुधारते ये जीवन
पूर्णता तो कभी नहीं आती
अंतिम इच्छा हर व्यक्ति की
धरी ही रह जाती है,
पूरी करते जाओ
अंतिम से पहले की हर इच्छाएं,
ध्यान रखो
औरों की भी अपेक्षाएं:
मैं तो आज तक
वो चेहरा ढूंढ रही हूँ
जिसके माथे पर
मेरे डर की सिलवटें न हों,
जिसके मन में
'कुछ पल और' जीने की
इच्छा न हो!
माँ शारदे...
माँ शारदे!
स्नेह से तार दे
मेरी कलम में वो
रोशनाई तू दे कि जो
मन की परिभाषा मैं कह दूं
वो भावों का संगीत हो
हो तेरी वीणा मधुर
शब्द मेरे रचे हों
गीत तेरा अमर!
A letter to those who write ingrezi
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हमारे deer मित्रों
एक अनुभव से गुजरे हम
बीते दिनों,
फ़ेसबुक की timeline पर
अचानक एक फोटू आया
हार पहने हुए व्यक्ति
हमसे टकराया;
हमने आँखे बंद कर
दो मिनट तो नहीं
पूरे दो सेकण्ड का ध्यान लगाया
इस तसल्ली पे आँखे खोली
जब वो बोले अब मैं शान्ति पाया,
नीचे लिखे कमेंट बॉक्स को पढ़कर
सर चकराया
तब समझ आया
क्यों अब वो शांति पाया;
कमेंट बॉक्स में कुछ यूँ लिखा था Rest in piece
क्या dye आत्मा को
शांति टुकड़ों में मिलेगी?
हे मित्रों
हिंदी बुरी नही है
अँग्रेजी आने से ज़्यादा जरूरी है
अच्छा इंसान होना
हो सुख बांटने को अपना
और ग़मों में पहचान होना,
भाषा से बड़ा भाव होता है
गर व्यक्त न कर सको खुद को सही
तो अपनेपन का अभाव होता है,
ये कविता तो बस हमारे
Deer मित्रों के लिए है,
दिल पे मत लेना जानी
हिंदी तो हमें भी नहीं आती
अंग्रेजी समझने को तरसते हैं।
एक अनुभव से गुजरे हम
बीते दिनों,
फ़ेसबुक की timeline पर
अचानक एक फोटू आया
हार पहने हुए व्यक्ति
हमसे टकराया;
हमने आँखे बंद कर
दो मिनट तो नहीं
पूरे दो सेकण्ड का ध्यान लगाया
इस तसल्ली पे आँखे खोली
जब वो बोले अब मैं शान्ति पाया,
नीचे लिखे कमेंट बॉक्स को पढ़कर
सर चकराया
तब समझ आया
क्यों अब वो शांति पाया;
कमेंट बॉक्स में कुछ यूँ लिखा था Rest in piece
क्या dye आत्मा को
शांति टुकड़ों में मिलेगी?
हे मित्रों
हिंदी बुरी नही है
अँग्रेजी आने से ज़्यादा जरूरी है
अच्छा इंसान होना
हो सुख बांटने को अपना
और ग़मों में पहचान होना,
भाषा से बड़ा भाव होता है
गर व्यक्त न कर सको खुद को सही
तो अपनेपन का अभाव होता है,
ये कविता तो बस हमारे
Deer मित्रों के लिए है,
दिल पे मत लेना जानी
हिंदी तो हमें भी नहीं आती
अंग्रेजी समझने को तरसते हैं।
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मेरी पहली पुस्तक
http://www.bookbazooka.com/book-store/badalte-rishto-ka-samikaran-by-roli-abhilasha.php
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