एक बार
तुम्हें देखना है सामने
पास से
इतनी पास
कि हाथ बढ़ाकर छू सकूँ
चेहरे का स्पर्श कर जान सकूँ
तुम्हारा स्वाद
होठों पर उँगली रख रोक सकूँ
तुम्हें कुछ भी कहने से
और फिर लगा लूँ तुम्हें गले से
जो उधार है हम पर
जिसकी लौ तुमने ही तो लगायी थी
हर बात से खुद को झाड़ कर
कोई एक इस तरह
कैसे अलग कर सकता है ख़ुद को
जैसे किसी बच्चे ने
अपने कपड़ों से झाड़ दी हो मिट्टी
और मिटा दिया हो निशान गिरने का
चाय गिर जाती है
तो मैली होती है कमीज.
कहा था तुमने
सोचो जब प्रेम गिरा
तो क्या मैला नहीं हुआ मन
स्नेह की डोर
दोनों ओर से बँधती है
दोनों ओर से खिंचती है
छल गये उस बराबरी को तुम
कुव्वत नहीं थी
तो कवायद ही क्यों की
चाहती हूँ मैं मान जाऊँ
तुम्हारी बात
ले लूँ विराम
मगर उससे पहले
देखना है तुम्हें
सामने से
पढ़ना है विराम तुम्हारी आँखों का
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