दुःख रात का वो पहर नहीं जहाँ नितांत अंधेरा है
दुःख तो वो पल है जब आपके कदम ठहर जाएं
दुःख वो कहर नहीं जहाँ उम्मीदें टूटती हैं
दुःख तो वो जहर है जिसे पीकर आप उम्मीद करना छोड़ दें
दुःख बियाबान जंगल नहीं
दुःख तो वो छाँव है जहाँ आप दिशा भटक जाएं
दुःख वो नहीं जो किसी के चले जाने पर हो
दुःख तो किसी के साथ होते हुए भी न अपनाने पर है
दुःख वो नहीं जो हताश कर दे
दुःख तो वो है जो आशा को निराश कर दे
दुःख वो नहीं जब अन्न न मिले
दुःख तो वो है कि आपके पास अन्न हो और सेवन न कर सकें
दुःख वो नहीं जब आपके पाँव में जूते न हो
दुःख तो वो है कि जूते पहनने को पाँव न हो।
To explore the words.... I am a simple but unique imaginative person cum personality. Love to talk to others who need me. No synonym for life and love are available in my dictionary. I try to feel the breath of nature at the very own moment when alive. Death is unavailable in this universe because we grave only body not our soul. It is eternal. abhi.abhilasha86@gmail.com... You may reach to me anytime.
दुःख में सत्य चीखता है...
प्रिय को पत्र
तेरा-मेरा साथ
चुटकी भर सिंदूर
और मंगलसूत्र
बाँध देते हैं परिणय सूत्र में,
अग्नि के सात फेरे
देते हैं साथ चलने का साहस,
मंत्रो की वैदिक ऋचाएँ
बनती हैं एक-दूजे की आवाज़ें,
दो अजनबी मन
पास आने से पहले
लेते हैं सात वचन,
आकाश तभी तो झुकता है आशीष को
जब धरती पाँव पखारती है,
सुहागरात का प्रणय
कब समर्पण बन जाता है
अल्हड़ मन
घूँघट की ओट से रीझता है
बिना समझे ही हर मन
परिपाटी निभाता है,
विदा तो हर बार बस
बेटियाँ ही होती हैं
पर संस्कारों में
किसी और देहरी का
मान बढ़ाने को।
वुड बी मदर हूँ मैं....
फिर मिलते हैं...
चलो ज़िन्दगी से दरख्वास्त की जाए
जगते रहने की इजाज़त दे मुक़म्मल नींद से पहले।
शुभ रात्रि
बराबरी का समीकरण
हर वर्ष
'महिला दिवस'
मनाया जाता है
कहीं ये सोचकर
पुरुष अपनी कॉलर
ऊंची तो नहीं करते
कि साल के 364 दिन
तो उनके ही हैं,
आगे से एक दिन
'पुरुष दिवस'
भी होना चाहिए
ताकि
बराबरी का समीकरण
बना रहे।
प्रेम: कल्पनीय अमरबेल.....तृतीय अंक
दर्द का हर डंक
दर्द का पर्यायवाची बन गया ये जीवन
और हर पर्याय पर
भिनभिना रही हैं मधुमक्खियां
कि हर आहट पर
डंक मारने को आतुर,
बेतरतीब सी दौड़ती जा रही हैं
हज़ारों गाड़ियां सड़क पर
इनके नीचे कुचला जा रहा है
सीधा-सादा मानव
कोरताल की सड़कों पर
लाली बिखेरता हुआ,
जाने कितने घरों का
सूरज अस्त हो रहा है
क्या फर्क पड़ेगा उन बेवा माओं को
जो हर शाम हथेलियों की थपकी से
बनाती थी तीन रोटियां
खुद डाइटिंग करती थी
अपने बेटे का पेट भरने को,
किसी तरह अपने जिस्म को ढकती थी
अधखुले कपड़ों में
उसे फैशन का नंगा नाच नहीं पता
पर सभ्यता का डंक सालता था हर वक़्त,
कूप-मण्डूक हो गयी हैं वो
सिमट जाती है उनकी उदासी कोठरी में
जहाँ दिन का सूरज तो किसी तरह
छन कर पहुँच जाता है
पर नहीं जलने देता है रात का दिया
दर्द का हर डंक;
हम सब भी मूंद लेते हैं आँखे
थक चुके होते हैं इतना दर्द देखकर
फिर एक दिन
हमारी आत्मा चीखती है
उस बेवा की लाश की सड़ांध पर।
उदासी के नाम चन्द शेर
आज मुझे कोई गुज़रा जमाना नहीं याद,
गुज़र जाए मेरा आज बस यही फरियाद।
हद से गुज़र जाए गर दर्द, तसल्ली कहाँ
सायबां न कोई, दर्द ही बन गयी है दुआ।
उदासी से भर जाती है उसके पाजेब की रुनझुन,
गर देखा कोई शहीद-ए-वतन तोपों की सलामी पे।
सर्द रातें हैं, चाँद की आँखों में नमी है
तेरे याद की शाम ढल चुकी है कहीं।
अख़बार श्वेत-श्याम की नुमाइंदगी भर है
खूनी हर खबर है पन्नों के बीच लिपटी।
मेरी पहली पुस्तक
http://www.bookbazooka.com/book-store/badalte-rishto-ka-samikaran-by-roli-abhilasha.php
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इस प्रेम कहानी से प्रेरित मेरी कविता "प्रेमी की पत्नी के नाम" ९०,००० से अधिक हिट्स के साथ पहले पायदान पर आ गयी है. जो "ओ लड़क...
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