यादों की सीलन पर ठहरी धूप: भाग- III

अंतिम भाग
शिव अपनी बात कह चुके हैं और शायद सही भी कहा..बुरे वक़्त की भरपाई कहीं से भी नहीं होती। कितनी अच्छी सी थी वो कॉलेज की लाइफ..हमारी बाल-सुलभ हरकतें और फिर एकाएक किसी अजनबी इंसान के इतना करीब आ जाना कि जीवन को छोड़कर एक-दूसरे को जीने लगना। मेरी आँख ही इसीलिए खुलती थी कि शिव की सुबह कहीं हुई होगी। एक जूनून था कॉलेज जाने का, उसके साथ वक़्त बिताने का। कितना रोई थी उस दिन मैं जब बस-स्टॉप पर शिव का पैर स्लिप कर गया था...व्रत रखा यहाँ तक कि मंदिर जाकर भगवान जी से भी बोला शिव को तुरंत ठीक करें चाहे मुझे चोट लगा दें...जबकि शिव बोलता रह गया था मामूली चोट है। एक अलग ही अनुभव से गुजर रही थी मैं। कहते हैं माँ की आँखें सब पढ़ लेती हैं, माँ सरीखी दीदी ने मेरी आँखों में शिव को पढ़ लिया था बाकी की सारी औपचारिकताएं उन्होंने पूरी कर दी थीं। अपना बचपन उन्हीं की गोद में जिया था मैंने, माँ-पापा को तो बस तस्वीरों में देखा। मुझसे लिपटकर बेपनाह रोई थी वो जब मेरे हल्दी लगे हाथों को शिव ने थामा था...मेरे सास-ससुर को बार-बार यही समझाती रही कि ये बच्ची है, नादान है गलतियाँ करेगी आप समझा देना, माफ़ कर देना...शिव को भी ढ़ेर सारी हिदायतें दीं थीं। मेरी विदाई के कुछ दिन बाद ही चल बसी शायद इतना अकेलापन न सह पाई। मेरे लिए शादी न करने का फैसला तो उसने कर लिया था पर क्या उसे छोड़कर मेरा शादी करने का निर्णय सही था, मुझे ये सवाल कचोटने सा लगा। ये मैंने तब नहीं सोचा था। प्रेम का आवरण इतना मखमली होता ही है कि एक बार पैर रख दो फिर वापसी नामुमकिन। मैं शिव के खोल में इस कदर समाई और कुछ न देख सकी।
शिव और उनकी फैमिली बरेली से दिल्ली शिफ्ट हो गई, सबका यही मानना था कि एनवायरनमेंट चेंज होने से मुझे अलग फील होगा। मुझे इन लॉज़ के रूप में माँ-पापा दिखाई देते, बहुत कम्फ़र्टेबल रहने लगी उनके साथ। शिव को नॉएडा की एक मल्टीनेशनल कंपनी में जॉब मिल गई, उसके लिए नॉएडा से दिल्ली का सफर मुश्किल हो रहा था। सभी की सहमति से नॉएडा में एक फ्लैट लेकर मैं और शिव रहने लगे। शायद यहीं से नींव पड़ी मेरी आँखों के उन काले घेरों की जो वक़्त की बेबसी की दास्तां लिख रहे थे। शिव काम में व्यस्त रहने लगे और मैंने खुद में ही खालीपन इकठ्ठा करना शुरू कर दिया। उस टू बेडरूम फ्लैट को कितना सजाती सँवारती, बस यही काम बचता था मेरे हिस्से। शिव ने शुरुआत में बहुत कोशिश की कि मैं भी अप्लाई कर दूँ पर मुझे तो बस शिव की पत्नी बनना था। जब भी बात होती मना कर देती, पहले तो हर वीक-एन्ड पर दिल्ली जाना होता था फिर व्यस्तता इतनी बढ़ी कि महीने में भी एक बार मुश्किल से जा पाते। मैंने वक़्त न देने की शिकायतें करना शुरू कर दिया तब यही जवाब मिलता...कुछ दिन माँ-पापा के पास जाकर भी रह सकती हो। इसी तरह दिन बीतते रहे और हम लोगों के बीच दरार ने जगह बनाना शुरू कर दिया। दुखता तब नहीं जब हम दूर होते बल्कि पास होकर भी दूर होना बहुत तकलीफ देने लगा जैसे रिश्ता कहीं रिस रहा हो भीतर। 
उस दिन का इंतज़ार 364 दिनों से कर रही थी मैं, शिव का बर्थडे था। एक दिन पहले ही रिटर्न गिफ्ट का प्रॉमिस ले लिया था मैंने। बहुत मन से तैयार हुई थी बाहर जाने के लिए, मेरी ख़ुशी का ठिकाना न रहा जब ऑफिस से शिव जल्दी घर आ गए थे। हम दोनों अपने फेवरिट रेस्टोरेंट की कार्नर टेबल पर थे। एक अरसे के बाद शिव रोमांटिक मूड में थे। मेरी ख़ुशी आसमान में टँगे इंद्रधनुष की तरह खिली नज़र आ रही थी तभी ऑफिस से फोन आया, कॉर्पोरेट सेक्टर से किसी की मीटिंग थी और शिव ने उसे हमारे साथ डिनर पर बुला लिया। उस दिन पहली बार मैंने बहुत बेइज्जत महसूस किया था क्या शिव मुझे अपना एक दिन भी नहीं दे सकता..कुछ घंटे भी नहीं? किसी तरह डिनर कम मीटिंग का समय ओवर हुआ हम घर आ गए।
..'मालि तुम मुझे समझने की कोशिश क्यों नहीं करती, अब कुछ भी पहले जैसा नहीं रहा। मैं जानता हूँ तुम्हें अकेलापन लगता है बहुत कोशिश करता हूँ तुम्हें वक़्त देने की पर ये जिम्मेदारियां भी तो समझो। जानती हो जिन्हें मैंने डिनर के लिए इनवाइट किया था उन्हीं की वजह से मैं मॉरीशस जा पाउँगा'..मैं चिढ़कर उठ बैठी थी...'अभी बेकार बताया था जब पहुँच जाते तब बताते..' 
...'उफ़्फ़ कुछ समझोगी भी...तुम्हें सरप्राइज देना था..' ये कहते हुए तुमने वो जेब से वो लेटर निकालकर मेरी गोद में डाल दिया था। तुम्हारी सफलता पर मेरा मन झूम गया था पर मैं सहज नहीं हो पा रही थी।
'...तुम्हें ख़ुशी नहीं हुई क्या?' तुम्हारे इस प्रश्न पर मैं कुछ नहीं बोल पाई थी। शायद मेरे अंदर तुम्हें खोने का दर्द बढ़ता जा रहा था। मुझे तुमसे दूर जाने की शिकायतें थीं और तुम्हें मेरे बदल जाने की। किसी रेलवे ट्रैक की दो समानांतर पटरियों की तरह हम आगे बढ़ते जा रहे थे। तुम अपने मॉरीशस जाने की तैयारियों में व्यस्त हो गए मैं पहली बार अपने फ्लैट पर आई माँ की तीमारदारी में। याद है जब उन्होंने बच्चे की फरमाइश की थी...चाहती तो मैं भी यही थी पर तुम्हारा इतना कड़क न सुनकर मेरे पैरों के नीचे से जमीन निकल गई थी....
मैं शिव के जाने से पहले ही माँ के साथ दिल्ली आ गई। बातों ही बातों में मैंने माँ से बोला कि मैं हमेशा के लिए बरेली शिफ़्ट होना चाहती हूँ और ये बात शिव को इतनी बुरी लग गई कि बरेली आते ही मुझे तलाक के पेपर्स मिल गए। मुझे ज़िन्दगी खेल सी लगने लगी थी और तलाक़ भी उसी खेल का एक हिस्सा। शिव का साथ न होने की भरपाई करने के लिए घर के पास ही एक क्रच ज्वाइन कर लिया। 
इन चार दीवारों के अंदर पल रही नौ महीने की उदासी बादलों की खामोशियों में छितर गई थी। मेरी बाहों में सोया हुआ शिव इतना प्यारा लग रहा था जैसे पहली मुलाक़ात में लगा था...सही तो कह रहा है शिव मैं अगर उसको अपना पति नहीं मानती तो उसके नाम का सिंदूर क्यों लगा रखा है...ये बिछुआ, मंगलसूत्र सब तो उसी के नाम का है पर मुझे महज इनके नाम पर ज़िन्दगी को रीतते नहीं जाना है बल्कि समय को जीना है। शिव के मोबाइल पर हो रही रिंग ने मुझे वर्तमान में ला पटका।
"हैलो"
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"जी मैं बोल रहा हूँ"
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"नहीं, मैंने 15 दिनों की लीव ले रखी है।"
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"नहीं__बट स्पेशल ही है। मैं शादी करने जा रहा। आप 21 तारीख तक सारी मीटिंग्स कैंसिल कर दीजिए। मैं अवेलेबल नहीं रहूँगा।" मेरा चेहरा दर्द, पछतावे और गुस्से से लाल हो गया। आँखों से आँसू बह निकले... क्या इतने करीब पाकर मैं शिव को फिर खो दूँगी।
मोबाइल गद्दे पर पटककर शिव ने मुझे बाहों में भर लिया।
"देखो शादी के लिए मुझे फ्रेश लड़की चाहिए...ह्म्म्म याद आया एक थी नीलिमा।"
"शिव"
खिड़की से छनकर हल्की सी धूप चेहरों पर आ गई और हम दोनों के मन में जमी यादों की सीलन को गरमाहट मिल गई।

कहानी समाप्त

सज़ायाफ़्ता स्त्री

स्त्री हूँ मैं
स्वाभिमान की पराकाष्ठा तक जाती हूँ,
प्रेम करती हूँ वो भी प्रगाढ़
खुद को मारकर
तुम्हें अपने अंदर जीती हूँ,
मेरी देह का स्वाद इतना भी सस्ता नहीं
कि जब जरूरत हो तब याद आऊँ
शेष पल प्रेमहीन जियूँ,
क्यों मिल रही है मुझे
ये धिक्कार, वेदना और तड़प
.......…..…..………
वर्जित था अति प्रेम
इस खोखले पुरुष समाज में,
झुक जाता है उनका पुरुषत्व
प्रेम का मान देने में
...शायद तभी मैं बन गई हूँ
एक सज़ायाफ़्ता स्त्री...

दर्द हूँ फिर भी दुखता हूँ

आतंक से जन्मा दर्द हूँ मैं,
मेरे गर्भ में छिपी हैं
वहशियत की दास्तानें;
काल के कपाल पर
तांडव करता रहता हूँ
तभी तो उपजती हैं तारीखें
याद है न छः अगस्त का वो मनहूस सा दिन
और नौ अगस्त, भूल गए क्या
...कैसे भूलोगे
मनाई जाती है मेरी बरसी हर साल,
मेरे आग उगलते सीने पर
रख देते हो श्रद्धांजलि के फूल,
क्यों करते हो ये नाटक
जब मुझे रौंदते ही जाना है;
वाह सत्ता-लोलुपों, मौत के सौदागरों
क्यों खेलते हो विनाश का ये खेल,
उगाते हो अपने खेतों में
जैविक हथियारों की फसलें,
भावनाओं को दहनते
रसायनों के जंगल बनाते चले जा रहे,
मन को इतना छोटा कर लिया
कि सीमाओं पर मरने लगे,
घुसपैठिए न आ जाएं कहीं
सियाचिन ग्लेशियर पर चौकसी करने लगे,
न कुछ बन पड़े तो
दूरस्थ देशों से आका आते हैं बंदरबांट करने को;
तुम हथियार भी बनाते हो,
तुम मध्यस्थता भी कराते हो
फिर भी सीमा पर अपना लाल भेजते हो
और चैन से नहीं सो पाते हो;
कब समझोगे और रुकोगे
प्रेम के बीज चुनोगे
हथियारों की फसल लहलहाने से पहले;
समय के पन्ने पलटो महसूसो मुझे
कैसे मेरी छाती फटी थी
जब हिरोशिमा, नागासाकी की धरती हिली थी,
सहम गया था मैं भी
जब लाशों के चीथड़े उड़ रहे थे,
दर्द में कलपते जिस्म
समाने को धरती की छाती चीर रहे थे,
सियासी नग्नता उछल-उछलकर
मनहूसियत की सलामी ले रही थी,
मैं सिसक रहा था,
दहक रहा था
कि ये देखने से अच्छा हो
किसी तोप के मुँह पर बाँध दिया जाऊँ,
दर्द हूँ मैं तो क्या हुआ
फिर भी दुखता हूँ,
तुम तो एक इंसान ही हो,
मत दोहराओ इतिहास,
क्या रखा है मिसाइल में, तोपों में
हथियारों के ज़खीरों में
एक और नागासाकी
एक और हिरोशिमा
और मैं....?

Quote on Flood


Quote on Road

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यादों की सीलन पर ठहरी धूप: भाग- II

गतांक से आगे
ये वक़्त ऐसे लग रहा था जैसे प्रेम का एक सिरा छोड़कर दूसरा थाम लिया हो, मेरे और शिव के होने में बस मैं और शिव ही थे। हमारे बीच मैं और तुम की सीमा-रेखा गायब सी लगी जैसे इस कमरे में उदासी कहीं हवा की रस्सी का फंदा बनाकर झूल गई। कभी-कभी अंतिम साँसें भी तो अलग सा सुकून देकर जाती हैं। कहीं से भी ये अहसास नहीं हो रहा था कि हम नौ महीने के एक लंबे अंतराल के बाद मिल रहे थे। एक लंबी सी ख़ामोशी का लिहाफ़ ओढ़े हम दोनों एक-दूसरे की बाहों में ऐसे समाए थे कि मौत भी आ जाए तो साँसें टूटने का अफ़सोस न हो। शिव की गर्म साँसें प्रेम से थरथराता मेरा बदन सम्हाले हुए हैं। उसकी बाहों का घेरा जो सुख और सुरक्षा दे रहा है उसकी तुलना मैं चहचहाते हुए चिड़ियों के बच्चों से कर सकती हूँ। कितना शोर करते हैं जब उनका शिव उनसे दूर हो जाता है। शिव, हाँ यही तो नाम है प्रेम का और सुरक्षा का। उसके होने भर से ही तो खिल उठा है घर, चहक गया है घर का हर कोना...आँखें खोलकर मैंने शिव का चेहरा देखा। सुकून से बंद उसकी पलकें देखकर साहस ही न हुआ कि उसे छोड़कर कहीं जाऊँ...क्या मेरी तरह शिव भी आज नौ महीने बाद ज़िंदा हुआ है...
"...मालि"
"हुं"
"कहाँ हो तुम?"
"यहीं तो हूँ...अपने शिव के पास"
"फिर....तुम महसूस क्यों नहीं हो रही मुझे...मेरे अंदर...मालि पास होकर भी पास क्यों नहीं लग रही..." शिव क्या नींद में बड़बड़ा रहा है ये देखने के लिए मैं अचकचाकर उठ गई। अपनी कुहनी गद्दे पर टिकाकर उसका चेहरा देखने लगी..मुझे लगा शायद मेरा सोचना सही था तभी उसने मेरा हाथ खींचकर अपने ऊपर लगभग लिटा सा लिया। मैं अपने पैरों की उँगलियों से गद्दे पर पड़ी चादर सही करने लगी। असहाय सी पड़ी हूँ उसके ऊपर, अपने बदन का बोझ उसपर ऐसे डाल रखा है जैसे मुझसे सम्हलेगा ही नहीं। सामने दीवार पर टंगी बड़ी सी काले रंग की घड़ी में लगातर चलती हुई सुईं ही एक ऐसी थी जो पूरे कमरे के जीवन्त होने का आभास दे रही थी। मिनट की सुईं से कचनार के पेड़ पर चीं-चीं करते बच्चे दिन के आगे बढ़ने का बखान कर रहे  हैं और घंटे की सुईं सा सोया शिव...उफ्फ्फ कितना मासूम और प्यारा लग रहा..जी करता है पूरा इश्क़ उड़ेल दूँ इस पर अभी का अभी...
"ये क्या तुमने अब तक पहन रखा है इसे?" शिव का पैर मेरे टो रिंग पर पड़ गया था।
"और ये मंगलसूत्र भी..." मेरे गले पर हाथ फिराते हुए बोला।
"क्यों, तुम्हें क्या लगा था मैं..."
"क्या तुम इसे उतार नहीं सकती...अभी?
"ये क्या कह रहे हो शिव?"
"मेरे कहने पर भी नहीं..."
"ये मेरे ब्याहता होने की निशानी है।"
"यू आर अ वेल एजुकेटेड गर्ल..."
"सो व्हाट...एजुकेशन नेवर टीचेस अस टु बी अनकलचर्ड..."
"मालि...ट्राय टू अंडरस्टैंड"
"शिव...प्लीज"
"मालि..."
"शिव मैं उन सब बातों को जीते रहना चाहती हूँ। मैं प्रेम करते रहना चाहती हूँ।"
"तो ऐसा बोलो न, तुम्हें जीवन की नीरसता से प्रेम है..मन की उचाटता से प्रेम है...जो थम गया उसे लेकर कुछ नहीं हासिल होने वाला...यादें मन का कोना घेरती हैं...जो जगह प्रेम की होनी चाहिए..."
"लेकिन शिव जो वक़्त हम जी चुके होते हैं वो भुलाना इतना आसान नहीं होता..."
"ये कब बोला मैंने..भुलाओ मत उन्हें..उनसे सीखो...अक्सर ऐसा होता है न मालि कि हम खुद ही खुद को उलझाकर रह जाते हैं.. ये सोचकर कि अब कुछ भी अच्छा नहीं होगा, जो बीत गया बस वही ठीक था। अब ऐसे सोचो न...जब वो वक़्त हमारा प्रेजेंट था तो क्या हम सैटिसफाइड थे?"
"हाँ सही कह रहे हो..वैसे भी तुम सही ही कहते हो..पर परिस्थितियां भी जिम्मेदार होती हैं बहुत कुछ होते रहने के लिए?"
"ह्म्म्म मान लिया पर क्या तुम्हारे या हमारे सोचने भर से परिस्थितियां कुछ कॉम्पेनसेट करने आएंगी....नहीं न! फिर तो अपना ही नुकसान हुआ।"

कहानी जारी रहेगी...

तुम ही नहीं तो...

उन होठों से लगा चाय का प्याला
या हो मेरे भूखे पेट का निवाला
न हो वो तो सब स्वाद फ़ना है
दोस्त तुम ही नहीं तो रौनक कहाँ है?

मैं सोचूँ गर तुम्हें, तुम सामने मुस्कराओ
मुझे ईश से पहले तुम नज़र आओ
वार दी है मैंने तुझपर किताबों की दौलत
हो बन्दिगी में शामिल, ज़िंदगी बनाओ
मेरी हथेलियों पर तेरा नाम लिखा है
दोस्त तुम....

तुम्हारे नाम अपनी सुबह-शाम लिखूँगी
तुमपर ही अपनी उम्र तमाम लिखूँगी
देवालय हो मेरा घर या मदिरालय की राह लूँ
ईश से भी ऊपर तुम्हारा नाम लिखूँगी
तुमसे है मंदिर-मस्जिद, अजान-दुआ है
दोस्त तुम...

यादों की सीलन पर ठहरी धूप: भाग- I

जाने क्यों आज इतवार के दिन भी मन किया कि बिस्तर जल्दी छोड़ दूँ। चाय का पैन स्टोव पर रखा पर 'खुद बनाना खुद पीना' का खयाल मन में आते ही लाइटर अपनी जगह पर लटका रहने दिया। रेफ्रिजरेटर से नीम्बू निकालकर बॉल की तरह खेलते हुए बॉलकनी तक आ गई। 'क्या मुझे किसी का इंतज़ार है?' अपने आपसे एक बेतुका सा सवाल कर खुद में ही मुस्कराने लगी। कुछ देर बोगनविलिया के पौधों से आँख-मिचौली खेली फिर उंगली के इशारे से छुई-मुई का फैलना-सिमटना देखने लगी। जैसे कोई इंसान किसी अपने के ख्याल भर से ही खिल उठता है और उसकी गैरमौजूदगी सारे रंगों को समेटकर पीपल के पेड़ पर टाँग आती हो कि ये उसके वापिस आने का टोटका हो। धीरे-धीरे वो रंग फीके पड़ने लगते हैं और मन में एक मनुहार सी जागे कि कुछ तो हो ऐसा जिसे अच्छा कहा जाए। आखिर क्या चाहता है मन ये समझने की बेताबी अंदर इतनी बढ़ गयी कि अपने आपको अपनी ही बाहों में जकड़ लिया। मन की आँखों से अपने चेहरे के कोने पर फैली मुस्कान देखी और सच कहूँ तो बेपनाह तसल्ली सी लगी। अगर इस वक़्त पैन में चाय की पत्ती, चीनी और दूध के साथ उँगली से मिक्स कर दूँ तो बिना स्टोव ऑन किए ही चाय खौल जाए। इस तरह मेरे अंदर कुछ हिलोरें ले रहा था। वो हॉट ब्राउन सा मिक्सचर पीने की तलब इतनी तीब्र थी कि खुशबू नाक तक आ गयी। मन आसमान में घिरे बादलों में अटक गया। यूँ तो मैं ऑफ द ट्रैक रहने वाली लड़की नहीं पर कोई बात तो है जो मुझे स्टांस की पोजीशन में छोड़कर सूं-सूं करती हुई निकल रही है। खुद को किचन तक खींचकर लाना बड़ा ही मुश्किल काम था ऊपर से सामने पार्क में छितरे कचनार पर बैठी गौरैया अपने इशारों से रोक रही थी। उसे दो मिनट बोलकर मुड़ी ही थी कि सोसाइटी के गेट पर शिवांश दिख गया। बालों को लॉक करते हुए नाईट ड्रेस में ही दो फ्लोर सीढियां उतर आई तब तक शिवांश वहाँ तक आ गया। 
जाने रह-रह कर क्या कचोट रहा था भीतर कि शिवांश को इतना करीब पाते ही बदहवास सी होकर अपना बदन उसकी बाहों में झुला दिया। उसने मुझे कसकर जकड़ लिया। एक मीठी सुबह थी मेरे लिए और उसका आना किसी ख्वाब से कम नहीं। 
"बहुत सेक्सी लग रही हो इस ड्रेस में।" मैंने झेंपकर खुद को अलग किया। हम अपनी मंजिल पर आ गए। पाँच मिनट पहले के बेजान से कदम हवा से बातें करने लगे। चाय कब उबलकर ट्रे में सज गई, सोचने का मौका ही न मिला।
अब कमरे से अभागिन खामोशी जा चुकी थी। वृद्ध समय युवा सा हो चला है। कितने ही दिनों के बाद दो चाय के कप आपस में चीयर्स कर रहे हैं। मैं किसी का होना महसूस रही हूँ और वो मेरे चेहरे पर जाने क्या पढ़ रहा है। 
"सुनो, तुमने मुझे बताया था क्या?"
"क्या?"
"यही कि तुम आज इस वक़्त यहाँ आने वाले हो।"
"ह्म्म्म" 
उसका ह्म्म्म कहकर चुप हो जाना, बहुत प्यार आया इस अदा पर। 
"अच्छा तुम्हारे यहाँ कचनार खिलते हैं।" दूर लगे पेड़ पर नजर डालते हुए शिवांश बोला फिर सन शेड को छूती हुई खिड़कियों पर नजर डालते हुए जमीन पर पड़े गद्दों पर खुद को पसार लिया। मैं कमरे की तरफ फैले हुए गद्दे के एक छोर पर बैठी रही।
"एक अलग सा सुकून मिल रहा है आज। कितने ही दिनों के बाद लग रहा है कि सुबह नींद छोड़कर कुछ तो अच्छा हासिल हुआ।"
".....बहुत भागमभाग सी हो गई है ज़िन्दगी और भाग क्यों रहे हैं ये नहीं पता, मंजिल का भी कोई ठिकाना नहीं।"
"तुम शादी क्यों नहीं कर लेते?"
"बस तुम औरतें एक ही बात जानती हो।"
"हाँ तो इसमें गलत क्या बोला?"
"कुछ सही भी है?"
"ठीक है मत करो।" मैं उसके चेहरे पर उभरे भाव समझने की कोशिश करने लगी। एक बंजर सी खामोशी है, पछतावा है या फिर सच की टीस। कुछ नहीं पा सकी क्योंकि कभी-कभी ये बेहद घातक कैरेक्टर हो जाते हैं। ख़यालों से सरकते हुए मैं गद्दे के उसी छोर पर जा चुकी थी जहाँ शिवांश है, खिड़की के शीशे से सिर टिकाए बाहर जाने क्या निहार रहा शायद वही जो कुछ देर पहले मैं...
"मालि...." 
"बोलो न...." आज कितने ही दिन के बाद अपना नाम सुन रही हूँ। शिव ने मुझे कभी भी मेरे नाम से नहीं बुलाया..हमेशा मजाक उड़ाता..नीलिमा, ये भी कोई नाम होता है इससे अच्छा तो मालिनी कह दूँ... पहली बार सुनकर बहुत बुरा लगा था फिर उसने एक नया नाम दिया मुझे...मालि। प्यार हो गया मुझे इस नाम से और उसके उस अंदाज़ से....कॉलेज के पीछे वाले पार्क में एक बड़े से कचनार के पेड़ की छांव में मेरे पैरों को तकिया बनाकर लेटा था और मैं सकुचाई सी घंटे भर उसके बालों में उँगलियाँ फिराती रही थी। तभी उसने हौले से मुझे मेरे नए नाम से पुकारा था, 'मालि अब तो तुम्हारा फाइनल ईयर है, कुछ सोचा है आगे क्या करना है?' मैंने भी झट से जवाब दिया था...शादी और क्या...! 'तुम्हारी भी सोच न लड़कियों सी रहेगी।' बहुत अजीब सा लगा अगर लड़की हूँ तो ऑब्वियस सी बात है कि वही सोचूँगी।
"मालि कभी ये कचनार तुम्हें उन बीते हुए दिनों में नहीं ले जाता क्या जब हम घण्टों घास पर लेटकर निकाल दिया करते थे, कभी बात करते हुए तो कभी एक-दूसरे की ख़ामोशी को पढ़ते हुए, याद है तुम्हें जब लोगों को अपने साथ-साथ होने पर जेलसी होती थी और तब तो सब कोयला हो जाते थे जब हर बार फर्स्ट रैंक के लिए तुम्हारा नाम अनाउंस होता था..."
".....तुम्हारी आँखों में तिरती हुई ख़ामोशी मुझे जोकर तक बनने पर मजबूर कर देती थी। भले ही तुम भूल गई हो पर मैं तुम्हारे लंच का वो टेस्ट आज तक नहीं भूला" शिव पुरानी यादों की पोटली खोल चुका है, सारी बातें याद आ रही हैं कुछ ओरिजिनल हैं तो कुछ रफू की हुई। सही कह रहा है वो तब तो खुशियों की वो रफ़्तार थी कि समय को पर लग गए। कैसे प्रेम का बीज पड़ा, कब अंकुरित हुआ और एक नए पौधे का जन्म हो गया। 
पर कहीं कुछ सीलन भरी यादें भी तो हैं, दर्द की ऐसी दीवारें जहाँ स्नेह का गारा लगा ही नहीं। आज बहुत दिनों के बाद शिव का आना उस मोम के दर्द और डर को पिघला गया।
"क्या हुआ मालि, सुनो न, कुछ तो बोलो, नहीं कुछ तो शिकायत ही करो पर ऐसे आँखों को उदास मत करो, प्लीज्!" कचनार से नज़र हटाकर शिव मेरे चेहरे की सहमी सी हाँ की लकीर को पढ़ने लगे। मैं प्रेम और दर्द के बीच बैलेंस बनाने की कोशिश में हूँ और खुद को कमज़ोर भाँपते ही शिव के कंधे पर अपना सिर रख दिया। हर स्त्री का ये अधिकार होता है कि उसे उसके पुरुष की रक्षा का कवच मिले और जब वही स्त्री सच का सामना नहीं कर पाती तो सिर झुकाकर कंधे पर टिका देती है कि जैसी भी हूँ, दासी हूँ तुम्हारी और शरणागत भी रक्षा करो। शिव ने अपनी बाहें फैला दीं।
"कुछ मत बोलो! हम-दोनों के बीच जो समय ठहर गया था बह जाने दो उसे पर अब मुझे अपने करीब महसूस करो।"
"शिव"
"मालि"
एक बार फिर शिव के होने में मैं पिघल रही थी। 

जन्मदिवस की असीम शुभकामनाएं

जन्मदिन पर बधाई देना
बीमा की प्रीमियम भुगतान जैसा है
हर वर्ष नियत समय पर
भले ही किसी कार्यक्रम का
कोई काल-चक्र रुक जाए
पर स्नेह के इन पलों में असंतुलन न आए,
अक्षरों में न तो नेह ठहरता है
और न शब्दों में बधाई समाती है
फिर भी अपने और अपनों में भेद कराते
ये शब्द ही तो थाती हैं;
कुछ भी नहीं है इस अकिंचन के पास
कुछ शुभकामना के पल अशेष हैं,
ओस पर चमकती धूप मुबारक़ हो तुम्हें
बादलों की गोद में इंद्रधनुष का रूप
मुबारक़ हो तुम्हें
सागर सी गहराई, हिमालय सी ऊँचाई
क्षितिज की थाह जो दुनिया देख न पाई
प्रकृति की सुंदरता मुबारक़ हो तुम्हें
अग्नि की पावनता मुबारक़ हो तुम्हें
लम्हों की अनवरतता मुबारक़ हो तुम्हें
युगों की सत्ता मुबारक़ हो तुम्हें
परिस्थितियों की विषमता तुम्हें छू न पाएं
गांडीव, सुदर्शन बन रक्षा कवच मुस्कराएं
माथे पर रहे अक्षत, रोली का टीका
बारिशों का जल आचमन को आए,
समय की नब्ज थामकर
अंकित कर दो अपने हस्ताक्षर
उम्मीदों के आसमान पर
लिखते रहो स्वर्णाक्षर,
कर लो दुनिया मुट्ठी में कोई बड़ी बात नहीं
छोटे से मन की बस इतनी सी अभिलाषा है

ये किस्से भी न...


झूठ के पांव से चलते हैं किस्से
बहुत लंबी होती है इनकी उमर
हर मुसाफिरखाने पर रुकते हैं
करते ही हैं थोड़ी सी सरगोशी हवाओं में
फिर बांधकर पोटली निकल पड़ते हैं;

ये किस्से भी बड़े अजीब होते हैं
महसूस सच के बेहद करीब होते हैं
किसी के लिए शहद भरे हों जैसे
तो कहीं कड़वे करेले नसीब होते हैं,
तितलियों के पंखों में बँध जाते हैं
पक्षियों के ठौर पर इतराते हैं
विदेशी बन ठाठ से जाते हैं कभी
तो प्रवासी बन मन को लुभाते हैं कभी
उम्मीदों की गिरह से निकलते हैं
दुआ-ताबीज के बेहद करीब होते हैं
ये किस्से भी न..

ये चलने का मुहूरत नहीं देखते
और न ठहरने का ही समय
दबे पाँव महफ़िल की शान बनते हैं
ये मुखारबिन्दु से तभी निकलेंगे
जब होंठ हो हाथों से छुपे
एक मुंह से दूसरे कान का सफर तय करते हुए
न-न में भी महफ़िल की रौनकें बन जाते हैं
सच के कंधे पे अपनी मैराथन पूरी करके
उसे पार्थिव बना मुस्कराते हैं
अमीर होकर भी कितने गरीब होते हैं
ये किस्से तो बस....

राजा-रानी के किस्से
नाना-नानी के किस्से
दम तोड़ते रिश्तों के
हर घर की कहानी के किस्से
घर से गलियों से निकले
संसद के गलियारों के किस्से
हीरेजड़ित अमीरों के हो कभी या
टाट की पैबन्द से निकले गरीबों के हिस्से
ये किस्से अगर मर भी जाएं तो क्या हो?
मग़र ये बड़े बदनसीब होते हैं
ये किस्से तो उफ्फ्फ....

वेज तड़का मसालेदार होते हैं कभी
तो नॉनवेज भी निकलते हैं
साधारण शुरुआत होती है इनकी
परोसने तक गार्निश होकर मिलते हैं
पचते नहीं हैं किसी पेट में ये
तभी तो कानों से होकर मुँह से निकलते हैं
होतेे ही रहते मकानों के अंदर
गूँगी ये दीवारें बोलती कब हैं इनको
मग़र कान फैला ही देते हैं जग में
हे प्रभु, किस्से पच सकें वो ऑर्गन बना दो
या इंसानी नियत को हीलियम से भारी बना दो,
औरो की गिराने की चाहत में नंगा हुआ जा रहा
मुफ़लिसी, दर्द के ये सबसे करीब होते हैं
ये किस्से भी छि ...बड़े अजीब होते हैं

जीजी को ताई से लड़वा दें
आंखों के पहरे को नीम्बू मिर्च लटका दें
सच के गर्दन पे तलवार रखकर
पड़ोसी की बीवी को लुगाई बना दें
बेटी के ब्याह का न्योता पिता को भेजकर
आहों की भी जगहंसाई करा दें,
अपनी न किसी और की सही
श्वसुर के दामाद को ओलम्पिक में मेडल दिला दें
कहीं हो न जाए उलटफेर इतनी
काश कि शोक सभा में खुद को स्वर्गीय बना दें,
पर कहाँ सच के इतने नसीब होते हैं
ये किस्से भी न इतने ही अजीब होते हैं।

तब भी हम होंगे...


PICTURE CREDIT:SHUTTERSTOCK

हमारे बाद हम...
क्या कहा
कहीं नहीं होंगे????
धत्त्तत..
तभी तो हम होंगे
जब भी खोलोगे यादों को
जंग लगी चूलें चरमराएँगी,
तुम उस बहँगी में लटके मुस्कराओगे,
न्यूटन की बातों में कितने टन का वजन था
हमें क्या पता
मगर बात पते की और वज़नी थी,
वो जो गुरुत्व होता है न
सारा का सारा आत्मा में होता है
ये तो धरती की छाती है
जो हमें रोके रखती है अपने ऊपर;
मन को भी न, समझो इसी तरह
चेहरे तो बहुतेरे देखे जीवन भर
हमसे अच्छे और सुंदर भी
पर आकर्षण तो मन का था,
और तब तुम
समझौते की तुला में
हमारा अपनापन न तोल पाओगे
कि हर आत्मा एक दिन निःश्वास होती है;
तुम्हारी चीखें घुट रही होंगी,
तुम तो विलाप भी न कर पाओगे
हमारी मृतप्राय काया पर,
जब हमें नहलाया जा रहा होगा
कफ़नाने को
तुम चिल्लाओगे...
'बहुत डरती है वो ठंडे पानी से..'
फिर हमारी स्थूल सी देह
बांस की डोली में लिटाओगे
शोक कम करने को
राम-नाम....बोलते जाओगे,
करने से पहले हमको अग्नि में समर्पित
तुम वो कड़वाहटें जलाओगे
जो हमको अक्सर रुलाती थीं,
कुछ हमारी गलतियाँ थीं
बाकी तुम्हारी ज़िद
जो आज बोल रही हैं,
हम कल तक एक हस्ताक्षर थे
आज दस्तावेज हो गए,
काश, कि साँसें रहते 
जीवन जी लिया होता!

मेरी पहली पुस्तक

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