बेटी: किलकारी से महावर तक



क्षितिज पर ललछौं आभा से भी पहले पसरी

मेरे जीवन पर सलिल हृदय रक्ताभ ललाट

स्वेद को मेरी पीड़ा को किलकारियों में भुलाती

बूँद-बूँद समेटती रही मेरे मन का उचाट

वर्तिका, तितली, परागकण तो कभी छुई मुई

सदुपाय, आलम्बन तो कभी स्वत्त्व बन मिली

मैं अरण्य, वन, कानन घूमा वो तोतली मिश्री की डली

कितने दिन के मैं भँवर चला उसे देख मेरी हर शाम ढ़ली

उसका प्रदीप्य और वो मुख मशाल

बना कभी मेरा गांडीव तो कभी शंखनाद

उसके चित्रों में मिलते सुपरमैन मूँछों वाले

उसके कल्पनाओं की सिम्फ़नी दिखाती मेरे रुप मतवाले

उसकी तरुणाई की छम छम का असर बढ़ा

मेरे कन्धे पर सर रख, गोदी के झूले में

सोने वाली का हाथ, मुझे अपने कंधे पर मिला

माँ, दादी माँ, नानी माँ तो कभी परनानी

मेरी अल्फ़ा, बीटा और अनसुलझी प्रमेय की दीवानी


ठुनक जाती है जब भी कहता हूँ, कोई और ठौर है तेरा

बिठाना है तुझे नाव सपनों जिस संग, सिरमौर है तेरा

छाप तेरे महावर की होगी, लगे जब अंग प्रियवर

खोज नहीं पाऊँ मैं भी, नाम मुझ सा अनल अक्षर

कैसे कहूँ बेटी हृदय में हूक सी समा जाती है

आँगन घर का हो या मन का बस तू ही सुहाती है.

आग-- द हीरो ऑफ अनहीरोइक थॉट्स: १



अब से पहले भी कई बार लोगों की आँखों के सामने प्रतिभा आयी होगी और समकालीन कहकर नकार दिया गया होगा. कभी झिझक तो कभी ईर्ष्या के चलते. मेरे साथ भी दो बार ऐसा हुआ. पहली बार मुझमें समझ अधकचरी थी तो अपने मन की भावनाओं को शब्द नहीं पहना पायी. इस बार कोई भी मानसिक संघर्ष नहीं बस ठान लिया कि एक ऐसी साहित्यिक प्रतिभा से आप सभी का सामना कराना है जो सम्भवतः स्वयं को भी कम ही जान पाये. "आग-- द हीरो ऑफ अनहीरोइक थॉट्स". जी हाँ जब दुनिया माइक पकड़ने की होड़ में भाग रही, लोग मंच के लिए एक-दूसरे का गला काट प्रतिस्पर्धा कर रहे ऐसे में एक लेखक जो अपने हिस्से के टिकट भी साथी लेखकों में बाँटने में व्यस्त हैं. उन्हें इस बात की चिंता नहीं कि उनकी कलम को सम्मान मिलेगा भी या नहीं पर मित्रों (अमूमन सभी मित्र बन जाते हैं. किसी तरह का भेद मस्तिष्क में पनपा ही नहीं) के साथ किंचित भी बुरा न हो! अगर आप माननीय लेखक अनूप कमल अग्रवाल जी के साथ बैठकर चाय पर वार्तालाप भी कर लें तो आप अनुमान नहीं लगा सकते कि आप लेखक "आग" के साथ बैठे हैं. जितनी प्रतिभा अंतर में छुपी है उससे अधिक स्वयं को छुपाने का हुनर भी है. "मैं कुछ भी नहीं हूँ" सूत्र वाक्य है, जो माननीय की कलम के ज़रिए प्रशंसकों से उनका दिल का रिश्ता जोड़ता है. किताब छपवाने की बात पर हमेशा ही हँसकर टाल जाते हैं…"मैं इस योग्य नहीं. आप बेहतरीन लेखकों को पढ़िए." एक बार मैंने भी ये सच मान लिया और बेहतरीन लेखक की तलाश में निकल पड़ी. आगे की कहानी मेरी ही जबानी सुनिये. लिखने को तो पूरी किताबें हैं पर मैं स्वयं को भी इस योग्य नहीं मानती. इसे दो भागों में प्रस्तुत करुँगी. साथ बने रहियेगा.


घड़ी में यही कोई सवा बारह बज रहा था. यही वो वक़्त होता है अक्सर जब शाम, रात के गुलाबी पैरहन में आ जाती है और मन के अँधेरों में यादों की हज़ारों दस्तक एक साथ उभरकर आती हैं. ऐसे में जब कुछ शब्द मन की टीस पर मरहम की तरह लगें तो रोम-रोम अनायास ही बोल उठता है. इसी तरह की वो शाम थी कुछ...बस यही तो चाहिए था मुझे. बात २०१७ की है जब एक राइटिंग एप से परिचय हुआ. ये परिचय तब तक निर्जीव सा चला जब तक "आग" से नहीं मिली. मैं लिखती थी लोग वाह-वाह करते थे, लोग लिखते थे, मैं वाह-वाह करती. घर, दफ़्तर, काम से जितना समय बचता उसमें से थोड़ा समय इसके लिए निकाल लेती. कभी कुछ अच्छा न लगता तो अनइंस्टाल भी कर देती. फिर उस रोज स्क्रॉल करते हुए एक नाम आँखों में चढ़ गया. पढ़ते ही मेरा रोम-रोम पुलकित हो गया जैसे इकतारे पर गाने के लिए मीरा को भजन मिल गए हों. जितना पढ़ा बहुत था, मुझे शब्द-शब्द दीवाना बना देने को. कभी-कभी मैं ख़ुद के अंदर इतना ही खो जाती हूँ कि कई दिन भी लग जाएं पर बाहर न आ सकूँ. इस बार की बात ही कुछ अलग रही कि मुझे मेरे ही मन से होकर एक रास्ता मिला और शायद यही कारण था कि मैं बेखटके चलती रही. मुझे बहुत ही सहज अनुभव हो रहा था. किसी का हाथ थामकर आगे बढ़ना मुश्क़िल होता है. कई बार हम झिझक के चलते चाहकर भी नहीं जा पाते पर मेरा हाथ इस बार कविता ने थामा था. बिंदास आगे बढ़ने लगी मैं. जीवन के हर रुप, रंग, गंध से मैं सराबोर होने लगी यहाँ तक कि स्पर्श से भी. मुझे लगने लग गया था कि कविता मुझे छू भी सकती है. शब्द मेरी साँसों के साथी हो गए. तब तक आग का प्रचुर मात्रा में काव्य वहाँ उपलब्ध हो गया था. इतना सा भी समय होता मैं स्क्रॉल करती. शब्दों में सोती, जागती, डूबती और उतराती रही. जाने कितने ही रहस्यों से दो-चार होती रही. कप में पड़ी चाय ठंडी हो जाती, खाने की प्लेट मुझे मुँह चिढ़ाती कि मैं कविताओं से ही पेट भर लूँ अपना. हर रात नींद से दो मिनट-दो मिनट कहते हुए कितनी ही रातें नींद से अनछुई रह जातीं. पर मैं मन भरकर पढ़ने को जी-जान से लगी रहती. ये और बात है कि मन अब तक नहीं भरा. मुझे गर्व है कि मैं आग के समकालीन हूँ. मुझे मन के घट को शब्द रुपी अमृत से भरने को जीवनपर्यंत अवसर मिलते रहेंगे.


जब बात लिखा हुआ कुछ पसन्द करने की आती है तो मेरी समझ रुठ जाती है. मुझे तो एक-एक शब्द इतना पसन्द है कुछ भी छोड़ने का मन नहीं करता फिर भी आपका परिचय कराना चाहूँगी कुछ एक कविताओं से. इस श्रेणी में पहली दो पंक्तियाँ शून्य को समर्पित. जीवन का प्रारम्भ और अंत दोनों ही शून्य हैं और इन्हीं के मध्य चलती रहती हैं अनन्त संख्याएँ…




स्वयं को शून्य करके किस तरह आगे बढ़ा जा सकता है अपनी रास्ता बनाते हुए. इसकी तुलना नदी के किनारों से है. जब किनारे चल पड़ते हैं नदी के साथ तो सब कुछ टूट रहा होता है उनके भीतर. ख़त्म होता रहता है उनका अस्तित्व पर नदी में किनारे विलीन होकर भी अलग नहीं होते.




जीवन के दर्शन से आगे बढ़ने पर मन साहित्य की नगरी में डूब सा जाता है. एक ऐसी डूब जिसमें कितनी ही आगे बढ़ जायें ऊब नहीं होनी. सत्य यदि दर्शन है तो यौवन भी है. जीवन खोज है तो एक मधुवन भी है...इस पर आग के शहद से मीठे चटख सुर्ख शब्द हैं. आसमान की नील सरगोशियां, धरा की धानी मस्तियाँ और ये शब्दों का प्राणवायु आभामंडल...



समकालीन कोई भी विषय हो आपकी कलम से अछूता नहीं. हर स्थिति की तरह कोविड पर भी कलम पुष्ट होकर चली. रचनाओं के खजाने में बहुत सी कृतियाँ हैं पर किन्हीं कारणों से अपनी सबसे पसंदीदा नहीं चिपका पा रही हूँ. आइये लॉकडाउन के दौरान जीवन में आयी सबसे असहज परिस्थितियों में से एक पर अदना सी नजर डालते हैं...



बहुत ही सुंदर तुकांत रचनाएँ लिखने में भी महारत हासिल है. शब्दों का चयन और भावों का उद्वेग ज़बरदस्त दिखता है. यों लगता है जैसे मन के भीतर से एक नदी उमड़ चली है…




एक अन्य ऐसी ही कृति जिसमें बेहतरीन ढ़ंग से रात का मानवीयकरण किया गया है...


किताब के लिए बहुत ही सरल और सधे हुए शब्दों में जब आप लिखते हैं तो अंत के पहले अनुमान लगाना ही कठिन हो जाता है कि सच में ये है क्या...



विविधता पूँजी है आपकी. जब बात चलती है आग की लघुकथाओं की, तो आँखों के सामने कौंधती हैं महज दो-चार पंक्तियाँ या फिर चंद शब्द. भावों की इतनी सक्षमता कि शब्दों की जरुरत ही न पड़े.एक से बढ़कर एक लघुकथाओं का संग्रह एवं बड़ी कहानियाँ भी. शब्दों में ग़र आग है तो कलम की स्याही में हर रंग. ये और बात है कि आपने अपने चारों ओर एक दायरा बनाया. जहाँ आज के समय में सभी की किताबें छपकर हाथ में आ रहीं वहीं आप प्रचार-प्रसार से स्वयं को दूर रखते. 


एक बेशऊर प्रशंसिका का पेचो खम कहिये इसे या फिर अहसास की चाशनी में तरबतर एक हलफ़नामा. एक ऐसा रुमान जो कविता में डूबकर बस कवितामय हो गया. जिस भी तरह आप इसे स्वीकार करेंगे नज़रिया आपका. अभी इतना ही दूसरे भाग में परिचय होगा इससे इतर व्यक्तित्व का. बहुत प्रयासरत हूँ कि सीधे, सच्चे और सपाट शब्दों में लिख सकूँ. किसी भी त्रुटि के लिए लेखक महोदय से क्षमाप्रार्थी हूँ.



लव एक्सटिंक्ट

 


मुझे यक़ीन है

एक दिन

तुम अपने

बच्चों के बच्चों को

सुना रहे होगे

अपनी प्रेम-कहानी

और वो कौतूहल वश पूछ बैठेंगे

"दादू ये प्रेम क्या होता?"

और तुम हँसकर

बात टालने की बजाय

उन्हें समझाओगे,

"ये प्रेम ज्वर नहीं

देह का सामान्य ताप

हुआ करता था

जिन्हें पढ़ सकते थे

केवल तापमापी यंत्र

….."

मुझे ये भी यक़ीन है कि

इसके आगे तुम

कुछ नहीं बोल पाओगे

तुम्हें चाहिए होगा

अपने आँसू पीने को

मेरी आँखों का पानी

कल आज और आने वाले कल में

यही तो शेष रह जायेगा.


प्रेम बचाकर रखेगा

अपना अस्तित्व

डायनासोर के मानिंद

जिसे हम में से किसी ने नहीं देखा

पर कहा जाता रहेगा

युगों-युगों तक

सबसे बड़ा प्राणी.


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कैसे कहें प्रेम है तुमसे!


बहुत प्यार करने लगे हैं हम तुम्हें

जाने कितने दिनों से दिल में

चल रहा है बहुत कुछ

और कोई बात नहीं होती

कोई और होता भी नहीं वहाँ

इस तरह रहने लगे हो हमारे दिल में

कि हमें भी रहने नहीं देते हो अपने साथ

किए रहते हो अलग-थलग जैसे

हवा की आहट पर झाड़ देता हो

कोई पत्ता अपनी देह की धूल

बात-बात पर कर देते हो हमें अपनी

उन मुस्कुराहटों से विस्थापित

जिनके इंतज़ार में गीली रहती हैं कोरें

तुम्हारी सवा किलो की यादें

और एक मन का दर्द…

कभी रुको न हमारे सामने घड़ी दो घड़ी

तो देख लें मन भरकर तुम्हें

चूम लें तुम्हारे होने को

कभी कहो न कुछ…

क्यों कहें हम, कितना प्यार है तुमसे

खोल तो दी है हमने अपनी

इच्छाओं की सीमा

विचरण कर रहा है प्रेमसूय अश्व

हमें स्वीकार है तुम्हारी सत्ता

हम निहत्थे ही आयेंगे तुमसे परास्त होने

एक बार चलाओ अपना प्रेम शस्त्र.


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मेरी पहली पुस्तक

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