आ जाए अगर गुस्सा मुझ पर

अब आ जाये अगर गुस्सा मुझ पर

तो दूर न कर देना ख़ुद से

तो पहले ही जता देना मुझसे

मैं चूम ललाट मना लूँगी

रख अधरों पर तुम्हारे तर्जनी अपनी

अंगुष्ठ से ठोढ़ी सहला दूँगी.


अब आ जाये अग़र गुस्सा मुझ पर

जो चाहे मुझको तुम कह लेना

दिल हल्का अपना कर लेना

आवाज़ जो तुमको देती रहूँ

कुछ मत कहना गुस्सा रहना

मैं रात धरा के शानों पर 

रोते हुए बिता दूँगी

जब आऊँ अगली सुबह तुम तक

तुम चाय का प्याला उठा लेना

कुछ मत कहना चुप ही रहना

बस लिखते जाना, पढ़ने देना.


अब आ जाये अग़र गुस्सा मुझ पर

मेरे हक़ की स्याही और को तुम

न देना, इतना सुन लेना

दो-चार रोज को मौन भला

महीनों मातम में न बदल देना

गले लगा लेना हमको

या गला दबा देना मेरा

पर दर्द से अपने न जुदा करना

मुझे कभी-कभी तो मिला करना

अब आ जाये अग़र गुस्सा मुझपे

बस गुस्सा ही किया करना

तुम्हारा रुठना

 क्यों रुठ गयी हैं बादलों से बूँदें

कहीं समन्दर ने इनसे नाता तो नहीं तोड़ा होगा

जैसे मैं होती जा रही हूँ दूर तुमसे

हर साँस पर अब साँस भी तो नहीं आती

और यादें हैं कि ज़िबह किए देती


जैसे छूट जाती है पतंग अपनी डोर से


नील गगन की रानी आ गिरती है जमीन

लुटी, कटी, नुची, सौ ज़ख़्म लिए

वो भी हाथ नहीं बढ़ाता उठाने को

जिसने लड़ाया पेंच, जितनी भी आए खरोंच


जैसे पार्थिव हो जाता है कोई आयुष्मान


तबाही मचा शाँत हुआ चक्रवात

सब कुछ बहता रहता है बिना नीर

चलता है मन-प्रपात

बस इसी तरह छोड़ते हो तुम मुझे हर बार.

प्रेम का एंटासिड

 


तुम शब्दों में इज़ाफ़ा भी तो न लिख गए...

एक वैराग से होते जा रहे हो

जैसे ख़ुद में ही एक बड़ा सा शून्य

कहते तो हो कोई फ़र्क नहीं पड़ता

मग़र जो दिख रहा वो क्या है?

अपने दाल चावल में थोड़ा सलाद क्या बढ़ा

तुम उँगलियाँ चाटने लगे थे

और अब....

एंटासिड तकिए के नीचे रख कर सोना

ये जो तुम्हारा सर दर्द है न

ये ज़्यादा सोचने का नतीजा है बस

उठते ही खा लेना एक गोली

हम जी रहे हैं न अपने हिस्से का माइग्रेन

बुरे जो ठहरे...

तुम...तुम तो प्यार हो बस

धड़कन से पढ़ा गया

आँखों में सहेजा गया,

रोज़ तुम्हारी कविता की ख़ुराक लेकर

ऐसे सोते हैं

मानो ज़मींदोज़ भी हो जाएं

तो जन्नत मिले

तुम्हारे शब्दों के अमृत वाली...

हमें पता है इसे पढ़कर तुम

सूखे होठों पर अपनी जीभ फिराओगे

काश के हम आज तुम्हें पिला सकते

एक चाय...सुबह की पहली वाली

हम साथ नहीं दे पाएँगे मग़र तुम्हारा

जबसे मायका छूटा

चाय का स्वाद हमसे रूठा

...एक दिन आएँगे न ससुराल से वापस

और तुम्हारे गले लगकर पूछेंगे,

"क्या तुमने अब तक...?"

चलो छोड़ो अभी

बहुत रुलाते हो तुम हमको!

इश्क़ के मसीहा

बहुत बेपरवाह सी लड़की थी वो उसे पढ़ना लिखना तो बिल्कुल भी नहीं भाता था. हां यही कोई 14-15 की उम्र रही होगी. अपनी बिरादरी के लड़के से प्यार हो गया था उसे. अपनी बिरादरी हां सही समझे आप बिरादरी उसकी अपनी थी अगर हम सब बाहर के लोग देखें तो. मगर वो शिया थी और लड़का सुन्नी. कहते हैं इश्क छुपाए नहीं छुपता उसका भी नहीं छुप पाया था. पहले भनक लगी भी तो किसको बाहर वालों को और वो ठहरे खासम ख़ास. नमक मिर्च लगाकर घर वालों को खूब भड़काया गया. वह मन से इतनी निश्चल थी कि मेरे बहुत करीब आ गई थी. सुबह शाम किसी भी वक्त अक्सर आ जाया करती थी और अपने साथ लाती अधपके इश्क के किस्से.

एक दिन मेरा भी दिल पिघला और मैंने उसकी अम्मी से बात चलाई. 'लाहौल विला कूवत, क्या तमाशा है कैसे हम सुन्नी के घर अपनी बेटी दे दें.' मैंने उस वक्त बात को वही ख़त्म करना ठीक समझा. जाते हुए अम्मी बस इतना कहकर गईं, अगर तुम सुन्नी भी होतीं तो हम अपने बेटे के लिए तुम्हारा हाथ जरुर मांगते.

मुझे पता था वह परिवार मुझे बहुत पसंद करता है. अम्मी की इस बात से मेरे दिल में उम्मीद तो जगी थी कि हो न हो आगे चलकर इस रिश्ते में कुछ गुंजाइश है. फिर तकदीर का कुचक्र शुरू हुआ और लड़के से मिलने पर पाबंदी लगा दी गई. मगर इश्क कब रुकने वाला था.

अब भी याद करती हूं वह दिन जब उस लड़के ने लड़की के ठीक पास वाला घर किराए पर ले लिया और पहली ही रात अपने घर से लड़की के घर में एक होल बना लिया. एक-एक लम्हे की गवाह थी मैं. लड़के ने लड़की को एक बहुत प्यारी सी पेंटिंग गिफ्ट की थी जिसे पहुंचाने का काम मेरा था. वह पेंटिंग मेरे नाम से उसी जगह फिक्स हो गई जहां वो घर वालों के सोते ही घंटों बैठी रहती थी. इश्क़ उरूज़ पर था. कुछ भी रुका नहीं और बंदिशों में प्यार करने का ख़ूब मजा आया.

इस बात को गुज़रे बीस साल हो गए. वो दो और उनका प्यारा आतिफ़ आज भी वजह बनते हैं मेरे मुस्कराने की.

मेरी पहली पुस्तक

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