इस प्रेम कहानी से प्रेरित मेरी कविता "प्रेमी की पत्नी के नाम" ९०,००० से अधिक हिट्स के साथ पहले पायदान पर आ गयी है. जो "ओ लड़कियों" के ९९,२०० हिट्स का रिकॉर्ड तोड़ने वाली है.
"भारतेन्दु समग्र' में चित्रावली के अंतर्गत पृष्ठ १११८ पर मल्लिका के साथ भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का जो चित्र छपा है, उस पर चित्र परिचय लगा है भारतेन्दु हरिश्चंद्र और उनकी प्रेयसी मल्लिका. (चित्र संकलन स्रोत)
मेवाड़ यात्रा पर निकले भारतेन्दु बाबू हरिश्चंद्र ने अपने भाई को मल्लिका की चिंता करते हुए जो पत्र लिखा है, उससे यह बात तो साबित ही होती है कि मल्लिका से उनके संबंधों की बात उनके घरवालों की जानकारी में रही है. भारतेन्दु बाबू हरिश्चंद्र के चरित्र पर उँगलियाँ उठती रही होंगी लेकिन उन्होंने उसे भी छुपाया नहीं है.
जहाँ कहीं माधवी और मल्लिका आमने-सामने हई हैं, वहाँ कुछ डाह और ईर्ष्या भी दिखाई देती है लेकिन क्योंकि भारतेन्दु बाबू हरिश्चंद्र की नज़र में मल्लिका का स्थान सदैव ऊँचा रहा है लगभग उनकी दूसरी पत्नी जैसा इसलिए मल्लिका सब कुछ सहने को तैयार दिखाई गई हैं. कुछ ऐसा ही तनाव मल्लिका को लेकर भारतेन्दु हरिश्चंद्र की धर्मपत्नी मन्नो देवी के मन में रहा है क्योंकि उन्हें भी लगता रहा है कि भारतेन्दु बाबू हरिश्चंद्र एक बंगालन विधवा के जादू में पड़े रहते हैं लेकिन अंत तक जाते-जाते मन्नो देवी का मन भी कुछ बदला हुआ-सा दिखता है. भारतेन्दु बाबू हरिश्चंद्र के देहावसान के तेरहवें दिन पूरे परिवार के समक्ष भरे मन से मल्लिका को संबोधित करते हुए मन्नो देवी कहती हैं "ये मल्लिका एक बहुत ही सीधी-सच्ची, समझदार और भलीमानस है. मैंने आज तक अपने स्वामी के आस पास बहुत स्त्रियों को देखा समाज में रिश्तेदारी में बहुत से ढंग की स्त्रियाँ देखीं पर मल्लिका जैसी मुझको देखने में नहीं आई. भैया गोकुल, इनकी जो अंतिम इच्छा थी सो थी, मेरी भी यही चाह है, इनकी कंपनी, पांडुलिपियाँ, पुस्तकों का अधिकार और हर माह पचास रूपए की रकम मल्लिका के पास जाये. परिवार में इनका आवागमन और सम्मान उनकी दूसरी पत्नी की तरह हो.
बावजूद इसके मल्लिका को लगता है जब हरिश्चंद्र जी ही नहीं रहे, फिर काशी में क्या रुकना और वह जैसे विधवा होकर काशी आई थी, वैसे ही दुबारा विधवा होकर वृन्दावन चली गयीं.
यह सच है, कि मल्लिका अपने पीछे स्थायी महत्त्व की साहित्यिक थाती छोड़ गयीं. उनकी मौलिकता का विस्तार या सीमाएं जो भी हों, वे निश्चित रूप से आधुनिक हिंदी की पहली स्त्री उपन्यासकार के सम्मान की हक़दार हैं और ऐसी पहली लेखिका होने के सम्मान की भी, जिन्होंने स्त्री के भाग्य को, उसके भावनात्मक अस्तित्व को, उसके नज़रिये को अपने लेखन का केंद्र बनाया और शायद ऐसी पहली लेखिका होने के सम्मान की भी, जिसने स्त्रियों के दुर्भाग्य के चित्रण में चुनौती और अवज्ञा का एक सुर जोड़ा. मल्लिका को अपने जीवन में विधिपूर्वक अपनाया था. वे चंद्रिका के नाम से लिखती थीं, जो कि हरिश्चंद्र के नाम के आख़िरी हिस्से से ही व्युत्पन्न था. उनके नाम पर ही हरिश्चंद्र ने अपनी पहली पत्रिका का नाम हरिश्चंद्र मैगजीन से बदलकर ‘हरिश्चंद्र चंद्रिका’ कर दिया था. लिहाज़ा, यह अनुमान लगाना शायद ग़लत न होगा कि वे इस उद्यम में, और साथ ही अनेक ऐसे उद्यमों में भारतेन्दु की सहयोगी थीं. भारतेन्दु की अनेक साहित्यिक रचनाओं में उनके नाम को लेकर शब्द-क्रीड़ा की गई है. अपनी कविताओं के संग्रह प्रेम तरंग (1877) में भारतेन्दु ने छियालीस बंगाली पदों को शामिल किया जो मल्लिका द्वारा रचे गए थे. ये प्रेम कविताएं हैं, जिनमें से कुछ कविताएं कृष्ण को संबोधित हैं और अक्सर रचनाकार के नाम के तौर पर इनमें ‘चंद्रिका’ का उल्लेख है हालांकि कहीं-कहीं हरिश्चंद्र का नाम भी है.
औरतों के प्रति जब कभी पुरानी धारणा की मुठभेड़ आधुनिकता से होती है, तो भारतीय मन-मनुष्य और समाज को पुरुषार्थ के उजाले में देखने-दिखाने के लिए मुड़ जाता है. पर हमारी परंपरा में पुरुषार्थ की साधना वही कर सकता है, जो स्वतंत्र हो. हिंदी साहित्य के शेक्सपीयर कहे जाने वाले प्रसिद्ध साहित्यकार भारतेंदु हरिश्चंद्र की ज़िंदगी में मल्लिका अकेली स्त्री नहीं थीं, जिनके साथ उनके संबंध थे, लेकिन मल्लिका का उनके जीवन में विशेष स्थान था.
यह सच है कि एक लेखिका की जीवन-कथा उसके लेखन के बराबर महत्त्वपूर्ण हो जाती है. उसका अपना वजूद, चाहे वह कितना भी धुँधला क्यों न हो. एक तरह से उसके लेखन का ही हिस्सा बन जाता है. उसकी अपनी ख़ुद की कहानी उसके कथा-लेखन में कहीं न कहीं आकर बैठ ही जाती है और उसकी कृतियों के विषय सामाजिक व्यवस्था की कगार पर उसके अपने संकटपूर्ण अस्तित्व को मार्मिक तरीके से गौरतलब बना देते हैं. जब हम हिंदी के सुप्रसिद्ध साहित्यकार भारतेंदु हरिश्चंद्र की ज़िंदगी के बारे में बात करते हैं, तो उनकी प्रेमिका मल्लिका के नाम के पन्ने अपने आप खुलते चले जाते हैं.
हरिश्चंद्र की मृत्यु से पहले मल्लिका ठठेर बाज़ार के भिखारीदास लेन में हरिश्चंद्र परिवार के मुख्य घर के दक्षिण में बने हुए एक घर में आराम से रहती थीं. वह घर हरिश्चंद्र के अपने भव्य भवन से एक पुल द्वारा जुड़ा हुआ था. हरिश्चंद्र की मृत्यु के समय वे उनकी मृत्यु-शय्या के पास मौजूद थीं और आगे के कुछ वर्ष बनारस में भी रहीं. लेकिन उसके बाद वह ओझल हो जाती हैं और यह संभव है कि उन्होंने जल्द ही लिखना छोड़ दिया होगा… मुमकिन है, उन्होंने हरिश्चंद्र के गुज़रने के बाद विधवा का जीवन जिया हो, और मुमकिन है, वे वृंदावन चली गई हों… जो कि परित्यक्ता और अभागी विधवाओं का अंतिम शरण माना जाता है. मल्लिका का अपना दुर्भाग्य संभवत: उसी व्यथा को प्रतिबिंबित करता है जिसका दर्दनाक चित्रण उन्होंने ‘सौन्दर्यमयी’ जैसों के सन्दर्भ में किया था.
मल्लिका का अपना अपेक्षाकृत आश्रित जीवन 3 जनवरी, 1885 को हरिश्चंद्र के गुज़रने के साथ ही समाप्त हो गया. हरिश्चंद्र ने अपनी वसीयत में कहा था कि माधवी (उनकी एक और रक्षिता) और मल्लिका को हरिश्चंद्र के हिस्से की संपत्ति बेचकर वित्तीय मदद की जाए. हरिश्चंद्र को मल्लिका से ‘यथार्थ स्नेह’ था.
*अधिक जानकारी के लिए मनीषा कुलश्रेष्ठ जी की उपन्यास "मल्लिका" पढ़ी जा सकती है.