जाड़ों की दोस्त मूँगफली और
मूंगफली का दोस्त पीनट बटर
अगर करते हो ज्यादा चटर पटर
तो आजमा कर देखो एक बार
*पीनट बटर*
To explore the words.... I am a simple but unique imaginative person cum personality. Love to talk to others who need me. No synonym for life and love are available in my dictionary. I try to feel the breath of nature at the very own moment when alive. Death is unavailable in this universe because we grave only body not our soul. It is eternal. abhi.abhilasha86@gmail.com... You may reach to me anytime.
जाड़ों की दोस्त मूँगफली और
मूंगफली का दोस्त पीनट बटर
अगर करते हो ज्यादा चटर पटर
तो आजमा कर देखो एक बार
*पीनट बटर*
शाम की लहर-लहर
मन्द सी डगर-डगर
कुछ अनछुए अहसास हैं
जो ख़ास हैं, वही पास है
साल इक सिमट गया
याद बन लिपट गया
थपकियाँ हैं उन पलों की
सुरमयी सुर हैं बेकलों की
व्हाट्स एप की विश मिली
और कार्ड्स की छुअन उड़ी
बनारस के घाट पर
मोक्ष की फिसलन से परे
ऐ ज़िन्दगी तेरे यहाँ
कितने सवाल अधूरे खड़े
मैं रोज़ उगता हूँ, मैं रोज बीतता हूँ
भागने की होड़ में सुबह जीतता हूँ
दोस्तों संग चाय की टपरी, उम्मीद के पल
जो कल था गुज़रा, वही तो आएगा कल
सोचो मत आगे बढ़ो, तुम जी भर लड़ो
पूरे करने को सपने, अपने आज से जुड़ो
यारों के साथ गॉसिप बूढ़ी न हो जाये
उम्र के उतार में भी दिल जवाँ कहलाये
कैलेंडर पर यूँ बदलते हैं नम्बर
जैसे पतंग डोर छोड़ती है
भरी दोपहर में धूप जैसे
खड़ी मुँडेर मोड़ती है
साल दर साल जाने का, जश्न मनाने का
कल की सूरत पे पड़ा पर्दा उठाने का
गठजोड़ हमपे बाक़ी है
रुख़्सती को है बीस इक्कीस
आने को बीस बाइस
हुल्लड़, मस्ती, शोर अभी बाकी है.
ओ स्त्री!
जब तुम रोते हुए
किसी पुरुष को देखना
तो बिना किसी
छल और दुर्भावना के
उसे अपनी छाती में
भींच लेना
और उड़ेल देना उस पर
वो सारा स्नेह
जो तुम अपने कोख़ के
जाये पर लुटाती...
कोई पुरुष जब रोता है
तो धरती की छाती
दरकती है
तुम्हें बचाना होगा स्त्री! दरार को.
पुरुष, पुरुष ही नहीं ईश भी है
वो ही न हो तो तुम स्त्री कैसे बनो?
व्रत हुआ कोजागिरी का
और देवों के प्रणय का हार
महारास की बेला अप्रतिम
मैं अपने मन के शशि द्वार
तुम शरद हो ऋतुओं में
तुम हो मन के मेघ मल्हार
चंद्रमा कह दूँ तुम्हें तो
और भी छाए निखार
तुम स्नेह की कण-कण सुधा हो
मद भरी वासन्ती बयार
पीत जब नाचा धरा पर
हुआ समय बन दर्शन तैयार
तुम्हारी नर्म-गर्म हथेलियों के बीच खिला पुष्प
और भी खिल जाता है, जब
विटामिन ई से भरपूर चेहरे वाली तुम्हारी स्मित
इसे अपलक निहारती है
तुम्हारा कहीं भी खिलखिलाकर हँसना
मेरे आसपास आभासित तुम्हारे हर शब्द को
तुम्हारी गंध दे जाता है... महका जाता है
कण कण में तुम्हारा होना.
वही तो करते हो तुम जो अब तक करते आये
बना देते हो चंदन अपने शब्दों को
यही है मेरी औषधि, ये शब्द
डाल देते हैं मेरे चिन्मय मन पर डाह की फूँक
शाँत करने को मेरे मन के सारे भाव...
तत्क्षण मेरा मन वात्सल्य में डूब जाता है
झूम उठती है मेरे मन की मेदिनी
तुम्हारा पग चूमने को...
"माँ, आज के समय में राम तो नहीं होते न?" दशहरे का मेला देखकर लौटी मेरी बेटी चीखते हुए बोली.
उसके इस प्रश्न पर हतप्रभ सी खड़ी मैं बिस्तर पर चौड़े पड़े शराबी और अधमी पति को एकटक देखती रही. कितने पक्षपाती हो जाते हैं हम जब बात अपनों पर आ जाती है. ये प्रेम का कैसा रूप है!
स्वयं के अन्तस् रावण अटल
घात लगाए स्वयं की हर पल
मुझको दर्पण बन, जो मिला
वही विजित है मेरा स्वर कल
नयन में राम तो पग में शूल हैं
हर शबरी के हिय हूक मूल है
हुआ आँचल माँ का तार-तार
बहने दो निनाद, भाव कोमल
कौन कहे कि हर सत्य राम है
कहीं दशानन भी, सत नाम है
नाम नहीं अब दहन करो तम,
गर्व और पाखंड का अस्ताचल
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