"वह दिन कभी तो आयेगा. मनुष्य कभी तो सभ्य होगा. मेरा पूरा जीवन उसी दिन का लंबा इंतजार है..."
सुशोभित जी की यह पुस्तक शब्दों में न लिखी होकर भाव में ढ़ली है. लेखक के मन की व्यथा, सब कुछ सही न कर पा सकने की ग्लानि, करुण पुकार बनकर उभरती है. पशुओं के लिए एक पुकार है तो पढ़ने वालों के लिए पुरस्कार.
पुस्तक को छः भागों में बाँटा गया है. “पाश में पशु” इस व्यथा को चित्रित करती है कि सच को नजरअंदाज कर एनिमल फार्मिंग को सोशल एक्सेपटेंस कैसे मिलती रही है. क़त्लखानों की बर्बरता लिखते हुए लेखक भावुक हो उठता है, “मैं नहीं चाहता कल्वीनो की फ़ंतासी की तरह पशु मनुष्यों को शहरों से बाहर खदेड़ दे…मैं चाहता हूँ कि काफ़्का की तरह हम उन अभिशप्त कल्पनाओं के भीतर पैठ बनायें जो सामूहिक अवचेतन का हिस्सा है…”. वीगन होना कोई ट्रेंड नहीं बल्कि हमारी नैतिक जिम्मेदारी है. दूध के लिए दुधारू पशुओं को दी जाने वाली यातनाएँ और जो दूध नहीं देते उन्हें वेस्ट प्रोडक्ट की तरह कसाई खाने में भेज दिए जाने के विरोध में स्वर तो उठने ही चाहिए. तथ्यों को वैज्ञानिक आधारों पर पुष्ट करते हुए हर एक बात इस तरह से कही गयी है कि आप उसे समझ सकें और जाँच सकें. वैश्विक स्तर पर किन-किन लेखकों ने यहाँ तक कि अभिनेताओं ने पशुओं पर हो रहे अत्याचार को कलमबद्ध एवं भावबद्ध किया है, इस भाग में आप पढ़ सकते हैं.
“कितने कुतर्क” के अंतर्गत नौ कुतर्कों का बिंदुवार बहुत ही सहज माध्यम से उत्तर दिया गया है. न केवल प्रबुद्ध पाठक वर्ग बल्कि बच्चे-बच्चे को समझ में आ जायेगा. जैविकी में प्राणियों के विभाजन में लेखक ने एक सूक्ष्म जानकारी रखी है जो कि बहुत लोगों को ज्ञात नहीं होगी कि हम मनुष्य भी एनिमल किंगडम का ही हिस्सा है. ‘सब शाकाहारी हो जायेंगे तो खायेंगे क्या’ के अंतर्गत लेखक ने आँकड़ों के साथ एक बहुत दमदार बात प्रस्तुत की है कि आज जितनी कैलरी फार्म एनिमल्स को खिलायी जा रही है उसके बदले में बहुत थोड़ा ही प्रतिशत मांस के रूप में प्राप्त होता है. स्वच्छ जल का एक तिहाई हिस्सा एनिमल फार्मिंग पर व्यय किया जा रहा है. वगैरा-वगैरा…धार्मिक आस्था की बात हो अथवा भौगोलिक परिस्थितियों के आधार पर लेखक ने बहुत ही शालीन ढंग से अपने तर्क रखे हैं. भ्राँतियों की काट निकाली है.
भ्राँति- पुस्तक “माँसाहार बनाम शाकाहार” है
तथ्य- यह बहस “जीवहत्या बनाम जीवदया” है
“जीवदया का धर्म” सात अध्याय में संकलित है. इसमें विभिन्न धर्मों में जीव दया के बारे में बताया गया है. कथाओं के माध्यम से उदाहरण भी प्रस्तुत है. पशु बलि पर भी प्रश्न चिन्ह लगाया है.
पुस्तक का मस्तिष्क “भारत में मांसाहार” पुनः सात अध्यायों में नीतियों का एक कच्चा चिट्ठा है. ब्योरेवार एक-एक बात बतायी गयी है. पशुओं को कमोडिटी कहने पर एक आपत्ति दर्ज है.
अगले आठ अध्यायों का संकलन अगले भाग “पक्षियों की नींद” के अंतर्गत है. इस भाग की हर बात को अपना स्नेह दूँगी. यह पुस्तक का दिल है. लेखक ने पक्षियों-पशुओं के जीवन के सच इतने मर्म से उकेरे हैं कि एक समानुभूति की मिठास हर शब्द से आती है चाहे वह सी एनिमल्स हों, रेप्टाइल्स हों अथवा चौपाये. सोन चिड़िया के गिरने और उसकी पहचान करने से एक मुस्लिम परिवार का लड़का सलीम अली किस तरह पक्षी शास्त्री हो गया, यह इसमें बताया गया है और हाँ मुस्लिम शब्द इस पूरी पुस्तक में मात्र यहीं पर आया है.
पुस्तक का अंतिम भाग “पशुओं का जीवन” जिसमें डोमेस्टिक एनिमल्स, जूनोटिक बीमारियाँ और क़त्ल के नैतिक पहलुओं पर बात के साथ पशुओं के जीवन उनके चेतना और साथ ही काफ़्का की ग्लानि पर भी एक अध्याय है जिसने उन्हें वीगन बनने को प्रेरित किया.
“आख़िरी पन्ना” जो कि मैंने सबसे पहले पढ़ा. इस पन्ने का एक-एक शब्द अपील करता है. हमारी चेतना को सुदृढ़ करता है. हमें पशुओं के क़रीब लाता है.
चेतना के इस स्तर तक पहुँचने के लिए अवश्य पढ़ें.
मैं वीगन क्यों हूँ
(पशुओं के लिए एक पुकार)
लेखक- सुशोभित
हिन्द युग्म प्रकाशन
प्रथम संस्करण २०२४