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गुनाह

उसने प्यार को गुनाह बताकर
अपने सिरहाने
मगर तकिये के नीचे रखा,
आंखों से रिसते हुए आँसू
उस गुनाह की स्याही को
बूंद-बूंद धोते रहेंगें
और वो तिल-तिल
कसमसाता रहेगा।
उस पाकीज़गी को
गुनाह बनाने में
वो भी तो गुनहगार था
लम्हा दर लम्हा।
कल की सुबह भी
उस गुनाह की स्याही
ज्यों की त्यों मिलेगी
क्योंकि
आंख से रिसने वाली हर बून्द
तकिये के अहम को
भेद नहीं पाएगी
गुनाह और संवर जाएगा।

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