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एक अजीब सी घुटन हो रही मेरे भीतर
जैसे तुम मेरे शब्दों से बंधकर रह गए हो,
महसूसती हूँ तुम्हें अपने बहुत पास,
हाथ बढ़ाती हूँ तुम्हें छूने को;
तुम मुस्कराते हो,
कहते हो,
'कदम भी तो बढ़ाओ'
और मैं कदम-दर-कदम
सफर तय करती जा रही हूँ।
ये तो वो मुकाम है
जिसे लोग ज़िंदगी कहते हैं;
इसमें तुम कहाँ हो?
मुझे तो तुम्हारा होना
अपनापन लगता है बस,
बाकी सब तिलिस्म की दीवारें हैं
अजनबी आहटें हैं यहाँ,
आओ न एक रोज
कुछ देर ठहरो
बादलों के बिम्ब पर,
मैं अपनी देह की ऊष्मा गलाकर
स्याही बनाना चाहती हूँ,
इस रूहानी मिलन की बेला में
मेरे लरजते होठों को इतना शान्त कर दो
कि भीतर की ऊर्जा का आकाश
कलम की लेखनी सोखकर अमर कर दे
मेरे उन्माद भरे शब्दों को,
कम न पड़ने दो मेरे आवेग को,
मैं जीती रहना चाहती हूँ
स्नेह से पगे इस आकर्षण में,
तुम्हारे होने के इस पल में।
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