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तीन लघुकथाएँ

(१) प्रेम जो प्रेमिका को खाता है


उसके हाथों ने छत नहीं अचानक आसमान को छू लिया. नए-नए प्रेम का असर दिख गया. ढीठ मन सप्तम स्वर में गा दिया गोया दुनिया को जताना चाह रही हो कि अब तो उसका जहाँ, प्रेम की मखमली जमीन है बस क्योंकि प्रेम उरूज़ पर था.

फिर एक रोज चौखट पर रखा दिया अचानक बुझ गया और उसकी शाम कभी नहीं हुई. हवा के बादलों पर बैठकर वो आसमान कहाँ छू पाती? एक ख़्वाब ज़िंदा लाश बन गया उसके अंदर.



(२) प्रेम जो प्रेमी को खाता है


उसके कपड़ों की क्रीज़, परफ़्यूम की महक, हेयर कलर और गॉगल्स के पीछे मुस्कराता चेहरा आजकल सभी की निगाह में है. ग्रेजुएशन की पढ़ाई एक ओर हो गयी, अपाचे तो ख़ुद ब ख़ुद डिस्को, होटल और लांग ड्राइव के लिए मुड़ जाती है.

उस रोज बारिश ज़ोरों पर थी फिर भी अपाचे स्टार्ट कर वो वेट कर रहा था. लोमबर्गिनी से उतरती अपनी माशूका को देखकर उसकी आँखों का रंग अचानक बदल गया. अगले दिन शहर के अखबारों में सुर्खियां टहलती रहीं--ईर्ष्या की जलन किसी के चेहरे पर तेजाब बन बही.



(३) समाज जो प्रेम को खाता है


पहली बार दवा की एक दुकान पर दोनों मिले थे. एक को बीमार माँ तो दूसरे को बहन के लिए दवाई चाहिए थी. सूखा चेहरा, मैले कपड़े, अबोले से वो दो क़रीब आ गए. अब दवा के ग्राहक दो नहीं एक ही होता. कभी-कभी माँ और बहन की तीमारदारी भी एक ही कर लेता.

दर्द न बाँट सकने वाला समाज ही उनके ख़िलाफ़ खड़ा हो गया. समाज की आँखों में बेचारगी, लाचारी, जरूरत, स्नेह, मोह… कुछ न आया बस उनका लड़का और लड़की होना खटका. दो से जस तस एक हुए वो दोनों पहले अलग फिर सिफ़र हो गए. किसी का न होना इतना बुरा नहीं पर आकर चले जाना सच जानलेवा ही तो है.


विशेष- इस श्रंखला की तीन लघुकथा. इसे लिखने की प्रेरणा मुझे तेजस पूनिया जी की कहानी "शहर जो आदमी खाता है" को पढ़कर मिली.

मास्क वाला प्रेम



चलो न

खुले में प्रेम करते हैं

सूरज की रोशनी

जहाँ ठहर जाए ऊपर ही,

जैसे प्रेम के देवता ने

अपने पंख फैलाकर

हमें दे दी हो

हमारे हिस्से की छाँव;

ऐसा करते हैं न

रख देते हैं एक मास्क

उजास के चेहरे पर

और जी लेते हैं प्रेम भर तम.

सुमधुर परिणय



नेह के बंधन हृदय में, संग सजनी पथ खड़ी
मुझको तो ऐसा लगे, बस यही विदा की घड़ी

माँग पर टीका तुम्हारे, रात तारों से सजी
कह दो के तुमको भी, थी प्रतीक्षा मेरी
नभ झुका है सामने, हमको ये आशीष देने
मेरे लिए प्रमाण हो तुम हर साक्ष्य से बड़ी

नेह है, अर्पण है अब, तुमको है मेरा समर्पण
दुःख तुम्हारे सब मेरे, प्रेम का तर्पण इसी क्षण
योद्धा हूँ मैं तुम्हारा, तुम मेरी हो सारथी
ये अमिट सिंदूर रेखा माँग पर जब है चढ़ी

इंद्रियां कब वश किसी के, तुम बनी छठ इंद्रिय
काशी, काबा, गंगासागर, मेरे सब तीरथ यही
सात अजूबे दुनिया में, तुम हो मेरी आठवीं
अर्धांगिनी हो तुम मेरी, मैं तुम्हारा हूँ ऋणी

श्रीमान सुधांशु अंकल और श्रीमती सुधा आंटी की प्रेममय वैवाहिक वर्षगाँठ के सुअवसर पर!

आईने वाली राजकुमारी: भाग IV


चेतक हवा से बातें कर रहा और राजकुमारी स्वयं से. उनका मन उलझनों से घिर रहा था और वो उड़कर महल तक पहुँचना चाहती हैं. महल में पहुँचते ही सर्वप्रथम रानी माँ के गले लग जाएँगी और उन्हें विस्तार से बताएँगी कि उनके साथ क्या-क्या घटित हुआ. जीवन के अठारह वर्ष यही तो करती आयीं हैं. माँ के अंक में शिशु की भाँति समा जाना. विह्वल सी होकर चेतक को एड़ पर एड़ लगाए जा रहीं थीं. सहसा ही चेतक की धीमी होती गति ने संकेत दिया, महल समीप ही है. मुख्य द्वार के सामने पहुँचते ही राजकुमारी चेतक को सैनिक के हवाले कर भीतर की ओर भागीं.
"तुम चेतक के साथ दौड़ की स्पर्धा करने गयीं थी क्या?"
"क्यों माँ सा, आपने ये प्रश्न क्यों किया? हम तो चेतक की लगाम थामकर उड़ते चले आए"
"तुम्हारी बढ़ी हुई श्वांस को देखकर कहा. कहीं कुछ अघटित तो नहीं घटित हुआ?"
"कैसा अघटित माँ सा? वैसे भी जो होता है वो पूर्व निर्धारित ही होता है फिर उसे अघटित क्यों कहें?"
"आज अपनी प्रथम यात्रा में ही ऐसा प्रतीत हो रहा कि तुम बहुत कुछ सीखकर आयी हो" रानी माँ ने विस्मय से राजकुमारी के नेत्रों में देखकर कहा. इस पर राजकुमारी मौन होकर दूसरी ओर देखने लगीं…'लग रहा माँ सा ने हमारा चेहरा पढ़ लिया' आगे कुछ भी बोलना उन्होंने उपयुक्त नहीं समझा. नन्हा सा मन इसी क्षण बड़ा हो गया कि उसने पलों में समस्या सुलझाती माँ सा के सामने असत्य का सहारा लिया. उन्हें भान हो गया यदि माँ सा को सारी बात पता चली तो अकेले नहीं जाने देंगी. राजकुमारी को अभी इसका आभास कहाँ कि अपनों के सामने बोला गया पहला असत्य उन्हें कठिनाइयों के हाथ को कठपुतली भी बना सकता है.
"माँ सा हमें थकान हो रही"
"जाओ विश्राम करो" इतना सुनते ही राजकुमारी अपने कक्ष की ओर बढ़ी. उन्हें विश्राम से अधिक एकांत की आवश्यकता थी. जल- प्रक्षालन कर अपने शयनगृह में आ गयीं. न चाहते हुए भी आँख बंद करने पर "वो" राजकुमारी की यादों में आ गया. उन्होंने झट से आँखें खोल दीं. सिरहाने जल रहे दीये की बाती पर तर्जनी रख दी. शयनगृह अंधेरे की आभा से आलोकित हो उठा और वो उन स्मृतियों से…'किसी चेहरे में इतना आकर्षण कैसे हो सकता है'...उनके मन का एक भाग उस ओर खिंच रहा था जिसे वापस लाने का निरर्थक प्रयास वो करती रहीं. कभी उजाले से भागकर तो कभी अंधेरों में स्वयं को समेटकर. स्नेह की एक अनदेखी डोर पर मन बावरा हो चला. शब्द तो नकारे जा सकते थे पर मन के भाव नहीं. उनकी सोच में तो यह तक आ गया कि...उसने कुछ देर और रुकने को उन्हें विवश क्यों नहीं किया!

आईने वाली राजकुमारी: भाग III


गतांक से आगे--


"तो आप द्वैत गढ़ की राजकुमारी हैं?" उन अपरिचित ने प्रश्न कर राजकुमारी का ध्यान भंग करने की चेष्टा की.
"हम किन शब्दों में अपना परिचय दें तो आप समझेंगे?" राजकुमारी ने भी पलटवार किया.
"आप अपनी जिह्वा को अधिक विश्राम नहीं देती हैं?"
"आप प्रश्न अधिक नहीं करते हैं?"
"हमें आपके प्रत्युत्तर भाते हैं"
राजकुमारी के नेत्रों में न परन्तु हृदय पर हाँ की छाप लग चुकी थी.
"आप यहाँ आती रहती हैं क्या?"
"हम क्यों बताएँ?"
"हम पूछ रहे क्या ये कारण पर्याप्त नहीं?"
"आप तो हमसे ऐसे कह रहे जैसे हमारे सखा हों!"
"आप हमारी सखी तो हैं"
"हमने कब ऐसा कहा? हम तो आपसे बात भी नहीं कर रहे"
"बात तो आप अब भी कर रहीं और तो और हमें अंजुरि में जल भरकर दिया"
"बात करने का तो कुछ और ही प्रयोजन है और जल देकर तृष्णा बुझायी"
"आपको देखते ही रेत का एक जलजला हमारे भीतर ठहर गया और आप कहती हैं तृष्णा बुझ गयी"
"आप हमें बातों के जाल में उलझा रहे हैं"
"आपके नेत्रों ने हमारा आखेट किया है"
"यह कैसा आरोप है?"
"क्या प्रमाण नहीं चाहेंगी?"
"---"
"हमें अनुमति दीजिए कि हम आपके हृदय के स्पंदन की अनुभूति कर आपको प्रमाण दे सकें!"
"हमारा हृदय...स्पंदन...प्रमाण...बेसिरपैर की बात कर रहे हैं आप"
"विवाद नहीं सुंदरी अनुभव कीजिए"
इतना सुनते ही राजकुमारी के हृदय का स्पंदन गति पकड़ने लगा. स्वयं को बचाने के प्रयास से वहाँ से वापस जाना ही उपयुक्त लगा.
"कहाँ चली सुंदरी...सुनिए तो...हम पूर्णिमा की संध्या यहीं झील के किनारे आपकी प्रतीक्षा करेंगे. आपको आना ही होगा अगर हमारे चन्द्रमा से मिलना को प्रतीक्षारत हैं आप..."
राजकुमारी ने जाते हुए इतना सुन लिया था. तेज गति से चेतक की ओर भागी. बैठते ही एड़ लगायी और चैन की साँस ली.
अगला भाग पढ़ने के लिए कल तक की प्रतीक्षा...

आईने वाली राजकुमारी: II


राजकुमारी इठलाती हुई महल से बाहर आ गयी. कुछ हो क्षणों में उनका चेतक हवा से बातें करने लगा. पालकी और चेतक दोनों एक-दूसरे के विपरीत पर उनमें से किसी को भी एक-दूसरे के साथ की आवश्यकता ही कब थी. वो तो रानी के आदेश का पालन करना था. राजकुमारी आज अपने प्रथम भ्रमण में इतनी उन्मुक्त होकर विचरण कर रहीं थीं. कभी उड़तीं तो कभी रुककर सुरम्यता को अपलक निहारतीं. आज का भरपूर आनंद ले रही थीं. ठीक मयूरी विहार के सामने पहुँचकर चेतक को एड़ लगायी. उतरते हुए उसकी पीठ पर थपकियां दीं जो कि आभार है इस प्रथम सैर के लिए. सामने झील से कल-कल करते हुए पानी ने उन्हें अपनी ओर आकर्षित किया और वो मंत्रमुग्ध हो उसी ओर भागीं. ऊपर से गिरते हुए स्वच्छ जल से अठखेलियाँ करने लगीं. तभी विपरीत दिशा से आई आवाज ने उनका ध्यान खींचा…
"पीने को जल मिलेगा सुंदरी?" अनजानी आवाज ने उन्हें चौंका दिया. पीछे मुड़ते ही एक छबीला, गहरे नयन-नक्श वाला युवक सामने था. जिसके चेहरे पर अप्रतिम आभा थी...जल भूलकर वो राजकुमारी के सौंदर्य को अपलक निहारता रह गया.
"बड़े निर्लज्ज प्रतीत होते हो!" राजकुमारी के इतना कहने पर भी उसने पलकें नहीं झपकायीं. राजकुमारी ने अपनी म्यान पर हाथ रखा ही था तभी चेतक की हिनहिनाहट ने दोनों का ध्यान खींचा.
"सुंदरी...जलपान करना है"
"यह क्या आप सुंदरी-सुंदरी कह रहे हैं. हम द्वैतगढ़ की राजकुमारी हैं. यह झील अथवा झरना हमारी सम्पत्ति नहीं. आप स्वयं जाकर जल लीजिए"
"हम निर्लज्ज तो नहीं आप निर्मोहिनी अवश्य प्रतीत होती हैं. एक भटकते हुए पथिक पर तनिक भी दया नहीं"
"दया या निर्दयता का कोई प्रश्न ही नहीं. आइये हमने चश्मे का स्थान रिक्त कर दिया. जल ग्रहण कीजिए"
"ऐसे नहीं राजकुमारी हम तो आपकी अंजुरि से ग्रहण करेंगे"
"आप तो बहुत हठी प्रतीत होते हैं"
"हठी नहीं राजकुमारी हम एक श्राप के भय से ऐसा कह रहे हैं. अगर हमने यह बहता हुआ पानी अपनी अंजुरि में लिया तो हम पत्थर के हो जाएंगे" यह सुनकर राजकुमारी का मन पिघल गया और वो उन अपरिचित युवा को अंजुरि में भरकर जल पिलाने लगीं. दोनों एक-दूजे को स्नेहमयी होकर तकने लगे.
वेश भूषा और वार्तालाप से पूरा संकेत मिल रहा था कि वो एक साधारण व्यक्ति न होकर राजकुमार हैं.

कल पढ़िए इसका अगला भाग

आईने वाली राजकुमारी


बात यही कोई एक सौ साल पुरानी है द्वैतगढ़ में एक राजकुमारी रहा करती थी जो अपनी सुंदरता के लिए जानी जाती थी. उनके अधरों पर प्रशंसा के कितने ही गीत लिखे गए जो यदाकदा उनके कत्थई नेत्रों के सामने से आए गए परन्तु उनके गुलाबी गालों को सम्मोहित न कर सके. अपने भाई सा से उन्होंने तलवार चलाना बस इसलिए सीखा कि उनकी ओर उठने वाली लालसा भारी निगाह को वो सबक सिखा सकें. प्रतिभा और सौंदर्य से पूर्ण होने के बाद भी गर्व किंचित उन्हें स्पर्श तक न करता था. महाराज, महारानी और युवराज की लाडली राजकुमारी को बस इसी बात का दुःख था कि उन्हें कहीं भी अकेले जाने की अनुमति नहीं मिलती थी.
एक दिन राजकुमारी अपने भवन में उदास बैठी थी. दासी ने इसकी सूचना महारानी को दी. महारानी उस समय अपना शृंगार करवा रही थीं परन्तु सब छोड़कर भागीं. माँ को आया देख राजकुमारी ने उनकी ओर अपनी पीठ घुमा दी.
"पुत्री, ऐसा मत करो. पीठ तो शत्रु को दिखाने का रिवाज है"
"तो आप आज ये प्रमाणित कीजिए कि आप हमारी मित्र हैं"
"तो इसके लिए क्या करना होगा हमें?"
"हम आज मयूरी विहार जाना चाहते हैं, आप अनुमति दीजिए"
"बस कुछ क्षण प्रतीक्षा कर लो. तुम्हारे भाई सा आ रहे होंगे"
"नहीं, हम अभी इसी क्षण और अपने चेतक पर अकेले जाना चाहते हैं"
"यह इच्छा हम पूरी नहीं कर सकते"
"तो आप हमारी मित्र नहीं. हम अठारह बरस के हो गए. समझदार हैं. निडरता और चतुराई के कौशल से पूर्ण हैं परंतु इस महल में ही बंद होने को विवश हैं"
"यह मत भूलो कि तुम सौंदर्य कला से पूर्ण एक युवती भी हो"
"परन्तु अपनी सुरक्षा तो कर सकते हैं"
"कुछ भी हो… ममहाराज के आने तक तुम्हें ठहरना ही होगा"
"ठीक है हम भी अब अन्न जल तब तक नहीं ग्रहण करेंगे, जब तक महाराज नहीं आते"
"पुत्री तुम नाहक ही वाद कर रही हो"
"माँ सा… हमारा चेतक बाहर प्रतीक्षा कर रहा"
बहुत अनुनय विनय के पश्चात महारानी इस शर्त पर मानी कि राजकुमारी के घोड़े के साथ उनकी पालकी भी जाएगी और उसमें दासियाँ होंगी. माँ सा का हाथ चूमकर राजकुमारी ने हामी भर दी.

अगला भाग जल्दी ही...

रिश्ता


रिश्ते और रास्ते यकसाँ नहीं होते कि जरुरतों पर बदल लिए जाएं. किसी से रिश्ता बनाने पर खुद को भी उतना ही बनाना पड़ता है. कोई हमारे लिए बिल्कुल उपयुक्त है ये तो हो ही नहीं सकता फ़िर हम किसी के लिए बेहद सटीक हैं यह कैसे संभव है? ये तो दो लोगों के बीच का अपनापन होता है कि दूरियाँ, दूरियों सी नहीं लगतीं.
जब हमें हमारे मन सा कोई लगता है तो बिन महसूस किए ही उसके क़रीब चले जाते हैं. यहाँ तक कि हर साँस पर हुआ दस्तख़त भी देर से समझ आता है. ये भी सौ फ़ीसदी सही है कि हम उसी के क़रीब जाते हैं जो हमें आँखें बंद करने पर भी देखना पसंद करता है. हमारी चाहत और उसकी पसंद का एकाकार ही रिश्ते को जन्म देता है. जब रिश्ता नया हो तो उसमें डूबना स्वाभाविक है ठीक वैसे ही जैसे ड्रेस नई हो तो पार्टी तो बनती ही है बस इसी तरह नए रिश्ते की ट्रीट होती है. हमारा सुप्रभात उसके लिए सुबह आगे बढ़ाने का वायस बनता है और उसका जवाबी संदेश हमारी ख़ुशी. अग़र किसी दिन सकाले न हो तो द्विप्रहरे एक छोटी सी शिकायत...और इस पर भाव बढ़ना तो स्वाभाविक है. यहीं से रिश्ता एक अहम बन जाता है… मेरा दोस्त, मेरी ज़िंदगी...वो लगाव, अपनापन बढ़कर केअर में बदल जाता है कि अग़र हमारे पास धरती हिली तो हमें तुरन्त उसका ख़याल आ गया…'कैसा होगा वो!' यह बहुत ही स्वाभाविक है. यहाँ पर जब हम थोड़े से कम होंगे तभी उसके आसपास मौजूद रहेंगे. तालमेल बिठाने के चक्कर में बहुत कुछ खो भी रहा होता है पर हम आँखों में स्नेह लिए आगे बढ़ते ही रहते हैं. यह आगे का रास्ता 50 प्रतिशत हमारे स्नेह पर और 50 प्रतिशत उसके इंतज़ार पर निर्भर करता है. जितना हम उसे दे रहे होते हैं उतना ही हमें मिल भी रहा होता है. अग़र बात दोनों तरफ़ से बराबर न हो यहाँ तक आना ही असम्भव था. हमने उसकी केअर तब की जब उसे अच्छा लगा.
कभी-कभी ये बरसों चलता है और कभी महीनों में ही THE END हो जाता है. पहले तो वो हमारे स्नेह को महसूसता है फ़िर मन की वही आवाज़ एक शोर सी लगने लगती है क्योंकि तब तक हम बाहर की आवाज़ें सुनने लग जाते हैं…सबसे बड़ा रोग क्या कहेंगे लोग… ये 'लोग' आख़िर हैं कौन, वही ना जो हमें ये समझा रहे हैं. उनका काम ही यही है, वो सबको कहते हैं. समाज को सीधा साधा "हम-तुम" क्यों नहीं समझ आता? कोई ख़ुश है हमने उसकी ख़ुशी बाँट ली तो लोगों को ख़ुशी क्यों नहीं हुई? धीरे-धीरे दूषित विचारों का ज़हर तुम्हारे दिमाग़ में आने लगता है और तुम हमारे लिए अपनी भावनाओं को अपने मन का शोर समझने लग जाते हो. ये शोर तुम्हें भीतर ही भीतर परेशान करता है और इसका अंजाम ये होता है कि मासूम सा रिश्ता प्रश्नों के समीकरण में उलझने लगता है. हम अब तक अपनी ही धुन में मुस्कराकर सुप्रभात करते हैं और तुम हमारी मुस्कान को हममें, ख़ुद में छुपाने की कोशिश करने लगते हो… कहीं कोई देख न ले. यहीं से शुरुआत हो जाती है तुम्हारे बचकर निकलने की. एक दिन हम बहुत व्यस्त होते हैं, ऑफिस, घर, काम, बच्चे और शाम को भी थककर आँखें बंद कर लेते हैं फ़िर अचानक तुम्हारा ख़याल आ जाता है कि तुम हमारे संदेश का इंतज़ार कर रहे होगे. नींद भरी आँखों के बावजूद भी मेसेज करते हैं. गहरा रही रात इशारा करती है सोने का… सुबह आँख खुलते ही सुप्रभात किया पर यह क्या अभी रात का ही कोई जवाब नहीं...हम तुम्हारे मौन में छिपी मामले की गंभीरता को शायद भांप नहीं पाते हैं और तुम्हें अब भी अपना वही अहम वाला दोस्त मानते हुए उलाहना देते हैं. तुम्हारे शब्दों में ख़ामोशी और मेरी कही में दर्द बढ़ रहा होता है. कई बार हमें लगता है कि जाने-अनजाने कोई ग़लती हो गई हो तो तुम्हें बुरा लगा हो… हम हर तरह से अपनापन जताने की कोशिश करते हैं, शिकायतें भी करते हैं ताकि तुम्हें हम वही अपने से लगें. दरिया के शांत पानी में कई बार निरर्थक पानी उछालने की हमें सजा मिलती है और पहले तुम हमारे जिस अहसास को केअर कहते थे आज उसे ही पजेसिवनेस कह देते हो. पहले हमारे छोटे-छोटे प्रश्न तुम्हें अच्छे लगते थे अब उन्हें सुनना नहीं चाहते. हम ख़ुद में कमी और तुममें गुस्से का कारण ढूँढने लगते हैं. तुम चुप हो जाते हो, हमसे हमारी बातों से बचने लगते हो. हमारे अंदर दर्द का आकार बढ़ने लग जाता है. तुम्हारा मौन पढ़ पाने में असफ़ल हम वहीं भटकते रह जाते हैं जहाँ तुमने हमें छोड़ा था. हमारी आत्मा उस वक़्त बिल्कुल मर रही होती है जब तुम सभी के लिए नहीं बस हमारे लिए बदल गए हो.
एक रिश्ता जो गुमान था कल आज नफ़रत में बदल रहा. कल तुम्हें इंतज़ार रहता था हमारे बोलने का आज हमारा कुछ भी बोलना तुम्हें बुरा लगता है. तुम्हारी ख़ामोश आँखें एक दिन पूछ बैठती हैं "मुझ पर हक़ ही क्या था तुम्हारा जो इतनी अपेक्षाएँ पाल बैठीं… " इस एक बात के आगे सारी बातें ख़त्म हो जाती हैं… ज़रा सम्हलकर चला करो ये आवारगी थी तुम्हारी. ख़ुद को समेटते हुए हम ये भी नहीं पूछ पाए… अग़र वो आवारगी थी तो तुम्हारा हमारे क़रीब आना क्या था?
कुछ हुआ न हुआ मग़र इस जमाने ने आवारा बना दिया.

नियाज़ी


दोनों ने अपनी उंगलियाँ एक दूसरे में फँसाते हुए इश्क़ को यूँ गले से लगा लिया जैसे आज इश्क़ इनका गुलाम हो गया है. हो भी कैसे ना इश्क के अलावा रहा ही क्या उनकी ज़िंदगी में! होती होगी लोगों की सुबह, दोपहर, शाम, रात इनका तो बस इश्क़ होता है.
आन्या ने जिब्रान को टटोलते हुए अपना हाथ उसके कंधे पर रखा और आंखों में चमक भरते हुए बोली, "देखो तो सही मैंने कहा था ना ये ए टू ज़ेड का सफर बहुत लंबा होता है"
जिब्रान भी मदहोशी में बोला, "हां तो सफर जितना लंबा होगा, अपना साथ भी तो उतना ही ज़्यादा होगा"
"तुमसे बहस में आज तक जीत पाई हूँ जो आज ही जीतूँगी" आन्या ने अपना सर जिब्रान के कंधे पर रख दिया.
"बहस नहीं इश्क है ये और मैं वो प्रेमी नहीं जो इस्तक़बाल करते हुए अपनी प्रेमिका का पाँव मख़मल पर रखूँ और एक रोज उसे तपती रेत पर नंगे पाँव चलने को मज़बूर करूँ" जिब्रान ने सुकून के कुछ पल लेने को आन्या की गोद में सर रख दिया.
"सुनो इस तालाब के किनारे बहुत घुटन हो रही है. चलो बीच पर चलते हैं. आज मेरा मन समंदर की लहरों में डूबने का हो रहा…" आन्या के कहते ही जिब्रान ने उसका हाथ थाम लिया और दोनों चल पड़े. समंदर के किनारे पहुँचते ही दोनों के क़दम ख़ुद ब ख़ुद रेत के उस टीले की ओर मुड़ गए जिसके नीचे बैठकर दोनों अक्सर अपने नामों में छुपे अपने बच्चों के नाम ढूंढा करते थे.
जिब्रान ने रेत में मुट्ठी छुपाते हुए कहा, "मुट्ठी में रेत तो सभी बचाने की कोशिश करते हैं मैं वक़्त को रोकना चाहता हूँ ताक़ि तुम मुझसे कभी दूर न जाओ"
"और मैं इस ब्रह्मांड के हर उस जगह से जीवन की प्रत्याशा को ख़त्म करना चाहती हूँ जहाँ तुम न हो, ताक़ि हम साथ रह सकें" कहते हुए आन्या ने जिब्रान की मुट्ठी अपनी मुट्ठी में जकड़ ली.
"मैं तुममें क़ैद और वक़्त मुझमें" कहकर जिब्रान ने अपनी मुट्ठी खोल दी.
आन्या ने तुरंत टोका, "यह क्या किया तुमने... इश्क़ को ज़ाया क्यों किया?"
"दो मोहब्बत करने वाले मन ही मोहब्बत को समझ सकते हैं. मैंने कुछ भी ज़ाया कहाँ किया! इन फ़िज़ाओं में इश्क़ का रंग घोला है बस कि आने वाली नस्लें इससे सराबोर रहें और उनकी दुवाएँ हम तक वापस आएं"
"सुनो मेरा दम घुट रहा है. मुझे बारिश में तर होना है…"
"ये लो मैंने छतरी खोल दी अब बादलों को ख़बर होगी मानसून की और वो हम पर बरसेंगे" आन्या ने कराहते हुए अपनी आँखें बंद कर लीं. जिब्रान ने छतरी को नीचे रखते हुए उसे बाहों में भर लिया.
"आ…"
"जि…"
दोनों के ज़र्द पड़े चेहरे और मुँह इस क़दर सूखे हुए हैं कि थूक भी नहीं आ रहा. जीभ तालू से चिपक गई है.
"अब मुझसे और नहीं चला जा रहा जिब्रान"
"ऐसा मत कहो आन्या...मेरी साँसों से चलो तुम…" कहते ही दोनों की आँखें फ़िर बंद हो गयीं. तभी कुछ आहट हुई. आन्या की मृत सी पड़ी देह में दहशत दौड़ गई. जिब्रान पर उसकी हथेलियों की पकड़ और तेज़ हुई.
"लगता है वो लोग आ गए...जिब्रान मेरे पास हो न?" बदहवास सी आन्या उसे टटोलते हुए पूछ बैठी.
"अब तो हमें ख़ुदा ही एक करने जा रहा" जिब्रान ने हाथों से छूकर आन्या का चेहरा महसूस किया. दोनों एक बुत जैसे एक-दूसरे में समा गए.
पिछले ७२ घंटों से एक काल कोठरी में क़ैद दो इशकज़ादे आन्या और जिब्रान...उन्हें पता है कि इश्क़ जैसे अज़ाब के बदले मुक़र्रर फ़ांसी के लिए ही उन्हें यहाँ से बाहर निकाला जाएगा...आज भी इनको गुफ़ा में एक बुत की तरह देखा जा सकता है. नियाज़ी...हाँ अब वो आन्या और जिब्रान नहीं रहे. मैं जब भी भ्रमण पर होती हूँ नियाज़ी को देखने जरुर जाती हूँ.

प्रेम और ॐ


कभी ग़ौर से देखा है
अपनी दायीं हथेली की तर्जनी को
कुछ नहीं करती सिवाय लिखने के,
चूमती रहती है कलम को
जब गढ़ रहे होते हो सुनहरे अक्षर
....मेरी आँखों के
तुम्हारे शब्द चूमने से भी पहले.

कभी ग़ौर से सुनी है वो ध्वनि
जो तुम्हारे कानों से निकलकर
मेरी जिह्वा पर वास करती है
और बना देती है
अनाहत संगीत का वो वाद्य यंत्र
जो प्रेम करते ही बज उठता है
तुम्हारे सुनने, मेरे कहने से भी पहले.

प्रेम और ॐ विपरीतार्थक तो नहीं
सत में वास करते हैं
मेरी अर्थी कंधे से लगाते हुए
एक बार कहोगे न!
प्रेम नाम सत्य है?
रखोगे न वो बासी फूल
मेरे विदाई रथ पर
जो रख छोड़ा है अपनी डायरी में?

मैं ख़ार ले जाऊँगी
तुम्हारी साँसों से और
तुम्हारे शब्दों से भी
अपनी महक छोड़कर
अच्छे लगते हो जब लिखते हो
अपनी दैनन्दिनी में
प्रेम और ॐ.

प्रेम में राजयोग

सुनो ना!
ये जो प्रेम है
मेरी दसों उँगलियों के पोरों पर
चक्र बना गया है
अब तो मानोगे ना
प्रेम में मेरा राजयोग चल रहा.
अगर दाएं पाँव का अँगूठा छोड़ दूँ
तो उन नन्हीं उँगलियों में भी
सारे के सारे चक्र हैं
अब तो ले चलोगे ना
अपने साथ किसी दूसरे ग्रह पर
तब तक मैं
ये अंतिम चक्र भी बनाती हूँ.

प्रेम का महाकाव्य

मैं वो शहर हूँ
जिसके किनारे दर्द की झील बहती है
अक़्सर प्रेमी युगल
एक-दूसरे को सांत्वना देते दिख जाते हैं.
मैं वो पेड़ नहीं बनना चाहता
जिनकी शाखों में उनके प्रेम को अमरत्व मिले
इससे बेहतर है, मैं वो कागज़ बनूँ
जिस पर प्रेम न पा सकने की
वो अपनी रोशनाई उड़ेल दें...
अमर होना चाहूँगा मैं
प्रेम में डूबा दर्द का महाकाव्य बनकर.

कोई राधा तुम्हारे मन में भी बसती तो होगी

तुमसे मिलते ही
मैंने पहला शब्द ब्रह्मांड बोला था
और तुमने असुर
तुम अविश्वास के अनुच्छेद में टहलते रहे
और मैं विश्वास की सूची में
तुमने पलाशों का झड़ना देखा
और मैंने गुलमोहर का खिलना
मेरे लिए बहुत आसान है कहना
कि तुम सही नहीं हो
फ़िर भी पूरे यक़ीन से कहती हूँ मैं
कि तुम ही सही हो...
सहरा में दोआब की कोशिश मेरी थी
ग़लत थी मैं
मैंने चाहा था उस आब से बरसती बूंदे
तुम पर गुलाबी पड़ें
इसका आकलन तुम्हारा मन
मेरी काली सोच कर गया;
मेरी आँखों ने विश्वास को
तुम्हारा सहोदर देखा था
तुम्हें लगा मैं तुमसे रिश्ते की आस में हूँ
स्वप्न में भी तुमसे कोई प्रणय नहीं किया मैंने
कोई राधा बसती होगी तुम्हारे भी मन में
पूछना उससे क्या प्रेम बस इतना ही होता?
कोई एक नाम तो और भी होगा प्रेम का
इस ब्रह्मांड में
मैं चल कर जाना चाहती हूँ उस तक
मृत्यु से पहले ब्लैक होल में समाना भी गवारा होगा
मुझे मंजूर होंगी वो यातनाएँ
जो जीवित अवस्था में भी सलीब पर टाँग दे मुझे
अगर तुम कहते हो सूरजमुखी तुम्हें देखकर नहीं खिलता!

एक प्रार्थना देवदूत से

अग़र आज की रात मैं न रहूँ
तो क्या तुम लौटा कर ला सकोगे वो दिन
जो अपना अस्तित्व खो चुके हैं.
कभी सोचा, कैसे सोती हूँ मैं उन रातों को
जो तुमने अपनी स्याही से सींची थीं
...और भयावह हो जाता है
मेरी आँखों से भीगकर सन्नाटे का शोर...
दर्द भी इन दिनों अपनी फ़ाक़ाकशी में है
कुछ नहीं तो संघर्ष से भरे दुर्दिन में
गरुण पुराण के कुछ अंश मेरे कान में डाल जाओ
मेरी जिह्वा पर अधीरता का मंत्र है
अंतिम प्रहर में आँखें खोलना चाहती हूँ मैं, कि
तुम्हारा अटूट मौन जीतते हुए देखूँ.
मेरी शोक सभा में कोई मर्सिया नहीं पढ़ना
तुम पढ़ना प्रेम कविताएँ, बांटना अपनी रिक्तियां
और उस लोक में ले जाऊँगी मैं
तुम्हारे लिए संचित मोह, अपने गर्भ में छुपाकर
कहीं तो इसे जायज़ हक़ मिलेगा...

मेरे प्रेम का प्रस्ताव

मेरी प्रेम कविताएँ
बीथोवन के जवाबी ख़त नहीं
जो तुम पुष्टि कर सकोगे
मेरे तुमसे प्रेम में होने की

न ही मैं
ब्राउनिंग की वो पोरफीरिया हूँ
जिसे उसके प्रेमी में
उसी के बालों से फंदा बनाकर
प्रेम में अमरत्व दिया

मेरा अमर प्रेम
दिन में सूरज और रात में चाँद सा है
कैसे इनकार करोगे कि
रात दिनकर का स्वागत न करे
कैसे रोकोगे मुझे कि
तुम्हारी चुपकी की पवित्र नाद से
मन भर की दूरी पर रहूँ?
चाहो तो मेरे प्रस्ताव पर ग़ौर करना
जितनी दूरी पर मैं हूँ तुमसे
इतने दायरे में मुझे हरदम मिलना.

आज सुबह चाय पीते हुए

तुम्हारा होना
रोज़ रोज़ होना
कोई आदत नहीं
न ही लत है मेरी, क्योंकि
तुम तो सुबह हो,
मेज पर रखे चाय के दो कप
तुम्हारे साथ घूंट घूंट पीना
और बूंद बूंद स्वाद लेना
बालकनी पर छितरे बेल की
खिड़की से झांकती पत्तियां
मेरी आंखों से पढ़ी
तुम्हारी कविताओं का
स्पर्श चाहती थीं,
ये खिल सी उठती हैं
जब मेरे होंठों पर
तुम्हारे शब्दों के इन्द्रधनुष रचते हैं
गोया इनके भी कान हों
इतने संवेदी
जैसे मेरे कान तुम्हारी कविता को,
आज वो बेल मुरझा गई
पढ़ी तो थीं आज भी
तुम्हारी कविताएं
पर आंखों से कही नहीं
न ही होंठों से बाची गईं
...फ़िर कभी हो सकेगी क्या
वो चाय तुम्हारे लिए
और वो कविता हमारे लिए.
....
आज सुबह चाय पीते हुए
पी गई थी जाने कितनी उलझनें
बस एक चाय ही तो नहीं पी थी
आज सुबह...

तुम्हें ज़िंदगी कह तो दिया

उस रोज़ पूछा था किसी ने हमसे
तुम्हारा नाम क्या है
हमने ये कहकर उन्हें
मुस्कराने की वजह दे दी
कि एक दूसरे का नाम न लेना ही तो
हमारा प्रेम है...
कितने बावले हैं लोग
कि वो तुम्हें कहीं भी ढूंढ़ते हैं
मेंडलीफ की आवर्त सारणी में,
न्यूटन के नियम में,
पाइथागोरस की प्रमेय में,
डार्विन के सिद्धांत में,
अंग्रेजी के आर्टिकल में,
हिंदी के संवाद में,
विषुवत रेखा से कितने अक्षांश की
दूरी पर बसते हो,
जानना चाहते हैं अक्सर लोग
बातों ही बातों में.
पर हम तो तुम्हें बस
ज़िन्दगी के नाम से जानते हैं.
कैसे कहें लोगों से
हम तुम्हें याद तक नहीं करते
तुमसे निकलने वाली चमक को
आइरिश अवशोषित कर
उर तक प्रेषित कर देता है,
और जब तुम हृदय में हो
तो निकट दृष्टि दोष होना स्वाभाविक है.
तुम हर कदम इस तरह साथ हो
कि तुम्हारी छाया में
अपना अस्तित्व खोना
हमें अप्रतिम होने का भान कराता है,
अनुभव करते हैं हर रात जब तुम्हें
अपने बिस्तर की सिलवटों में
गर्व होता है...
जीवन में तुम्हारे होने पर,
कि कितने ही और जन्म मांग ले
ईश्वर से
जीवन की समानांतर पटरी पर चलने को
तुम्हारे साथ
तुम्हारे लिए
नाम के नहीं...जन्म-जन्मांतर के साथी.

'तुम'...

'तुम'
क्या हो तुम
ठहरी हुई झील
गिरता हुआ झरना
बहती हुई नदी
अथाह समंदर
या फिर
उसको भी समाहित करता
महासागर;
नहीं
इनमें से कुछ भी नहीं हो तुम
तुम तो एक बूंद हो
......
हाँ वहीं
जिसमें हाइड्रोजन और ऑक्सीजन
का संयोजन हैं हम
तुम अगर सूत्र हो
तो समीकरण हैं हम.

जब हम...तब तुम


जब हम घर का आख़िरी दिया बुझा दें,
जब हम भीतर आकर
किवाड़ की सांकल चढ़ा दें,
जब हम इन पाँवों पर
होंठों की लकीर सजा दें,
जब हम बदन से लिबास की
दूरी बढ़ा दें,
जब हम गुरुत्व हम-दोनों का
कुल जमा कर दें,
जब हम घनत्व साँसों की हवा का
गुना कर दें,
जब हम हृदय पर हाथ रखकर
संदेश उत्तेजना का रवां कर दें,
जब हम नमी उन होंठों की
जवां कर दें,
........
क्या तुम आँखों में देखोगे
हमसे ये पूछोगे
'मिज़ाज कैसा है जनाब का'
तब तो हमें दुल्हन बना लोगे न,
अपनी बाहों के घूँघट में हमको
छुपा लोगे न,
इस संगमरमर की नक्काशी को
तराशोगे न,
चक्षुओं से दो क्षीर मटकों को
ताकोगे न,
हाथों में भरकर अपनापन
जताओगे न,
उस नमी से रात शबनमी
बनाओगे न,
अपनी चोटों से रात भर
जगाओगे न,
हर वार पर आह, सिसकी दिलाओगे न,
जब क्रिया होगी तभी न
प्रतिक्रिया का बिगुल बजेगा!

मेरी पहली पुस्तक

http://www.bookbazooka.com/book-store/badalte-rishto-ka-samikaran-by-roli-abhilasha.php