बापू बोला चल पीहर ऐसे देख नहीं सकता तुझको
बेटी कहती ये मेरा घर तो छोड़ नहीं सकता मुझको
जिस दिन ब्याही गई थी इनसे
बारातें तुमने बुलवाई
धूमधाम से विदा किया
बजवाई थी शहनाई
आज तिरंगे में सजकर
वो आएं हैं मन भर लेने दो
कहां मिलेंगे फिर मुझको
दरस ये अंतिम कर लेने दो
बस इतना कहती बेटी
होश में जब भी आती है
माह हुआ ये सुन सुन कर
पिता की छाती फट जाती है
कुछ बोल नहीं पाता बापू, अंगारों सा रोता है
दहक दहक कर दिन बीते, दर्द ही रात में सोता है
फिर कहता...चल पीहर ऐसे देख नहीं सकता तुझको
बेटी कहती ये मेरा घर तो छोड़ नहीं सकता मुझको
दरवाज़े पर देखूं जरा
ये दस्तक उनकी लगती है
तन्हा कहां कभी आते वो
कहकहों की महफ़िल सजती है
उनको नहीं कभी भाती मैं
सूनी मांग दिखे जब भी
बिंदिया, गजरे से सज जाऊं
झुमके, महावर और कंगन भी
श्वेत वसन बापू दिखलाता और फ्रेम चढ़ा वो चन्दन हार
चला गया फ़िर आए न अब तू किसके लिए करे सिंगार
फ़िर कहता...चल पीहर ऐसे देख नहीं सकता तुझको
बेटी कहती ये मेरा घर तो छोड़ नहीं सकता मुझको
तस्वीरों से बातें करती
उम्मीदों में रातें गढ़ती
उसकी पसंद के व्यंजन चखती
मद्धम आंच में चाय खौलाती
पल्लू बांधती नेह की चुटकी
याद में उनकी इतराती
मन ही मन बस पिया की बातें
और कहां कुछ उसको भाती
हार गया बापू भी अब, कैसे छुपाए ख़ुद की चीत्कार
हिल न सका इक पल को स्नेह भी, हार गई उसकी मनुहार
कैसे कहे...चल पीहर ऐसे देख नहीं सकता तुझको
जीत रही ज़िद बेटी की रोक लिया है अब खुद को
*ये उस दर्द की अणु भर दास्तां है.
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