रिश्ता


रिश्ते और रास्ते यकसाँ नहीं होते कि जरुरतों पर बदल लिए जाएं. किसी से रिश्ता बनाने पर खुद को भी उतना ही बनाना पड़ता है. कोई हमारे लिए बिल्कुल उपयुक्त है ये तो हो ही नहीं सकता फ़िर हम किसी के लिए बेहद सटीक हैं यह कैसे संभव है? ये तो दो लोगों के बीच का अपनापन होता है कि दूरियाँ, दूरियों सी नहीं लगतीं.
जब हमें हमारे मन सा कोई लगता है तो बिन महसूस किए ही उसके क़रीब चले जाते हैं. यहाँ तक कि हर साँस पर हुआ दस्तख़त भी देर से समझ आता है. ये भी सौ फ़ीसदी सही है कि हम उसी के क़रीब जाते हैं जो हमें आँखें बंद करने पर भी देखना पसंद करता है. हमारी चाहत और उसकी पसंद का एकाकार ही रिश्ते को जन्म देता है. जब रिश्ता नया हो तो उसमें डूबना स्वाभाविक है ठीक वैसे ही जैसे ड्रेस नई हो तो पार्टी तो बनती ही है बस इसी तरह नए रिश्ते की ट्रीट होती है. हमारा सुप्रभात उसके लिए सुबह आगे बढ़ाने का वायस बनता है और उसका जवाबी संदेश हमारी ख़ुशी. अग़र किसी दिन सकाले न हो तो द्विप्रहरे एक छोटी सी शिकायत...और इस पर भाव बढ़ना तो स्वाभाविक है. यहीं से रिश्ता एक अहम बन जाता है… मेरा दोस्त, मेरी ज़िंदगी...वो लगाव, अपनापन बढ़कर केअर में बदल जाता है कि अग़र हमारे पास धरती हिली तो हमें तुरन्त उसका ख़याल आ गया…'कैसा होगा वो!' यह बहुत ही स्वाभाविक है. यहाँ पर जब हम थोड़े से कम होंगे तभी उसके आसपास मौजूद रहेंगे. तालमेल बिठाने के चक्कर में बहुत कुछ खो भी रहा होता है पर हम आँखों में स्नेह लिए आगे बढ़ते ही रहते हैं. यह आगे का रास्ता 50 प्रतिशत हमारे स्नेह पर और 50 प्रतिशत उसके इंतज़ार पर निर्भर करता है. जितना हम उसे दे रहे होते हैं उतना ही हमें मिल भी रहा होता है. अग़र बात दोनों तरफ़ से बराबर न हो यहाँ तक आना ही असम्भव था. हमने उसकी केअर तब की जब उसे अच्छा लगा.
कभी-कभी ये बरसों चलता है और कभी महीनों में ही THE END हो जाता है. पहले तो वो हमारे स्नेह को महसूसता है फ़िर मन की वही आवाज़ एक शोर सी लगने लगती है क्योंकि तब तक हम बाहर की आवाज़ें सुनने लग जाते हैं…सबसे बड़ा रोग क्या कहेंगे लोग… ये 'लोग' आख़िर हैं कौन, वही ना जो हमें ये समझा रहे हैं. उनका काम ही यही है, वो सबको कहते हैं. समाज को सीधा साधा "हम-तुम" क्यों नहीं समझ आता? कोई ख़ुश है हमने उसकी ख़ुशी बाँट ली तो लोगों को ख़ुशी क्यों नहीं हुई? धीरे-धीरे दूषित विचारों का ज़हर तुम्हारे दिमाग़ में आने लगता है और तुम हमारे लिए अपनी भावनाओं को अपने मन का शोर समझने लग जाते हो. ये शोर तुम्हें भीतर ही भीतर परेशान करता है और इसका अंजाम ये होता है कि मासूम सा रिश्ता प्रश्नों के समीकरण में उलझने लगता है. हम अब तक अपनी ही धुन में मुस्कराकर सुप्रभात करते हैं और तुम हमारी मुस्कान को हममें, ख़ुद में छुपाने की कोशिश करने लगते हो… कहीं कोई देख न ले. यहीं से शुरुआत हो जाती है तुम्हारे बचकर निकलने की. एक दिन हम बहुत व्यस्त होते हैं, ऑफिस, घर, काम, बच्चे और शाम को भी थककर आँखें बंद कर लेते हैं फ़िर अचानक तुम्हारा ख़याल आ जाता है कि तुम हमारे संदेश का इंतज़ार कर रहे होगे. नींद भरी आँखों के बावजूद भी मेसेज करते हैं. गहरा रही रात इशारा करती है सोने का… सुबह आँख खुलते ही सुप्रभात किया पर यह क्या अभी रात का ही कोई जवाब नहीं...हम तुम्हारे मौन में छिपी मामले की गंभीरता को शायद भांप नहीं पाते हैं और तुम्हें अब भी अपना वही अहम वाला दोस्त मानते हुए उलाहना देते हैं. तुम्हारे शब्दों में ख़ामोशी और मेरी कही में दर्द बढ़ रहा होता है. कई बार हमें लगता है कि जाने-अनजाने कोई ग़लती हो गई हो तो तुम्हें बुरा लगा हो… हम हर तरह से अपनापन जताने की कोशिश करते हैं, शिकायतें भी करते हैं ताकि तुम्हें हम वही अपने से लगें. दरिया के शांत पानी में कई बार निरर्थक पानी उछालने की हमें सजा मिलती है और पहले तुम हमारे जिस अहसास को केअर कहते थे आज उसे ही पजेसिवनेस कह देते हो. पहले हमारे छोटे-छोटे प्रश्न तुम्हें अच्छे लगते थे अब उन्हें सुनना नहीं चाहते. हम ख़ुद में कमी और तुममें गुस्से का कारण ढूँढने लगते हैं. तुम चुप हो जाते हो, हमसे हमारी बातों से बचने लगते हो. हमारे अंदर दर्द का आकार बढ़ने लग जाता है. तुम्हारा मौन पढ़ पाने में असफ़ल हम वहीं भटकते रह जाते हैं जहाँ तुमने हमें छोड़ा था. हमारी आत्मा उस वक़्त बिल्कुल मर रही होती है जब तुम सभी के लिए नहीं बस हमारे लिए बदल गए हो.
एक रिश्ता जो गुमान था कल आज नफ़रत में बदल रहा. कल तुम्हें इंतज़ार रहता था हमारे बोलने का आज हमारा कुछ भी बोलना तुम्हें बुरा लगता है. तुम्हारी ख़ामोश आँखें एक दिन पूछ बैठती हैं "मुझ पर हक़ ही क्या था तुम्हारा जो इतनी अपेक्षाएँ पाल बैठीं… " इस एक बात के आगे सारी बातें ख़त्म हो जाती हैं… ज़रा सम्हलकर चला करो ये आवारगी थी तुम्हारी. ख़ुद को समेटते हुए हम ये भी नहीं पूछ पाए… अग़र वो आवारगी थी तो तुम्हारा हमारे क़रीब आना क्या था?
कुछ हुआ न हुआ मग़र इस जमाने ने आवारा बना दिया.

नियाज़ी


दोनों ने अपनी उंगलियाँ एक दूसरे में फँसाते हुए इश्क़ को यूँ गले से लगा लिया जैसे आज इश्क़ इनका गुलाम हो गया है. हो भी कैसे ना इश्क के अलावा रहा ही क्या उनकी ज़िंदगी में! होती होगी लोगों की सुबह, दोपहर, शाम, रात इनका तो बस इश्क़ होता है.
आन्या ने जिब्रान को टटोलते हुए अपना हाथ उसके कंधे पर रखा और आंखों में चमक भरते हुए बोली, "देखो तो सही मैंने कहा था ना ये ए टू ज़ेड का सफर बहुत लंबा होता है"
जिब्रान भी मदहोशी में बोला, "हां तो सफर जितना लंबा होगा, अपना साथ भी तो उतना ही ज़्यादा होगा"
"तुमसे बहस में आज तक जीत पाई हूँ जो आज ही जीतूँगी" आन्या ने अपना सर जिब्रान के कंधे पर रख दिया.
"बहस नहीं इश्क है ये और मैं वो प्रेमी नहीं जो इस्तक़बाल करते हुए अपनी प्रेमिका का पाँव मख़मल पर रखूँ और एक रोज उसे तपती रेत पर नंगे पाँव चलने को मज़बूर करूँ" जिब्रान ने सुकून के कुछ पल लेने को आन्या की गोद में सर रख दिया.
"सुनो इस तालाब के किनारे बहुत घुटन हो रही है. चलो बीच पर चलते हैं. आज मेरा मन समंदर की लहरों में डूबने का हो रहा…" आन्या के कहते ही जिब्रान ने उसका हाथ थाम लिया और दोनों चल पड़े. समंदर के किनारे पहुँचते ही दोनों के क़दम ख़ुद ब ख़ुद रेत के उस टीले की ओर मुड़ गए जिसके नीचे बैठकर दोनों अक्सर अपने नामों में छुपे अपने बच्चों के नाम ढूंढा करते थे.
जिब्रान ने रेत में मुट्ठी छुपाते हुए कहा, "मुट्ठी में रेत तो सभी बचाने की कोशिश करते हैं मैं वक़्त को रोकना चाहता हूँ ताक़ि तुम मुझसे कभी दूर न जाओ"
"और मैं इस ब्रह्मांड के हर उस जगह से जीवन की प्रत्याशा को ख़त्म करना चाहती हूँ जहाँ तुम न हो, ताक़ि हम साथ रह सकें" कहते हुए आन्या ने जिब्रान की मुट्ठी अपनी मुट्ठी में जकड़ ली.
"मैं तुममें क़ैद और वक़्त मुझमें" कहकर जिब्रान ने अपनी मुट्ठी खोल दी.
आन्या ने तुरंत टोका, "यह क्या किया तुमने... इश्क़ को ज़ाया क्यों किया?"
"दो मोहब्बत करने वाले मन ही मोहब्बत को समझ सकते हैं. मैंने कुछ भी ज़ाया कहाँ किया! इन फ़िज़ाओं में इश्क़ का रंग घोला है बस कि आने वाली नस्लें इससे सराबोर रहें और उनकी दुवाएँ हम तक वापस आएं"
"सुनो मेरा दम घुट रहा है. मुझे बारिश में तर होना है…"
"ये लो मैंने छतरी खोल दी अब बादलों को ख़बर होगी मानसून की और वो हम पर बरसेंगे" आन्या ने कराहते हुए अपनी आँखें बंद कर लीं. जिब्रान ने छतरी को नीचे रखते हुए उसे बाहों में भर लिया.
"आ…"
"जि…"
दोनों के ज़र्द पड़े चेहरे और मुँह इस क़दर सूखे हुए हैं कि थूक भी नहीं आ रहा. जीभ तालू से चिपक गई है.
"अब मुझसे और नहीं चला जा रहा जिब्रान"
"ऐसा मत कहो आन्या...मेरी साँसों से चलो तुम…" कहते ही दोनों की आँखें फ़िर बंद हो गयीं. तभी कुछ आहट हुई. आन्या की मृत सी पड़ी देह में दहशत दौड़ गई. जिब्रान पर उसकी हथेलियों की पकड़ और तेज़ हुई.
"लगता है वो लोग आ गए...जिब्रान मेरे पास हो न?" बदहवास सी आन्या उसे टटोलते हुए पूछ बैठी.
"अब तो हमें ख़ुदा ही एक करने जा रहा" जिब्रान ने हाथों से छूकर आन्या का चेहरा महसूस किया. दोनों एक बुत जैसे एक-दूसरे में समा गए.
पिछले ७२ घंटों से एक काल कोठरी में क़ैद दो इशकज़ादे आन्या और जिब्रान...उन्हें पता है कि इश्क़ जैसे अज़ाब के बदले मुक़र्रर फ़ांसी के लिए ही उन्हें यहाँ से बाहर निकाला जाएगा...आज भी इनको गुफ़ा में एक बुत की तरह देखा जा सकता है. नियाज़ी...हाँ अब वो आन्या और जिब्रान नहीं रहे. मैं जब भी भ्रमण पर होती हूँ नियाज़ी को देखने जरुर जाती हूँ.

प्रेम और ॐ


कभी ग़ौर से देखा है
अपनी दायीं हथेली की तर्जनी को
कुछ नहीं करती सिवाय लिखने के,
चूमती रहती है कलम को
जब गढ़ रहे होते हो सुनहरे अक्षर
....मेरी आँखों के
तुम्हारे शब्द चूमने से भी पहले.

कभी ग़ौर से सुनी है वो ध्वनि
जो तुम्हारे कानों से निकलकर
मेरी जिह्वा पर वास करती है
और बना देती है
अनाहत संगीत का वो वाद्य यंत्र
जो प्रेम करते ही बज उठता है
तुम्हारे सुनने, मेरे कहने से भी पहले.

प्रेम और ॐ विपरीतार्थक तो नहीं
सत में वास करते हैं
मेरी अर्थी कंधे से लगाते हुए
एक बार कहोगे न!
प्रेम नाम सत्य है?
रखोगे न वो बासी फूल
मेरे विदाई रथ पर
जो रख छोड़ा है अपनी डायरी में?

मैं ख़ार ले जाऊँगी
तुम्हारी साँसों से और
तुम्हारे शब्दों से भी
अपनी महक छोड़कर
अच्छे लगते हो जब लिखते हो
अपनी दैनन्दिनी में
प्रेम और ॐ.

मेरा शपथ-पत्र



अगर कोरोना से मरी तो नेत्रदान का मेरा संकल्प अधूरा रह जाएगा.

इतनी सुंदर न थी ये आँखें मग़र तुमपर ऐसी टिकी कि ख़ूबसूरत हो गईं.

मेरी आँखों में मेरी आत्मा शेष रहेगी और वो तुम्हारी कविताओं के प्रेम में जीवित रहेंगी.

माँ का संदेश


घण्टी बजते ही मैंने अख़बार किनारे रखकर दरवाज़ा खोला.

"अरे माँ तुम, पहले बता देती तो मैं स्टेशन पर लेने आ जाता" पैर छूकर उनका सामान ले लिया.

"तुम परेशान थे तो हम आ गए. अग़र पहले से बता देते तो तेरी ये ख़ुशी कहाँ दिखती"

"ये इतना क्या सामान लाई हो?" मैंने कौतूहलवश निकालना शुरु किया.

"अरे ये तो मेरी बचपन वाली ड्राइंग कॉपी है. इस पर मैं तुम्हारे चेहरे बनाया करता था, गुस्से वाला, प्यार वाला, हँसी वाला…"

"हाँ और जब हम किसी को दिखा देते थे तो तुम रूठ जाया करते थे"

"सब लोग मुझे हँसते जो थे बस एक तुम्हीं तो थीं जो हर ख़राब ड्राइंग की भी तारीफ़ करती थीं. अब समझ में आया कि तुम माँ थीं, तुम्हें तो अपने बेटे में कोई बुराई दिखती ही नहीं थी. माँ, इधर बैठो मेरे सामने आज फ़िर तुम्हारा चेहरा बनाता हूँ"

"नहीं, इसे रखो किनारे. तुम्हारे लिए कुछ खाने को लाए हैं"

"क्या है इसमें?"

"पुलाव. तुम्हें बचपन से बहुत पसंद है न!"

"माँ अपने हाथों से खिलाओ मुझे"

माँ मुझे पुलाव खिलाती रही और मैं खाता रहा. आज बहुत दिनों के बाद मैंने इतना खा लिया पर मन नहीं भरा. माँ की गोद में सर रखकर बैठा रहा और वो मेरा माथा सहलाती रही. उसकी हथेली इतना सुकून दे रही थी कि अब कभी सर दर्द नहीं होगा. मेरी सारी परेशानियां उसकी गोद में रह गईं और मैं उनकी तस्वीर बनाने को उठ खड़ा हुआ.

"माँ अब बनाने दो ना अपनी तस्वीर"

"नहीं तुम तो ख़ुद मेरी तस्वीर हो. अब अपने बच्चों की माँ की तस्वीर बनाओ. तुम्हारे जीवन में रंग उनको भरने हैं. अब अपनी पत्नी में तुम एक औरत नहीं बल्कि माँ को देखो. अपने बच्चों को वो प्यार दो जो तुम मुझसे चाहते हो. अपनी पत्नी को वो सम्मान दो जो मुझे देते हो. मानसिक संताप और क्रोध किसी समस्या का अंत नहीं स्वयं में एक समस्या ही है"

"...और हाँ व्हाट्स एप और फ़ेसबुक का प्रयोग भी सीमित कर दो. जिन समस्याओं से भागकर उनके पास जाते हो, सच तो ये है कि वही समस्याओं का कारक हैं" माँ अपनी बात कहती जा रही थी और मेरी नज़रें दीवाल पर चुभ गई थीं.

"...तुमने बहुत परेशान होकर हमको याद किया तो हमें आना पड़ा. अब हमारे लिए परेशान मत हो उनके बारे में सोचो जो तुम्हारे पास हैं…" इतना कहते ही माँ की आवाज़ दूर चली गई और मेरी नींद खुल गई. तब मुझे याद आया माँ तो तारा बन चुकी है, शायद वो मुझे यही संदेश देने आई थी.

दो क्षणिकाएँ

१. तुम आग हो
तो मैं एक रसायन
आओ मिलकर बनाते हैं
जैविक हथियार
और समूचे ब्रह्मांड में
फैला देते हैं
प्रेम का वायरस.


२. प्रतीक्षा है मुझे
उस दिन की
जब पृथ्वी
अपना गुरुत्व खो देगी
और मैं
तुम्हारा हाथ थामकर चलूँगी
तुम्हें मंगल ग्रह तक छोड़ने…

कवि होना आसान है!

कवि बदल सकता है कमीज़
हर बार मौसम की अनुकूलता के समान
ताप सहता है तो ठिठुरता भी है
निकाल लेता है छतरी मानसून से पहले
पर कविता होती ही है बड़ी ढीठ
लिखे गए भाव से न पढ़ी गई गर
तो कर ही डालती है अर्थ का अनर्थ,
दिखती रहती हैं कवि की जड़ें
और कविता को पहचानते हैं हम
उस पर उगे फूलों से
नमी चुराती है वो हमारी, तुम्हारी आंखों से,
नहीं रहता कभी कवि का बसंत एक सा
पर कविता का मधुमास तो एक ही होना है
बहुत तल्लीनता अवशोषित करती है कलम
एक कविता बनाने में
वहीं कवि लिख देता है कभी भी कुछ भी
कविता कवि का वह जोखिम है
जो पहनने से पहले कवि
कलफ़ लगाता है शब्दों का
इत्र लगाता है भावों का
तब कहीं रचती है एक सुंदर कविता.

प्रेयसी

प्रेयसी बनना चाहती है वो
पर बिना पहले मिलन
प्रेम सम्भव ही कहाँ,
सुलझाते हुए अपने बालों की लटें
उसे प्रतीक्षा होती है उस फूल की
जो उसका राजकुमार लाएगा
जूड़े में लगाने को.

चढ़ाते हुए चूल्हे पर चाय
वो मिठास ढूँढती है
कि उन हाथों में जाने से पहले प्याला
मद्धम आँच के ज्वार भाटे सहेजेगा,
उद्विग्न हो उठता है उसका मन
प्रेयसी बनने को.

कोई भी शब्द पढ़ने से पहले
समझना चाहती है
इस ब्रह्मांड की सभी मौन लिपियाँ
कि उनके पार जा सके
और जान सके प्रेम के अनकहे रहस्य
प्रेयसी बनकर.

इच्छाओं के समंदर को जीते हुए
वो बनकर रह गई है प्रेम सी
अब उसे अपना मन रिक्त करना है
अपना यायावर प्रेम
लुटाना है उस प्रेमी पर
जिसके साथ पहली ही मुलाक़ात
अभी लंबित है.

अबूझी कहानी

वो यायावर था
वो स्वयं के खोल में भी
एक कोना ढूँढने वाली निर्मोही

जाने कैसे प्रेम हो गया

अब वो अपने आप में
ग़ुम सा शांतिदूत
और वो
उसके मन के ब्रह्मांड को खोजती
अनथक घुमक्कड़.

प्रार्थना

कुछ दिनों के लिए
इस जग से इतर
विलीन हो जाना चाहती हूँ मैं
उस अंतर्ध्वनि में
जो ईश्वर के लिए
किया गया नाद है,
पर तुम मुझे पाते रहोगे
तुम्हारे लिए की गई
मेरी प्रार्थनाओं में.

प्रेम में राजयोग

सुनो ना!
ये जो प्रेम है
मेरी दसों उँगलियों के पोरों पर
चक्र बना गया है
अब तो मानोगे ना
प्रेम में मेरा राजयोग चल रहा.
अगर दाएं पाँव का अँगूठा छोड़ दूँ
तो उन नन्हीं उँगलियों में भी
सारे के सारे चक्र हैं
अब तो ले चलोगे ना
अपने साथ किसी दूसरे ग्रह पर
तब तक मैं
ये अंतिम चक्र भी बनाती हूँ.

मेरी पहली पुस्तक

http://www.bookbazooka.com/book-store/badalte-rishto-ka-samikaran-by-roli-abhilasha.php