बंकिम और वंदे



आज यानी कि 27 जून बांग्ला साहित्य के धरोहर बंकिम चन्द्र चटर्जी की पुण्यतिथि है. साहित्य जगत में इनका योगदान अविस्मरणीय है परंतु "वंदे मातरम" के माध्यम से जन-जन तक पहुँच गए. ७ नवम्वर १८७६ बंगाल के कांतल पाडा गांव में बंकिम चन्द्र चटर्जी ने ‘वंदे मातरम’ की रचना की. मूलरूप से ‘वंदे मातरम’ के प्रारंभिक दो पद संस्कृत में थे, जबकि शेष गीत बांग्ला भाषा में लिखा गया.


वन्दे मातरम्

सुजलां सुफलाम्

मलयजशीतलाम्

शस्यश्यामलाम्

मातरम्।


शुभ्रज्योत्स्नापुलकितयामिनीम्

फुल्लकुसुमितद्रुमदलशोभिनीम्

सुहासिनीं सुमधुर भाषिणीम्

सुखदां वरदां मातरम्॥ १॥ 


कोटि कोटि-कण्ठ-कल-कल-निनाद-कराले

कोटि-कोटि-भुजैर्धृत-खरकरवाले,

अबला केन मा एत बले।

बहुबलधारिणीं 

नमामि तारिणीं

रिपुदलवारिणीं 

मातरम्॥ २॥


तुमि विद्या, तुमि धर्म

तुमि हृदि, तुमि मर्म

त्वम् हि प्राणा: शरीरे

बाहुते तुमि मा शक्ति,

हृदये तुमि मा भक्ति,

तोमारई प्रतिमा गडी मन्दिरे-मन्दिरे॥ ३॥


त्वम् हि दुर्गा दशप्रहरणधारिणी

कमला कमलदलविहारिणी

वाणी विद्यादायिनी,

नमामि त्वाम्

नमामि कमलाम्

अमलां अतुलाम्

सुजलां सुफलाम् 

मातरम्॥४॥


वन्दे मातरम्

श्यामलाम् सरलाम्

सुस्मिताम् भूषिताम्

धरणीं भरणीं 

मातरम्॥ ५॥

(आनन्दमठ से संकलित)


१९५० में ‘वंदे मातरम’ राष्ट्रीय गीत बना. डॉ॰ राजेन्द्र प्रसाद का "वंदे मातरम" के बारे में संविधान सभा को दिया गया वक्तव्य इस प्रकार है…


"शब्दों व संगीत की वह रचना जिसे जन गण मन से सम्बोधित किया जाता है, भारत का राष्ट्रगान है; बदलाव के ऐसे विषय, अवसर आने पर सरकार अधिकृत करे और वन्दे मातरम् गान, जिसने कि भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में ऐतिहासिक भूमिका निभायी है; को जन गण मन के समकक्ष सम्मान व पद मिले. मैं आशा करता हूँ कि यह सदस्यों को सन्तुष्ट करेगा. (भारतीय संविधान परिषद, द्वादश खण्ड, २४-१-१९५०)"


वंदे मातरम गीत से बढ़कर एक भावना है जिसकी अनुभूति भारत देश में रहने वाले हर नागरिक को करनी चाहिए. यही कारण है कि विविधताओं से भरे इस देश में आज भी सर्व सम्मति से एकाकार है.

जय हिंद! जय भारत!

प्रेम में विरह गीत



 वेदना की देहरी पर मृत्यु का आभास करने

पीर की हल्दी सजाए, तुमको आना ही पड़ेगा


शुष्क साँसे थम रही हैं, शब्दों का तुम पान दो

भींच कर छाती से मुझको, अधरों पे मेरा नाम लो

किस घड़ी ये साँस छूटे, देह हो पार्थिव मेरी

पुष्प लेकर अंजलि में, शूल का आभास करने

प्रेम का रिश्ता निभाए, तुमको आना ही पड़ेगा


न कोई मंगल की बेला, न शहनाई का शोर हो

न हो कोई डोली विदा की, न चतुर्शी की भोर हो

छोड़ूँ जब बाबुल की नगरी तुम डगरिया में मिलो

नेह के अंतिम क्षणों में बस मिलन का विषपान हो

तीस्ते नीले गरल में, अमिय का आभास करने

हिय, दर्द के बंधन छुपाए तुमको आना ही पड़ेगा


ये धरा साक्षी समर की, प्रेम से पावन है नभ

हैं जलिधि का नीर आँखें, आशीष देते गिरि सब

आए आचमन को पयोधि, पवन अस्थियों के तर्पण को

आग के श्रंगार तक रुक जाना तुम विसर्जन को

वेदना के इन क्षणों में, वेदना का ह्रास करने

रति की वाणी मुख लगाए, तुमको आना ही पड़ेगा.

क्षमा प्रार्थी

ब्लॉग जगत के अपने सुधी मित्रों से हाथ जोड़कर क्षमा मांग रही हूँ. पिछले कई महीनों से मेरे पोस्ट पर आ रही प्रतिक्रियाओं को पढ़ पा सकने में असमर्थ थी कारण कुछ तकनीक का मुझसे छूट जाना या ऐसा कह लीजिए कि मेरा तकनीकी रुप से अशिक्षित होना. इतने दिनों से आ रही प्रतिक्रिया मॉडरेशन के लिए चली जाती थी और मेरे पास कोई संदेश भी न आता. ब्लॉग बनाते समय मैंने मॉडरेशन मोड नहीं लगाया था तो कभी जाँचने का प्रयास भी नहीं किया. संभवतः थीम बदलते समय असावधानी वश लग गया. आप सभी सुधीजनों के ऊर्जावान शब्दों को मैं इतने दिन तक पढ़ नहीं पाई...आज इस बात का बहुत दुःख हो रहा है.

यह कोई पोस्ट नहीं एक क्षमायाचना है, कृपया आप लोग इसे अन्यथा न लीजिएगा. मैं अकिंचन अभी इतनी बड़ी लेखक नहीं हूँ कि आपके निरन्तर मिल रहे स्नेह को मॉडरेट करूँ. अगर आप में से कोई भी मुझे ये बताना चाहे कि ये प्रक्रिया हटाकर अविलम्ब प्रतिक्रिया कैसे प्रकाशित हो, तो सहर्ष स्वागत है.

धन्यवाद 🙏

कालिदास की जयंती पर विशेष


हमारा इतिहास प्रकाण्डता से कितना परिपूर्ण है इसका आभास पिछले पन्ने खोलकर देखने पर होता है. कालिदास, हां यह एक ऐसा नाम है जिनकी कल्पना करने पर सहसा हमें मूर्धन्यता से विद्वानता तक की राह याद आती है. हम सुमिरन कराते चलें कि कालिदास की गणना इतिहास के उन मूर्खों में की जाती है, जिनका विवाह संस्कृत भाषा की प्रकांड विदुषी विद्योत्तमा से हुआ. अनजाने में हुए विवाह से विद्योत्तमा को बहुत ठेस पहुंचती है और वह एक मूर्ख को अपना पति स्वीकार न करके उन्हें घर से निकाल देती हैं साथ ही यह भी कहती हैं कि मेरे पास आना तो विद्वान बनकर आना. मूर्ख कालिदास ने सच्चे मन से काली देवी की आराधना की और उनके आशीर्वाद से विद्वान बन गए. विद्योत्तमा की धिक्कार को उन्होंने नकारात्मक न लेकर सकारात्मक लिया और उन्हें ही अपना पथ प्रदर्शक एवं गुरु माना.
कालिदास के जीवन से दो बातों की गहन शिक्षा मिलती है… पहली तो ये कि पथ कितना भी दुर्गम हो, गन्तव्य तक पहुंचना असम्भव नहीं. दूसरी शिक्षा यह कि मौन व्याकुलता और विकलता से परे एक ऐसी शक्ति है जो किसी के भी मनोभावों को कई अर्थ में प्रवाहमान रख सकता है. हम किसी के मौन को अपना गुरु मान लें और सकारात्मक सोच पर चलना प्रारम्भ कर दें तो अजेय रह सकते हैं.
सुनना यदि श्रेष्ठ है तो मौन की अनुभूति श्रेष्ठतम.


आईने वाली राजकुमारी: भाग IV


चेतक हवा से बातें कर रहा और राजकुमारी स्वयं से. उनका मन उलझनों से घिर रहा था और वो उड़कर महल तक पहुँचना चाहती हैं. महल में पहुँचते ही सर्वप्रथम रानी माँ के गले लग जाएँगी और उन्हें विस्तार से बताएँगी कि उनके साथ क्या-क्या घटित हुआ. जीवन के अठारह वर्ष यही तो करती आयीं हैं. माँ के अंक में शिशु की भाँति समा जाना. विह्वल सी होकर चेतक को एड़ पर एड़ लगाए जा रहीं थीं. सहसा ही चेतक की धीमी होती गति ने संकेत दिया, महल समीप ही है. मुख्य द्वार के सामने पहुँचते ही राजकुमारी चेतक को सैनिक के हवाले कर भीतर की ओर भागीं.
"तुम चेतक के साथ दौड़ की स्पर्धा करने गयीं थी क्या?"
"क्यों माँ सा, आपने ये प्रश्न क्यों किया? हम तो चेतक की लगाम थामकर उड़ते चले आए"
"तुम्हारी बढ़ी हुई श्वांस को देखकर कहा. कहीं कुछ अघटित तो नहीं घटित हुआ?"
"कैसा अघटित माँ सा? वैसे भी जो होता है वो पूर्व निर्धारित ही होता है फिर उसे अघटित क्यों कहें?"
"आज अपनी प्रथम यात्रा में ही ऐसा प्रतीत हो रहा कि तुम बहुत कुछ सीखकर आयी हो" रानी माँ ने विस्मय से राजकुमारी के नेत्रों में देखकर कहा. इस पर राजकुमारी मौन होकर दूसरी ओर देखने लगीं…'लग रहा माँ सा ने हमारा चेहरा पढ़ लिया' आगे कुछ भी बोलना उन्होंने उपयुक्त नहीं समझा. नन्हा सा मन इसी क्षण बड़ा हो गया कि उसने पलों में समस्या सुलझाती माँ सा के सामने असत्य का सहारा लिया. उन्हें भान हो गया यदि माँ सा को सारी बात पता चली तो अकेले नहीं जाने देंगी. राजकुमारी को अभी इसका आभास कहाँ कि अपनों के सामने बोला गया पहला असत्य उन्हें कठिनाइयों के हाथ को कठपुतली भी बना सकता है.
"माँ सा हमें थकान हो रही"
"जाओ विश्राम करो" इतना सुनते ही राजकुमारी अपने कक्ष की ओर बढ़ी. उन्हें विश्राम से अधिक एकांत की आवश्यकता थी. जल- प्रक्षालन कर अपने शयनगृह में आ गयीं. न चाहते हुए भी आँख बंद करने पर "वो" राजकुमारी की यादों में आ गया. उन्होंने झट से आँखें खोल दीं. सिरहाने जल रहे दीये की बाती पर तर्जनी रख दी. शयनगृह अंधेरे की आभा से आलोकित हो उठा और वो उन स्मृतियों से…'किसी चेहरे में इतना आकर्षण कैसे हो सकता है'...उनके मन का एक भाग उस ओर खिंच रहा था जिसे वापस लाने का निरर्थक प्रयास वो करती रहीं. कभी उजाले से भागकर तो कभी अंधेरों में स्वयं को समेटकर. स्नेह की एक अनदेखी डोर पर मन बावरा हो चला. शब्द तो नकारे जा सकते थे पर मन के भाव नहीं. उनकी सोच में तो यह तक आ गया कि...उसने कुछ देर और रुकने को उन्हें विवश क्यों नहीं किया!

शब्दों की छुअन और मैं


तुम्हारा हाथ अपने हाथों में लेकर
सदियों तक बैठना चाहती हूँ तुम्हारे पास
और तुमसे पूछना चाहती हूँ वो सब कुछ
जो मैं तुम्हें पढ़ते हुए महसूस कर पाती हूँ…
कैसे उतरती हैं मुंडेरें छत से
शाम की ढलती धूप में,
कैसे कागज रोता है शब्दों से गले लगने को,
कैसे प्रेमी की आँखों में रात होती है,
कैसे सपने मुरझाकर आकाश की हथेली पर
हल्दी रखते हैं सूरज वाली,
कैसे देख सकते हो आसमान में लाल रंग उतरना,
सियाह रात में धनक का खिल जाना,
खिलती होगी पलाश से
जंगल की आग
मैं तो तुम्हारे भावों की बिछावन पर
मन सेकती हूँ.
कैसे तुम शब्दों को इतना प्रेम सिखा पाते हो!
इन्हें पढ़ते ही इनसे कर बैठती हूँ आलिंगन
गोया तुम यहीं हो
और मैं... 
मैं तो बस स्नेह की कठपुतली
जिसकी डोर तुम्हारे शब्दों ने
अपनी उंगलियों में फंसा रखी है
जितना चाहो हँसती हूँ
जितना चाहो रोती हूँ
यह तुम्हारे शब्द भी ना
जाने इतने जीवित से क्यों होते हैं!
कभी-कभी पीछे से आकर
अचानक कंधे पर हाथ रख देते हैं
जब मुड़कर देखती हूँ
तो आंखें फिरा लेते हैं
ये तुम्हारे शब्द पसंद करते हैं
मेरी आंखों से चूमा जाना
इन्हें भाता है मेरे दर्द का जिमाना
मगर कहते नहीं कभी मुकर जाते हैं
कि बोल भी सकते हैं.

आईने वाली राजकुमारी: भाग III


गतांक से आगे--


"तो आप द्वैत गढ़ की राजकुमारी हैं?" उन अपरिचित ने प्रश्न कर राजकुमारी का ध्यान भंग करने की चेष्टा की.
"हम किन शब्दों में अपना परिचय दें तो आप समझेंगे?" राजकुमारी ने भी पलटवार किया.
"आप अपनी जिह्वा को अधिक विश्राम नहीं देती हैं?"
"आप प्रश्न अधिक नहीं करते हैं?"
"हमें आपके प्रत्युत्तर भाते हैं"
राजकुमारी के नेत्रों में न परन्तु हृदय पर हाँ की छाप लग चुकी थी.
"आप यहाँ आती रहती हैं क्या?"
"हम क्यों बताएँ?"
"हम पूछ रहे क्या ये कारण पर्याप्त नहीं?"
"आप तो हमसे ऐसे कह रहे जैसे हमारे सखा हों!"
"आप हमारी सखी तो हैं"
"हमने कब ऐसा कहा? हम तो आपसे बात भी नहीं कर रहे"
"बात तो आप अब भी कर रहीं और तो और हमें अंजुरि में जल भरकर दिया"
"बात करने का तो कुछ और ही प्रयोजन है और जल देकर तृष्णा बुझायी"
"आपको देखते ही रेत का एक जलजला हमारे भीतर ठहर गया और आप कहती हैं तृष्णा बुझ गयी"
"आप हमें बातों के जाल में उलझा रहे हैं"
"आपके नेत्रों ने हमारा आखेट किया है"
"यह कैसा आरोप है?"
"क्या प्रमाण नहीं चाहेंगी?"
"---"
"हमें अनुमति दीजिए कि हम आपके हृदय के स्पंदन की अनुभूति कर आपको प्रमाण दे सकें!"
"हमारा हृदय...स्पंदन...प्रमाण...बेसिरपैर की बात कर रहे हैं आप"
"विवाद नहीं सुंदरी अनुभव कीजिए"
इतना सुनते ही राजकुमारी के हृदय का स्पंदन गति पकड़ने लगा. स्वयं को बचाने के प्रयास से वहाँ से वापस जाना ही उपयुक्त लगा.
"कहाँ चली सुंदरी...सुनिए तो...हम पूर्णिमा की संध्या यहीं झील के किनारे आपकी प्रतीक्षा करेंगे. आपको आना ही होगा अगर हमारे चन्द्रमा से मिलना को प्रतीक्षारत हैं आप..."
राजकुमारी ने जाते हुए इतना सुन लिया था. तेज गति से चेतक की ओर भागी. बैठते ही एड़ लगायी और चैन की साँस ली.
अगला भाग पढ़ने के लिए कल तक की प्रतीक्षा...

आईने वाली राजकुमारी: II


राजकुमारी इठलाती हुई महल से बाहर आ गयी. कुछ हो क्षणों में उनका चेतक हवा से बातें करने लगा. पालकी और चेतक दोनों एक-दूसरे के विपरीत पर उनमें से किसी को भी एक-दूसरे के साथ की आवश्यकता ही कब थी. वो तो रानी के आदेश का पालन करना था. राजकुमारी आज अपने प्रथम भ्रमण में इतनी उन्मुक्त होकर विचरण कर रहीं थीं. कभी उड़तीं तो कभी रुककर सुरम्यता को अपलक निहारतीं. आज का भरपूर आनंद ले रही थीं. ठीक मयूरी विहार के सामने पहुँचकर चेतक को एड़ लगायी. उतरते हुए उसकी पीठ पर थपकियां दीं जो कि आभार है इस प्रथम सैर के लिए. सामने झील से कल-कल करते हुए पानी ने उन्हें अपनी ओर आकर्षित किया और वो मंत्रमुग्ध हो उसी ओर भागीं. ऊपर से गिरते हुए स्वच्छ जल से अठखेलियाँ करने लगीं. तभी विपरीत दिशा से आई आवाज ने उनका ध्यान खींचा…
"पीने को जल मिलेगा सुंदरी?" अनजानी आवाज ने उन्हें चौंका दिया. पीछे मुड़ते ही एक छबीला, गहरे नयन-नक्श वाला युवक सामने था. जिसके चेहरे पर अप्रतिम आभा थी...जल भूलकर वो राजकुमारी के सौंदर्य को अपलक निहारता रह गया.
"बड़े निर्लज्ज प्रतीत होते हो!" राजकुमारी के इतना कहने पर भी उसने पलकें नहीं झपकायीं. राजकुमारी ने अपनी म्यान पर हाथ रखा ही था तभी चेतक की हिनहिनाहट ने दोनों का ध्यान खींचा.
"सुंदरी...जलपान करना है"
"यह क्या आप सुंदरी-सुंदरी कह रहे हैं. हम द्वैतगढ़ की राजकुमारी हैं. यह झील अथवा झरना हमारी सम्पत्ति नहीं. आप स्वयं जाकर जल लीजिए"
"हम निर्लज्ज तो नहीं आप निर्मोहिनी अवश्य प्रतीत होती हैं. एक भटकते हुए पथिक पर तनिक भी दया नहीं"
"दया या निर्दयता का कोई प्रश्न ही नहीं. आइये हमने चश्मे का स्थान रिक्त कर दिया. जल ग्रहण कीजिए"
"ऐसे नहीं राजकुमारी हम तो आपकी अंजुरि से ग्रहण करेंगे"
"आप तो बहुत हठी प्रतीत होते हैं"
"हठी नहीं राजकुमारी हम एक श्राप के भय से ऐसा कह रहे हैं. अगर हमने यह बहता हुआ पानी अपनी अंजुरि में लिया तो हम पत्थर के हो जाएंगे" यह सुनकर राजकुमारी का मन पिघल गया और वो उन अपरिचित युवा को अंजुरि में भरकर जल पिलाने लगीं. दोनों एक-दूजे को स्नेहमयी होकर तकने लगे.
वेश भूषा और वार्तालाप से पूरा संकेत मिल रहा था कि वो एक साधारण व्यक्ति न होकर राजकुमार हैं.

कल पढ़िए इसका अगला भाग

आईने वाली राजकुमारी


बात यही कोई एक सौ साल पुरानी है द्वैतगढ़ में एक राजकुमारी रहा करती थी जो अपनी सुंदरता के लिए जानी जाती थी. उनके अधरों पर प्रशंसा के कितने ही गीत लिखे गए जो यदाकदा उनके कत्थई नेत्रों के सामने से आए गए परन्तु उनके गुलाबी गालों को सम्मोहित न कर सके. अपने भाई सा से उन्होंने तलवार चलाना बस इसलिए सीखा कि उनकी ओर उठने वाली लालसा भारी निगाह को वो सबक सिखा सकें. प्रतिभा और सौंदर्य से पूर्ण होने के बाद भी गर्व किंचित उन्हें स्पर्श तक न करता था. महाराज, महारानी और युवराज की लाडली राजकुमारी को बस इसी बात का दुःख था कि उन्हें कहीं भी अकेले जाने की अनुमति नहीं मिलती थी.
एक दिन राजकुमारी अपने भवन में उदास बैठी थी. दासी ने इसकी सूचना महारानी को दी. महारानी उस समय अपना शृंगार करवा रही थीं परन्तु सब छोड़कर भागीं. माँ को आया देख राजकुमारी ने उनकी ओर अपनी पीठ घुमा दी.
"पुत्री, ऐसा मत करो. पीठ तो शत्रु को दिखाने का रिवाज है"
"तो आप आज ये प्रमाणित कीजिए कि आप हमारी मित्र हैं"
"तो इसके लिए क्या करना होगा हमें?"
"हम आज मयूरी विहार जाना चाहते हैं, आप अनुमति दीजिए"
"बस कुछ क्षण प्रतीक्षा कर लो. तुम्हारे भाई सा आ रहे होंगे"
"नहीं, हम अभी इसी क्षण और अपने चेतक पर अकेले जाना चाहते हैं"
"यह इच्छा हम पूरी नहीं कर सकते"
"तो आप हमारी मित्र नहीं. हम अठारह बरस के हो गए. समझदार हैं. निडरता और चतुराई के कौशल से पूर्ण हैं परंतु इस महल में ही बंद होने को विवश हैं"
"यह मत भूलो कि तुम सौंदर्य कला से पूर्ण एक युवती भी हो"
"परन्तु अपनी सुरक्षा तो कर सकते हैं"
"कुछ भी हो… ममहाराज के आने तक तुम्हें ठहरना ही होगा"
"ठीक है हम भी अब अन्न जल तब तक नहीं ग्रहण करेंगे, जब तक महाराज नहीं आते"
"पुत्री तुम नाहक ही वाद कर रही हो"
"माँ सा… हमारा चेतक बाहर प्रतीक्षा कर रहा"
बहुत अनुनय विनय के पश्चात महारानी इस शर्त पर मानी कि राजकुमारी के घोड़े के साथ उनकी पालकी भी जाएगी और उसमें दासियाँ होंगी. माँ सा का हाथ चूमकर राजकुमारी ने हामी भर दी.

अगला भाग जल्दी ही...

एंटी डिप्रेशन

कल एक उदास सी दोपहर में कुछ नहीं करने के इरादे से कुछ नहीं सोच रही थी मैं. जब कुछ नहीं करती हूँ तो घुप्प अंधेरी जगह पर बैठना पसंद करती हूँ. तभी फ़ोन की घण्टी बजी. मन न होते हुए भी उठाना पड़ा. इन दिनों जीने की ऐसी इच्छा जगी कि ख़ुद में एकाकीपन भर लिया ताक़ि मन को आवाज़ को समझ सकूँ. इनसे, उनसे, तुमसे...सब से दूर.
जैसे आत्मा है चार धाम
कर यात्रा जपें राम नाम.
"हेलो" जबरदस्ती की आवाज़ में बोल दिया.
"दीदी कुछ सुना तुमने?" उधर से हड़बड़ाई सी रुआंसी आवाज़ आई. मुझे पता था ये आगे क्या कहने वाली है क्योंकि सुशांत का दुःखद अंत कुछ देर पहले ही भाई ने बताया था. फ़िर भी मैंने अनजान बनते हुए कहा,
"मैं कैसे सुनूँगी...हुआ क्या?"
"वो सुशांत ने सुसाइड कर लिया…"
"कौन सुशांत?"
"अच्छा तुम टी वी नहीं देखती ना! वो धोनी में हीरो था"
"अच्छा"
"तुम्हें कोई अफ़सोस नहीं हो रहा क्या?"
"नहीं! मुझे सुसाइड करने वाले लोगों के साथ कोई सिम्पथी नहीं"
"क्यों किया होगा उसने ऐसा?"
"उसे ये नहीं पता होगा कि जहाँ सब कुछ ख़त्म हो जाता है शुरुआत वहीं से होती है"
"फ़िर भी क्या हुआ होगा...इतना बड़ा आदमी"
"डिप्रेशन...और शायद वो मन से बहुत छोटा था"
"आज मुझे तुम्हारी value समझ में आ रही है. कितने ही बार तुमने मुझे डिप्रेशन से बाहर निकाला है. मेरा भी सुसाइड करने का मन किया"
"अगली बार मन करे तो निकल लेना. मुझे पछतावा करने वाले बिल्कुल नहीं पसंद"
"अच्छा दीदी तुम्हें डिप्रेशन कभी नहीं हुआ या फ़िर सुसाइड करने का मन…?"
"तुम इमोशनली स्ट्रांग हो तो इस सच को स्वीकार कर रही हो...और मैं साइकोलॉजिकली स्ट्रांग हूँ अपना दर्द पी सकती हूँ पर लोगों के सामने हार कैसे मानूँ!"
"ऐसा क्या…?"
"हाँ अइसन बा" सैड पॉइंट से हैप्पी नोट तक आकर बात ख़त्म हो गई और अपने पीछे बहुत से सवाल छोड़ गई.
मुझे अंदर कुछ चोक होता सा लगा. खिड़की से बाहर देखा धूप बहुत थी...मुझे तुम याद आए. तुम्हारी किताब खोलकर बैठ गई पर यहाँ तो भीतर से भी ज़्यादा दर्द है. सच मुझे बहुत दर्द हो रहा था. पूरी रात मौसम के बदलते तेवर से लड़ती रही. आज 24 घण्टे बाद बहुत हिम्मत जुटाकर तुमसे आग्रह किया और तुमने उन्मुक्त होकर रंग बिखेर दिए शब्दों के. आज बहुत दिनों के बाद मेरा कमरा रोशनी से भर गया.
तुम्हें पता है एन्टी डिप्रेशन हो तुम मेरे.

रिश्ता


रिश्ते और रास्ते यकसाँ नहीं होते कि जरुरतों पर बदल लिए जाएं. किसी से रिश्ता बनाने पर खुद को भी उतना ही बनाना पड़ता है. कोई हमारे लिए बिल्कुल उपयुक्त है ये तो हो ही नहीं सकता फ़िर हम किसी के लिए बेहद सटीक हैं यह कैसे संभव है? ये तो दो लोगों के बीच का अपनापन होता है कि दूरियाँ, दूरियों सी नहीं लगतीं.
जब हमें हमारे मन सा कोई लगता है तो बिन महसूस किए ही उसके क़रीब चले जाते हैं. यहाँ तक कि हर साँस पर हुआ दस्तख़त भी देर से समझ आता है. ये भी सौ फ़ीसदी सही है कि हम उसी के क़रीब जाते हैं जो हमें आँखें बंद करने पर भी देखना पसंद करता है. हमारी चाहत और उसकी पसंद का एकाकार ही रिश्ते को जन्म देता है. जब रिश्ता नया हो तो उसमें डूबना स्वाभाविक है ठीक वैसे ही जैसे ड्रेस नई हो तो पार्टी तो बनती ही है बस इसी तरह नए रिश्ते की ट्रीट होती है. हमारा सुप्रभात उसके लिए सुबह आगे बढ़ाने का वायस बनता है और उसका जवाबी संदेश हमारी ख़ुशी. अग़र किसी दिन सकाले न हो तो द्विप्रहरे एक छोटी सी शिकायत...और इस पर भाव बढ़ना तो स्वाभाविक है. यहीं से रिश्ता एक अहम बन जाता है… मेरा दोस्त, मेरी ज़िंदगी...वो लगाव, अपनापन बढ़कर केअर में बदल जाता है कि अग़र हमारे पास धरती हिली तो हमें तुरन्त उसका ख़याल आ गया…'कैसा होगा वो!' यह बहुत ही स्वाभाविक है. यहाँ पर जब हम थोड़े से कम होंगे तभी उसके आसपास मौजूद रहेंगे. तालमेल बिठाने के चक्कर में बहुत कुछ खो भी रहा होता है पर हम आँखों में स्नेह लिए आगे बढ़ते ही रहते हैं. यह आगे का रास्ता 50 प्रतिशत हमारे स्नेह पर और 50 प्रतिशत उसके इंतज़ार पर निर्भर करता है. जितना हम उसे दे रहे होते हैं उतना ही हमें मिल भी रहा होता है. अग़र बात दोनों तरफ़ से बराबर न हो यहाँ तक आना ही असम्भव था. हमने उसकी केअर तब की जब उसे अच्छा लगा.
कभी-कभी ये बरसों चलता है और कभी महीनों में ही THE END हो जाता है. पहले तो वो हमारे स्नेह को महसूसता है फ़िर मन की वही आवाज़ एक शोर सी लगने लगती है क्योंकि तब तक हम बाहर की आवाज़ें सुनने लग जाते हैं…सबसे बड़ा रोग क्या कहेंगे लोग… ये 'लोग' आख़िर हैं कौन, वही ना जो हमें ये समझा रहे हैं. उनका काम ही यही है, वो सबको कहते हैं. समाज को सीधा साधा "हम-तुम" क्यों नहीं समझ आता? कोई ख़ुश है हमने उसकी ख़ुशी बाँट ली तो लोगों को ख़ुशी क्यों नहीं हुई? धीरे-धीरे दूषित विचारों का ज़हर तुम्हारे दिमाग़ में आने लगता है और तुम हमारे लिए अपनी भावनाओं को अपने मन का शोर समझने लग जाते हो. ये शोर तुम्हें भीतर ही भीतर परेशान करता है और इसका अंजाम ये होता है कि मासूम सा रिश्ता प्रश्नों के समीकरण में उलझने लगता है. हम अब तक अपनी ही धुन में मुस्कराकर सुप्रभात करते हैं और तुम हमारी मुस्कान को हममें, ख़ुद में छुपाने की कोशिश करने लगते हो… कहीं कोई देख न ले. यहीं से शुरुआत हो जाती है तुम्हारे बचकर निकलने की. एक दिन हम बहुत व्यस्त होते हैं, ऑफिस, घर, काम, बच्चे और शाम को भी थककर आँखें बंद कर लेते हैं फ़िर अचानक तुम्हारा ख़याल आ जाता है कि तुम हमारे संदेश का इंतज़ार कर रहे होगे. नींद भरी आँखों के बावजूद भी मेसेज करते हैं. गहरा रही रात इशारा करती है सोने का… सुबह आँख खुलते ही सुप्रभात किया पर यह क्या अभी रात का ही कोई जवाब नहीं...हम तुम्हारे मौन में छिपी मामले की गंभीरता को शायद भांप नहीं पाते हैं और तुम्हें अब भी अपना वही अहम वाला दोस्त मानते हुए उलाहना देते हैं. तुम्हारे शब्दों में ख़ामोशी और मेरी कही में दर्द बढ़ रहा होता है. कई बार हमें लगता है कि जाने-अनजाने कोई ग़लती हो गई हो तो तुम्हें बुरा लगा हो… हम हर तरह से अपनापन जताने की कोशिश करते हैं, शिकायतें भी करते हैं ताकि तुम्हें हम वही अपने से लगें. दरिया के शांत पानी में कई बार निरर्थक पानी उछालने की हमें सजा मिलती है और पहले तुम हमारे जिस अहसास को केअर कहते थे आज उसे ही पजेसिवनेस कह देते हो. पहले हमारे छोटे-छोटे प्रश्न तुम्हें अच्छे लगते थे अब उन्हें सुनना नहीं चाहते. हम ख़ुद में कमी और तुममें गुस्से का कारण ढूँढने लगते हैं. तुम चुप हो जाते हो, हमसे हमारी बातों से बचने लगते हो. हमारे अंदर दर्द का आकार बढ़ने लग जाता है. तुम्हारा मौन पढ़ पाने में असफ़ल हम वहीं भटकते रह जाते हैं जहाँ तुमने हमें छोड़ा था. हमारी आत्मा उस वक़्त बिल्कुल मर रही होती है जब तुम सभी के लिए नहीं बस हमारे लिए बदल गए हो.
एक रिश्ता जो गुमान था कल आज नफ़रत में बदल रहा. कल तुम्हें इंतज़ार रहता था हमारे बोलने का आज हमारा कुछ भी बोलना तुम्हें बुरा लगता है. तुम्हारी ख़ामोश आँखें एक दिन पूछ बैठती हैं "मुझ पर हक़ ही क्या था तुम्हारा जो इतनी अपेक्षाएँ पाल बैठीं… " इस एक बात के आगे सारी बातें ख़त्म हो जाती हैं… ज़रा सम्हलकर चला करो ये आवारगी थी तुम्हारी. ख़ुद को समेटते हुए हम ये भी नहीं पूछ पाए… अग़र वो आवारगी थी तो तुम्हारा हमारे क़रीब आना क्या था?
कुछ हुआ न हुआ मग़र इस जमाने ने आवारा बना दिया.

मेरी पहली पुस्तक

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