नीलाभ छितरे गगन के तले
भावनाओं से बंजर जमीं पर
श्वेत शांति मध्य में समेटे
गति की आभा, केसरिया शौर्य लिए
मैं हूँ विक्षिप्त भारत माता
प्राणवायु मुझे छूकर निकलती है
जल की थाती जीवन का संचार करती है
अरुणाभ से मैं जगती हूँ
श्वेत चाँदनी में खिलती हूँ
प्रेम और वैराग्य से पोषित हूँ
सीप की गोद में खिलकर
हिमालय के मुख में मिलती हूँ
स्वाभिमान का प्रतीक, पर
विक्षिप्तता की दहलीज़ पर हूँ
मेरे पैरों में समृद्धि और स्नेह के
सूचक बना दो
ए जीवन, मेरे आगमन का मंगल गा दो
To explore the words.... I am a simple but unique imaginative person cum personality. Love to talk to others who need me. No synonym for life and love are available in my dictionary. I try to feel the breath of nature at the very own moment when alive. Death is unavailable in this universe because we grave only body not our soul. It is eternal. abhi.abhilasha86@gmail.com... You may reach to me anytime.
आहत भारत
यादों की सीलन पर ठहरी धूप: भाग- III
सज़ायाफ़्ता स्त्री
स्त्री हूँ मैं
स्वाभिमान की पराकाष्ठा तक जाती हूँ,
प्रेम करती हूँ वो भी प्रगाढ़
खुद को मारकर
तुम्हें अपने अंदर जीती हूँ,
मेरी देह का स्वाद इतना भी सस्ता नहीं
कि जब जरूरत हो तब याद आऊँ
शेष पल प्रेमहीन जियूँ,
क्यों मिल रही है मुझे
ये धिक्कार, वेदना और तड़प
.......…..…..………
वर्जित था अति प्रेम
इस खोखले पुरुष समाज में,
झुक जाता है उनका पुरुषत्व
प्रेम का मान देने में
...शायद तभी मैं बन गई हूँ
एक सज़ायाफ़्ता स्त्री...
दर्द हूँ फिर भी दुखता हूँ
आतंक से जन्मा दर्द हूँ मैं,
मेरे गर्भ में छिपी हैं
वहशियत की दास्तानें;
काल के कपाल पर
तांडव करता रहता हूँ
तभी तो उपजती हैं तारीखें
याद है न छः अगस्त का वो मनहूस सा दिन
और नौ अगस्त, भूल गए क्या
...कैसे भूलोगे
मनाई जाती है मेरी बरसी हर साल,
मेरे आग उगलते सीने पर
रख देते हो श्रद्धांजलि के फूल,
क्यों करते हो ये नाटक
जब मुझे रौंदते ही जाना है;
वाह सत्ता-लोलुपों, मौत के सौदागरों
क्यों खेलते हो विनाश का ये खेल,
उगाते हो अपने खेतों में
जैविक हथियारों की फसलें,
भावनाओं को दहनते
रसायनों के जंगल बनाते चले जा रहे,
मन को इतना छोटा कर लिया
कि सीमाओं पर मरने लगे,
घुसपैठिए न आ जाएं कहीं
सियाचिन ग्लेशियर पर चौकसी करने लगे,
न कुछ बन पड़े तो
दूरस्थ देशों से आका आते हैं बंदरबांट करने को;
तुम हथियार भी बनाते हो,
तुम मध्यस्थता भी कराते हो
फिर भी सीमा पर अपना लाल भेजते हो
और चैन से नहीं सो पाते हो;
कब समझोगे और रुकोगे
प्रेम के बीज चुनोगे
हथियारों की फसल लहलहाने से पहले;
समय के पन्ने पलटो महसूसो मुझे
कैसे मेरी छाती फटी थी
जब हिरोशिमा, नागासाकी की धरती हिली थी,
सहम गया था मैं भी
जब लाशों के चीथड़े उड़ रहे थे,
दर्द में कलपते जिस्म
समाने को धरती की छाती चीर रहे थे,
सियासी नग्नता उछल-उछलकर
मनहूसियत की सलामी ले रही थी,
मैं सिसक रहा था,
दहक रहा था
कि ये देखने से अच्छा हो
किसी तोप के मुँह पर बाँध दिया जाऊँ,
दर्द हूँ मैं तो क्या हुआ
फिर भी दुखता हूँ,
तुम तो एक इंसान ही हो,
मत दोहराओ इतिहास,
क्या रखा है मिसाइल में, तोपों में
हथियारों के ज़खीरों में
एक और नागासाकी
एक और हिरोशिमा
और मैं....?
यादों की सीलन पर ठहरी धूप: भाग- II
तुम ही नहीं तो...
उन होठों से लगा चाय का प्याला
या हो मेरे भूखे पेट का निवाला
न हो वो तो सब स्वाद फ़ना है
दोस्त तुम ही नहीं तो रौनक कहाँ है?
मैं सोचूँ गर तुम्हें, तुम सामने मुस्कराओ
मुझे ईश से पहले तुम नज़र आओ
वार दी है मैंने तुझपर किताबों की दौलत
हो बन्दिगी में शामिल, ज़िंदगी बनाओ
मेरी हथेलियों पर तेरा नाम लिखा है
दोस्त तुम....
तुम्हारे नाम अपनी सुबह-शाम लिखूँगी
तुमपर ही अपनी उम्र तमाम लिखूँगी
देवालय हो मेरा घर या मदिरालय की राह लूँ
ईश से भी ऊपर तुम्हारा नाम लिखूँगी
तुमसे है मंदिर-मस्जिद, अजान-दुआ है
दोस्त तुम...
यादों की सीलन पर ठहरी धूप: भाग- I
जन्मदिवस की असीम शुभकामनाएं
जन्मदिन पर बधाई देना
बीमा की प्रीमियम भुगतान जैसा है
हर वर्ष नियत समय पर
भले ही किसी कार्यक्रम का
कोई काल-चक्र रुक जाए
पर स्नेह के इन पलों में असंतुलन न आए,
अक्षरों में न तो नेह ठहरता है
और न शब्दों में बधाई समाती है
फिर भी अपने और अपनों में भेद कराते
ये शब्द ही तो थाती हैं;
कुछ भी नहीं है इस अकिंचन के पास
कुछ शुभकामना के पल अशेष हैं,
ओस पर चमकती धूप मुबारक़ हो तुम्हें
बादलों की गोद में इंद्रधनुष का रूप
मुबारक़ हो तुम्हें
सागर सी गहराई, हिमालय सी ऊँचाई
क्षितिज की थाह जो दुनिया देख न पाई
प्रकृति की सुंदरता मुबारक़ हो तुम्हें
अग्नि की पावनता मुबारक़ हो तुम्हें
लम्हों की अनवरतता मुबारक़ हो तुम्हें
युगों की सत्ता मुबारक़ हो तुम्हें
परिस्थितियों की विषमता तुम्हें छू न पाएं
गांडीव, सुदर्शन बन रक्षा कवच मुस्कराएं
माथे पर रहे अक्षत, रोली का टीका
बारिशों का जल आचमन को आए,
समय की नब्ज थामकर
अंकित कर दो अपने हस्ताक्षर
उम्मीदों के आसमान पर
लिखते रहो स्वर्णाक्षर,
कर लो दुनिया मुट्ठी में कोई बड़ी बात नहीं
छोटे से मन की बस इतनी सी अभिलाषा है
ये किस्से भी न...
झूठ के पांव से चलते हैं किस्से
बहुत लंबी होती है इनकी उमर
हर मुसाफिरखाने पर रुकते हैं
करते ही हैं थोड़ी सी सरगोशी हवाओं में
फिर बांधकर पोटली निकल पड़ते हैं;
ये किस्से भी बड़े अजीब होते हैं
महसूस सच के बेहद करीब होते हैं
किसी के लिए शहद भरे हों जैसे
तो कहीं कड़वे करेले नसीब होते हैं,
तितलियों के पंखों में बँध जाते हैं
पक्षियों के ठौर पर इतराते हैं
विदेशी बन ठाठ से जाते हैं कभी
तो प्रवासी बन मन को लुभाते हैं कभी
उम्मीदों की गिरह से निकलते हैं
दुआ-ताबीज के बेहद करीब होते हैं
ये किस्से भी न..
ये चलने का मुहूरत नहीं देखते
और न ठहरने का ही समय
दबे पाँव महफ़िल की शान बनते हैं
ये मुखारबिन्दु से तभी निकलेंगे
जब होंठ हो हाथों से छुपे
एक मुंह से दूसरे कान का सफर तय करते हुए
न-न में भी महफ़िल की रौनकें बन जाते हैं
सच के कंधे पे अपनी मैराथन पूरी करके
उसे पार्थिव बना मुस्कराते हैं
अमीर होकर भी कितने गरीब होते हैं
ये किस्से तो बस....
राजा-रानी के किस्से
नाना-नानी के किस्से
दम तोड़ते रिश्तों के
हर घर की कहानी के किस्से
घर से गलियों से निकले
संसद के गलियारों के किस्से
हीरेजड़ित अमीरों के हो कभी या
टाट की पैबन्द से निकले गरीबों के हिस्से
ये किस्से अगर मर भी जाएं तो क्या हो?
मग़र ये बड़े बदनसीब होते हैं
ये किस्से तो उफ्फ्फ....
वेज तड़का मसालेदार होते हैं कभी
तो नॉनवेज भी निकलते हैं
साधारण शुरुआत होती है इनकी
परोसने तक गार्निश होकर मिलते हैं
पचते नहीं हैं किसी पेट में ये
तभी तो कानों से होकर मुँह से निकलते हैं
होतेे ही रहते मकानों के अंदर
गूँगी ये दीवारें बोलती कब हैं इनको
मग़र कान फैला ही देते हैं जग में
हे प्रभु, किस्से पच सकें वो ऑर्गन बना दो
या इंसानी नियत को हीलियम से भारी बना दो,
औरो की गिराने की चाहत में नंगा हुआ जा रहा
मुफ़लिसी, दर्द के ये सबसे करीब होते हैं
ये किस्से भी छि ...बड़े अजीब होते हैं
जीजी को ताई से लड़वा दें
आंखों के पहरे को नीम्बू मिर्च लटका दें
सच के गर्दन पे तलवार रखकर
पड़ोसी की बीवी को लुगाई बना दें
बेटी के ब्याह का न्योता पिता को भेजकर
आहों की भी जगहंसाई करा दें,
अपनी न किसी और की सही
श्वसुर के दामाद को ओलम्पिक में मेडल दिला दें
कहीं हो न जाए उलटफेर इतनी
काश कि शोक सभा में खुद को स्वर्गीय बना दें,
पर कहाँ सच के इतने नसीब होते हैं
ये किस्से भी न इतने ही अजीब होते हैं।
मेरी पहली पुस्तक
http://www.bookbazooka.com/book-store/badalte-rishto-ka-samikaran-by-roli-abhilasha.php
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•जन्म क्या है “ब्राँड न्यू एप का लाँच” •बचपन क्या है टिक टाक वीडियो •बुढ़ापा क्या है "पुराने एप का नया लोगो” •कर्म क्या हैं “ट्रैश” •मृ...
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प्रेयसी बनना चाहती है वो पर बिना पहले मिलन प्रेम सम्भव ही कहाँ, सुलझाते हुए अपने बालों की लटें उसे प्रतीक्षा होती है उस फूल की जो उसका...