आहत भारत

नीलाभ छितरे गगन के तले
भावनाओं से बंजर जमीं पर
श्वेत शांति मध्य में समेटे
गति की आभा, केसरिया शौर्य लिए
मैं हूँ विक्षिप्त भारत माता
प्राणवायु मुझे छूकर निकलती है
जल की थाती जीवन का संचार करती है
अरुणाभ से मैं जगती हूँ
श्वेत चाँदनी में खिलती हूँ
प्रेम और वैराग्य से पोषित हूँ
सीप की गोद में खिलकर
हिमालय के मुख में मिलती हूँ
स्वाभिमान का प्रतीक, पर
विक्षिप्तता की दहलीज़ पर हूँ
मेरे पैरों में समृद्धि और स्नेह के
सूचक बना दो
ए जीवन, मेरे आगमन का मंगल गा दो

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मेरी पहली पुस्तक

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