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आज की रात मुझे.....


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सुनो,
जो कल दो पन्नों वाली मुलाक़ात लिखी थी न
उसमें कुछ रह सा गया है,
अभी अपनी उस दिन वाली तकरार नहीं लिखी
और हाँ इश्क़ के फफोलों पर ठंडे मरहम वाली बात
वो भी तो नहीं लिखी।
पहले तो सब मुझे कहते थे दीवानी तुम्हारी
और तुम हर बात में पगली,
मगर अपना भी मौसम बदल गया है,
इश्क़ की दुकान में भाव ऊंचे हो गए हैं,
अब कोई नहीं कहता
एक लड़की थी दीवानी मगर पागल;
अब सब कहते हैं न
मैं मज़मून हूँ मोहब्बतों का,
दर्द के गुश्ताक़ दरिया में बेज़ार बहता हुआ;
क्या समझूँ इसे मैं
बेपनाह समंदर में डूबने की हौसला-अफ़ज़ाई
या तुम्हारे नाम की आयतों का कलमा,
क्या है मेरा मुक़द्दस कल
दिन से मुतमइन मगर रोशनी से बेज़ार:
अच्छा बताओ तो सही
इस इबारत को क्या नाम दूँ?
सुनो तुम जल्दी आओ न!
मन कुछ भारी सा हो रहा
नींबू पानी और मोहब्बत की एन्टी डोज
दोनों जरूरी हैं मेरे लिए
पर आते वक्त नुक्कड़ से
अपनी पुरकशिश मुस्कराहट लाना मत भूलना
आज की रात मुझे ये फलसफा लिखना है

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