उन्मुक्तता

जब स्वच्छंदता
स्व की बेड़ियों में
जकड़ दी जाती है
तो उन्मुक्तता का मूल
स्वतः ही नष्ट हो जाता है
जैसे समंदर की लहरों पर बने
पांवों के ढीठ निशान.
न तुम रह जाता है
न मैं
न ज़्यादा या कम की तू-तू, मैं-मैं.
उन्मुक्त ही रहने देने थे न
कुछ भाव
कि खुली आंखों से देखते
सृष्टि के विरले रंग
और आंखें बंद करो तो शिव.

मैं जीवन हूं


मैं सब कहीं हूँ
प्रेम में, विरह में
दर्द में, साज में
सादगी में हूँ
परिहास में भी हूँ
मूक गर शब्दों से
तो आभास में हूँ
मैं मधुर हूँ
नीम की छड़ में
मैं कटु हूँ
शहद के शहर में,
अणु हूँ
रासायनिक समीकरण में
गति हूँ
चाल हूँ
समय हूँ
भौतिक के हर नियम में,
मुझसे ही आगे बढ़ा है
डार्विन का हर वाद
अपना सा लगे
प्रजातन्त्र और स्वराज
माल्थस का सिद्धांत हो
या रोटी का भूगोल
रामानुजम ने बताया
न समझो हर जीरो गोल
मैं शेषनाग पर टिकी,
मोक्ष के मुख पर
कयाधु के गर्भ से निकली,
जड़ हूँ
चेतन हूँ
अजरता
अमरता 
का पोषण हूँ
मैं जीवन हूँ।


तुम्हें ज़िंदगी कह तो दिया

उस रोज़ पूछा था किसी ने हमसे
तुम्हारा नाम क्या है
हमने ये कहकर उन्हें
मुस्कराने की वजह दे दी
कि एक दूसरे का नाम न लेना ही तो
हमारा प्रेम है...
कितने बावले हैं लोग
कि वो तुम्हें कहीं भी ढूंढ़ते हैं
मेंडलीफ की आवर्त सारणी में,
न्यूटन के नियम में,
पाइथागोरस की प्रमेय में,
डार्विन के सिद्धांत में,
अंग्रेजी के आर्टिकल में,
हिंदी के संवाद में,
विषुवत रेखा से कितने अक्षांश की
दूरी पर बसते हो,
जानना चाहते हैं अक्सर लोग
बातों ही बातों में.
पर हम तो तुम्हें बस
ज़िन्दगी के नाम से जानते हैं.
कैसे कहें लोगों से
हम तुम्हें याद तक नहीं करते
तुमसे निकलने वाली चमक को
आइरिश अवशोषित कर
उर तक प्रेषित कर देता है,
और जब तुम हृदय में हो
तो निकट दृष्टि दोष होना स्वाभाविक है.
तुम हर कदम इस तरह साथ हो
कि तुम्हारी छाया में
अपना अस्तित्व खोना
हमें अप्रतिम होने का भान कराता है,
अनुभव करते हैं हर रात जब तुम्हें
अपने बिस्तर की सिलवटों में
गर्व होता है...
जीवन में तुम्हारे होने पर,
कि कितने ही और जन्म मांग ले
ईश्वर से
जीवन की समानांतर पटरी पर चलने को
तुम्हारे साथ
तुम्हारे लिए
नाम के नहीं...जन्म-जन्मांतर के साथी.

एक शहीद की विधवा


बापू बोला चल पीहर ऐसे देख नहीं सकता तुझको
बेटी कहती ये मेरा घर तो छोड़ नहीं सकता मुझको
जिस दिन ब्याही गई थी इनसे 
बारातें तुमने बुलवाई
धूमधाम से विदा किया
बजवाई थी शहनाई
आज तिरंगे में सजकर
वो आएं हैं मन भर लेने दो
कहां मिलेंगे फिर मुझको
दरस ये अंतिम कर लेने दो
बस इतना कहती बेटी
होश में जब भी आती है
माह हुआ ये सुन सुन कर
पिता की छाती फट जाती है
कुछ बोल नहीं पाता बापू, अंगारों सा रोता है
दहक दहक कर दिन बीते, दर्द ही रात में सोता है
फिर कहता...चल पीहर ऐसे देख नहीं सकता तुझको
बेटी कहती ये मेरा घर तो छोड़ नहीं सकता मुझको
दरवाज़े पर देखूं जरा
ये दस्तक उनकी लगती है
तन्हा कहां कभी आते वो
कहकहों की महफ़िल सजती है
उनको नहीं कभी भाती मैं
सूनी मांग दिखे जब भी
बिंदिया, गजरे से सज जाऊं
झुमके, महावर और कंगन भी
श्वेत वसन बापू दिखलाता और फ्रेम चढ़ा वो चन्दन हार
चला गया फ़िर आए न अब तू किसके लिए करे सिंगार
फ़िर कहता...चल पीहर ऐसे देख नहीं सकता तुझको
बेटी कहती ये मेरा घर तो छोड़ नहीं सकता मुझको
तस्वीरों से बातें करती
उम्मीदों में रातें गढ़ती
उसकी पसंद के व्यंजन चखती
मद्धम आंच में चाय खौलाती
पल्लू बांधती नेह की चुटकी
याद में उनकी इतराती
मन ही मन बस पिया की बातें
और कहां कुछ उसको भाती
हार गया बापू भी अब, कैसे छुपाए ख़ुद की चीत्कार
हिल न सका इक पल को स्नेह भी, हार गई उसकी मनुहार
कैसे कहे...चल पीहर ऐसे देख नहीं सकता तुझको
जीत रही ज़िद बेटी की रोक लिया है अब खुद को


*ये उस दर्द की अणु भर दास्तां है.
#martyr #shraddhanjali #why_pulwama 
    

ज़िन्दगी...बस तुम चाहिए


वैलेंटाइन बनोगे हमारे

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एक पाती प्रेम की



प्रेम कविता लिखनी थी
सब कुछ तो है
कागज़, कलम, स्याही
बस प्रेम का रंग नहीं
क्या कहते हो बोलो
......छोड़े दें या....
ला रहे हो
वो गुलाबी रंग 
हमारे अंतस वाला...




सस्नेह
तुम्हारी ...
क्या लिख दें बोलो?



चुंबन प्रेम की ऊर्जा है


मेरी पहली पुस्तक

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