सुहाग धरा का

 


मेरी कविताएँ मेरी प्रार्थना

 


मेरी कविताएँ

छोटी-छोटी चिट्ठियाँ हैं

कभी सुबह के नाम

कभी अँधेरों के नाम

कभी दर्द-ख़ुशी के नाम

...और सभी ईश्वर के नाम

तुम इनमें से चुन लेना

मेरी प्रार्थना का समवेत स्वर

जो बस तुम्हारे लिए है.

आई लव यू

 

जब भी उदासी पढ़ती हूँ तुममें

देख लेती हूँ मुस्कुराते हुए तुम्हारे चित्र

बचपन के भी...कोशिश करती हूँ

तुम्हें पहचानने की अपनी आँखों से

प्रेम में आँखें कभी झूठ नहीं बोलतीं

मेरा 'आई लव यू' तुम्हारे लिए

तुम्हारी उपस्थित अनुपस्थिति में

बहुत से पीड़ादायक पलों को परे कर

हर्ष की अनुभूति में लिपटा एक बोसा.

मेरी भोर की नींद तुमसे मिलने को

उचटने जो लगी है...

मेरी हिचकियों में भी अब तुम्हारी स्मृति नहीं

प्रेम कविताओं में पगे पल रहने लगें हैं

आज दे रही हूँ तुम्हें प्रेम में पगे ढाई आखर.

बोलो न!

 


तुम्हारे पाँवों पर सर रखते ही

हमारा दर्द भी उम्मीद से हो जाता है

जाने कितनी कुँवारी इच्छाएँ

परिणय का सुख पा लेती हैं


फिर हर बार तुम अपने परिचय में

क्यों लगते हो हमें अधूरे, अबूझे

और बुझे बुझे से?

तुम्हारा परिचय वो इत्र क्यों नहीं

जो स्वयं महकता है

किसी के स्पर्श का आदी नहीं?

बस एक बार नहला दो

अपने चेहरे पर पसरी अनन्त मुस्कान से

चिर काल तक रहना ऐसे ही फिर!

तीन लघुकथाएँ

 स्पर्श


अँधेरों में एक काली छाया उभरी. विरह ने आगे बढ़कर उसे होठों से लगाना चाहा. कोने में पड़ी सिगरेट सुलग उठी और देखते ही देखते विरह के होठों से जा लगी. एक अरसे से निस्तेज पड़ी राखदानी को आज स्पर्श मिला.


क्रोनोलॉजी


पहाड़ बूंदों के इंतज़ार में तब तक अपने आँसू अंदर दबाता रहा जब तक पेड़ चिड़िया को आलिंगन में लिए रहा. आलिंगन तब तक सुखद रहा जब तक पेड़ ने बौराई हवा की राह तकी.


फिर एक माँ ने जैसे ही अपने नवजात को चूमा, हवा इठलाकर पेड़ से जा लिपटी. पंख फड़फड़ाकर चिड़िया उड़ी उसने पहाड़ को अपनी आग़ोश में भर लिया. मेघ बरसते गए और पहाड़ जी भर रोता रहा.


इश्क़ फिर भी है


कागज़ स्याही पर फ़िदा है और कलम कागज़ को देखते ही कसमसाती है. तीनों अलग-अलग सियाह से हैं.

हिन्दी में हाथ थोड़ा कमज़ोर है.

 कक्षा ६ के बच्चे की जिज्ञासा, "ये जो बड़ी-बड़ी अस्थियाँ होती हैं क्या इनकी हस्तियाँ ही गंगा में डालते हैं?"


सर चकरा गया सुनकर कि आख़िर बच्चा पूछ क्या रहा. कुछ समझते हुए जवाब दिया, "बच्चे तुम अस्थियों और हस्तियों से भ्रमित हो पहले अपना प्रश्न समझो और दूसरी बात डालते नहीं विसर्जित करते हैं.


बच्चा, "आप मुझे एक और नया शब्द बताकर कुछ ज़्यादा ही भ्रमित नहीं कर रहीं? एक काम करिए आप कोई बीच की हिन्दी बताइये"


शिक्षिका अब तक भ्रम में हैं और हस्तियाँ बनाम अस्थियाँ उसके लिए जीभ अवरोधक बना हुआ है.

पशेमाँ मंज़र!

 


दुष्यंत जी के बारे में लिख नहीं पाऊँगी बस पढ़ती रहूँगी.

सालगिरह मुबारक़!

प्रेम अमृता सा



इक अदीब (विद्वान) की कलम से

बहुत कुछ गुज़र गया,

मैं अदम (अस्तित्वहीन) सी सँजो चली उसे

छँट गयी मेरी अफ़सुर्दगी (उदासी)

तू असीर (क़ैदी) बना ले मुझको

मेरे आतिश (आग)

अभी असफ़ार (यात्राएँ) और हैं ज़ानिब

तेरे लफ़्ज़-लफ़्ज़ आराईश (सजावट) मेरी

मेरी इक्तिज़ा (माँग) क़ुबूल कर

बोल दे तेरा हर इताब (डाँट)

मुझे इफ़्फ़त (पवित्रता) दे

मेरे क़ाबिल (कुशल) कातिब! (लेखक)

काश कि भूलना आसान होता!



बात उन दिनों की है जब हमारे लखनऊ में एफ० एम० (Frequency Modulation) रेडियो लॉन्च हुआ था. अगस्त माह, सन २०००...महीने का २०वाँ दिन और ऑल इंडिया रेडियो के एफ० एम० की फ्रीक्वेंसी सौ आशारिया सात से एक प्यारी सी मीठी दिलफ़रेब आवाज़ गुज़री. नाम पता चला...राशी वडालिया. जिस रेडियो का हम सब नाम तक न सुनना चाहते हों उस पर इतनी प्यारी और अपनेपन की आवाज़ सुनकर कौन न फ़िदा हो जाए! अगले दिन से एफ० एम० हमारी जीवन शैली का हिस्सा बन गया. शुरुआती दिनों में प्रसारण सुबह ४ घण्टे और शाम के ४ घण्टे हुआ करता था. एंकर के नाम उँगलियों पर गिने जा सकते हैं… अनुपम पाठक जी, प्रतुल जोशी जी, कमल जी, मीनू खरे जी, रमा अरुण त्रिवेदी जी. इन्हीं लोगों के जिम्मे पूरा समय रहता था. सभी में वो कुव्वत थी कि हम लोगों को रेडियो के इर्दगिर्द बाँधकर रखते थे. यहाँ तक कि नहाना खाना भी रेडियो के साथ.


रात आठ बजे एक कार्यक्रम आता था "हेलो एफ० एम०". उसके सूत्रधार हुआ करते थे राजीव सक्सेना जी. मात्र एक घण्टे का कार्यक्रम और वो समय राजीव जी अपनी पुरकशिश आवाज़ से कैसे उड़ाते थे कि पता ही न चले. पहली बार सुनते ही वो दीवानापन तारी हुआ जैसे यही जीवन है. आवाज़ तो थी ही पर राजीव जी की हाज़िर जवाबी हर किसी का दिल जीत लेती थी. हम सभी के लिए एक नम्बर होता था कि फोन लगाकर बात कर सकें और अपनी पसंद का गीत भी सुन लें. ख़ैर गीत की किसे पड़ी थी सब तो राजीव जी से बात करने को उतावले रहते थे. मेरा फ़ोन एक बार भी न लगा. उन दिनों लैंड लाइन से फ़ोन मिलाना भी मेहनत का काम होता था. लोगों के साथ हुई उनकी बातचीत के आधार पर इतना पता चल सका कि राजीव जी दिल्ली से कुछ ही दिनों के लिए लखनऊ आए हैं और वो "कुछ दिन" मात्र ६० दिन थे. हममें से किसी को यह बात रास नहीं आ रही थी क्योंकि हमारे लिए एफ़० एम० बोले तो राजीव जी थे. कुछ लोग तो बात करते ही बहुत इमोशनल हो जाया करते थे. फिर वो अवांछित दिन भी आ गया जब राजीव जी हम सबको अपने प्यार में महरुम छोड़कर अपनी दिल्ली वापस चले गए, हाँ हम सभी के प्यार के बदले एक वादा जरुर दे गए…*समय होते ही लखनऊ आता रहूँगा और जब भी लखनऊ में हुआ आप सभी के लिए माइक जरुर पकडूँगा*... इस वादे से भी दुःख का वो हिस्सा कहाँ कम होना था!


जीवन तब भी नहीं रुकता है जब कुछ भी न हो, सब कुछ चलता रहा. हेलो एफ़० एम० की कमान अनुपम पाठक जी की मख़मली आवाज़ के हाथों में थी.


कुछ दिनों बाद अचानक राजीव जी की आवाज़ ऑन एयर आयी और वो भी हेलो एफ़० एम० में. बहुत कोशिश के बाद भी फ़ोन न लग सका. रात ९ बजकर ९ मिनट पर मैंने आकाशवाणी के स्टॉफ रुम में फ़ोन लगाकर उनसे आग्रह किया कि राजीव जी से बात करवा दें. दिल के एक अच्छे इंसान मिल गए. राजीव जी स्टूडियो छोड़कर निकलने वाले थे फिर भी मेरी बात करा दी. उनका तीन दिन का स्टे था. किसी ऑफिशियल काम के सिलसिले में. ख़ैर वो तीन भी चले गए बस इतनी सी तसल्ली देकर कि छोटी सी बात हो गयी थी.


फिर वही इंतज़ार… एक दिन बैठे ठाले यूँ ही ख़याल आया कि राजीव सक्सेना जी, (प्रोग्राम प्रोड्यूसर ए आई आर, दिल्ली) को एक चिट्ठी लिखी जाए. फिर क्या था...बस इतना ही पता था और यही बहुत था. अगले ही दिन चिट्ठी लिखकर भेज दी, ये गुनगुनाए बग़ैर… चिट्ठी लिखेंगे जवाब आएगा…उन दिनों मैं सिधौली में रहा करती थी. ठीक सातवें दिन शाम के पाँच बजे मेरे लैंड लाइन की घण्टी बजी. एस टी डी कॉल थी. मैंने फ़ोन कान से लगाकर हेलो बोला जवाब में उधर से जो *हेलो* गूँजा, मुझे यक़ीन ही न हुआ कि मेरे कान ये सुन रहे हैं.


मैं बड़े यक़ीन से बोली, *राजीव जी*


*हाँ मैं राजीव सक्सेना… कमाल है तुमने पहली ही बार में पहचान लिया ...अभिलाषा*


मेरे पास बोलने को जैसे कुछ भी नहीं रह गया था. ख़ुशी और आश्चर्य नसों में ऐसे दौड़ा कि खून ही गाढ़ा हो गया.


*सॉरी मैंने तुम्हें तुम बोला, बुरा तो नहीं लगा. अगर अभिलाषा बोलूँ तो कोई ऑब्जेक्शन तो नहीं?*


फ़िर किसी तरह हिम्मत जुटाकर टूटी-फूटी आवाज़ में मैंने अपना कृतज्ञता ज्ञापन सुनाया और थोड़ा-बहुत मन के भावों को भी जता सकी.


*अरे बाबा इतना भी क्या खुश होना, अब मैं तुम्हें फ़ोन करके परेशान करता रहूँगा. देखना एक दिन मन भर जाएगा*


*ऐसा कभी नहीं होगा. अच्छे लोगों से मन कब भरता है*


*ह्म्म्म अच्छे मित्रों से*


उस पहली ही बातचीत में राजीव जी ने मुझे अपना मित्र भी कह दिया. तबसे बातों का सिलसिला जैसे चल निकला. हर हफ़्ते फ़ोन आना तय था. अग़र मम्मी भी फ़ोन उठाती तो उनसे इतने ही अच्छे से बात करते. *माताजी* कहकर संबोधित किया करते थे मम्मी को. मैंने उनका मोबाइल नंबर ले तो लिया था पर मुझे मौक़ा ही नहीं देते थे इधर से मिलाने का. उन दिनों एस० टी० डी० कॉल्स महँगी हुआ करती थीं.


कुछ दिनों के बाद थोड़ा सा चक्र बदला और हमारी बातें रात ११ से १२ के बीच होतीं. दिल्ली ए० आई० आर० से एक प्रोग्राम आता था--ओल्ड इज गोल्ड-- अक्सर राजीव जी उसकी एंकरिंग करते थे. जितनी देर गीत बजता हम बात करते. इस तरह राजीव जी ने मेरी समस्या का समाधान किया. मेरी शिकायत होती थी कि दिल्ली को आप क्यों मिले!


बहुत अच्छा समय बीत रहा था वो भी. एक रात लगभग ११ बजे फ़ोन आया.


*हेलो अभिलाषा, डिनर हो गया...क्या खाया?*


*हाँ… और आपका…?*


*अभी नहीं. मैं तो खिचड़ी आर्डर की है, वही खाने जा रहा*


*ऑर्डर की मतलब बाहर हैं कहीं?*


*हाँ, मुम्बई के एक होटल में हूँ. बस दिल किया तुमसे बात करूँ*


*ऑर्डर किया...होटल में...वो भी खिचड़ी*


मेरी बात सुनकर वो बहुत देर तक हँसते रहे. फिर होटल में मिलने वाली खिचड़ी की जो-जो वैराइटी बतायीं उससे पहले मैंने नहीं सुनी थी. बस ऐसे ही थे राजीव जी...उनकी बातों में वो बात थी कि फोन घण्टो कान से लगाकर भी बोरियत न हो. बात करते रहे खिचड़ी ख़त्म और शुभ रात्रि का समय भी आ गया. इस तरह के जाने कितने घटनाक्रम आँखों से गुजरते रहते हैं.


२००० से २००७ कब आया पता ही नहीं चला. नवंबर २००७ में मैं लखनऊ शिफ़्ट हो गयी. सबसे पहले राजीव जी को फ़ोन करके बताया था कि अब अपना लखनऊ का टूर बनाइये.


दिसंबर २००७ की एक अलसायी दोपहर थी. मैं अवध हॉस्पिटल के ट्रैक्शन बेड पर लेटी हुई थी. मेहविश मिर्ज़ा, बला की ख़ूबसूरत लड़की, मेरी थेरेपिस्ट सामने बैठकर मेरी हौसला अफजाई कर रही थी. तभी मोबाइल की रिंग हुई. मैंने कॉल अटेंड की, पहले फॉर्मल बातचीत फिर एक अजीब सा प्रश्न राजीव जी की तरफ़ से आया…


*अभिलाषा ये बताओ तुम बहन जी टाइप कपड़े पहनती हो या फिर…?*


*ये बहन जी टाइप कपड़े क्या होते हैं?*


*तुम्हें पता है मैं क्या पूछ रहा*


*मैं कुछ भी पहनने को स्वतंत्र हूँ. पर आपके साथ लखनऊ तो बहन जी टाइप कपड़ों में ही घूमूंगी*


*अच्छा ये सब छोड़ो, एक गुड न्यूज़ है...बोलो तो अभी बताऊँ?*


*अरे जल्दी*


*टू थाउजेंड एट में अपनी इंडियन क्रिकेट टीम इंटरनेशनल मैच खेलने ग्रीन पार्क जाएगी. मैं भी ए आई आर की तरफ़ से रहूँगा, कवरेज के लिए*


*सचिन भी आएगा न?? मुझे मिलना है*


*मुझसे या सचिन से...सोचकर बताना*


फ़ोन कट गया पर मेरा दिल ज़ोर से धड़कने लगा. जाने क्या-क्या सोच गयी मैं…


"यार तुम तो छुपी रुस्तम निकली. ये किससे बातें कर रही थी?" मेहविश के सवाल ने मेरी चुटकी ली.


फिर मैंने राजीव जी के बारे में उनको बताया तो उन्होंने बस इतना ही कहा, "यार मैं तो तुम्हें इतने दिनों में जान ही नहीं पायी. मुझे नहीं लगा तुम्हारे ऐसे भी दोस्त होंगे. उस दिन के बाद से मेहविश का रुख मेरी ओर काफी परिवर्तित हुआ.


मैं अपने मन में ग्रीन पार्क के सपने बुन रही थी तभी राजीव जी का पहली अगस्त को फ़ोन आया.


*अभिलाषा, मैं चार अगस्त को दिल्ली छोड़ रहा हूँ. ८ से २४ अगस्त तक चाइना ओलम्पिक के लिए जाना है*


*अरे १८ को आपका बर्थडे है. मैं विश कैसे करुँगी?*


*मैं १८ को तुम्हें कॉल करूँगा. डोंट वरी...टेक केअर*


फ़ोन कट चुका था और शायद मेरी बातों का वो सिलसिला भी. नियति ने इस तरह जाना लिखा था कौन जानता था. वक़्त के क्रूर हाथों ने असमय ही राजीव जी को हम सबसे छीन लिया.


उस फ़ोन नंबर पर मेरे कानों ने आख़िरी बार बस यही शब्द सुने थे…*मैं संजीव, राजीव का भाई...अभिलाषा जी राजीव हम सबको छोड़कर चले गए. कल रात सोये थे सुबह उठे ही नहीं…* घिग्गी बंध गयी थी उनकी बोलते हुए और सुनते हुए मुझ पर क्या बीती...मेरे पास शब्द ही नहीं जिन्हें मैं वो दर्द पहना सकूँ.


नहीं रहे हम सबके राजीव जी...आज भी १८ अगस्त उनकी जन्मतिथि के दिन...बहुत याद आते हैं राजीव जी आप.

तीन लघुकथाएँ

(१) प्रेम जो प्रेमिका को खाता है


उसके हाथों ने छत नहीं अचानक आसमान को छू लिया. नए-नए प्रेम का असर दिख गया. ढीठ मन सप्तम स्वर में गा दिया गोया दुनिया को जताना चाह रही हो कि अब तो उसका जहाँ, प्रेम की मखमली जमीन है बस क्योंकि प्रेम उरूज़ पर था.

फिर एक रोज चौखट पर रखा दिया अचानक बुझ गया और उसकी शाम कभी नहीं हुई. हवा के बादलों पर बैठकर वो आसमान कहाँ छू पाती? एक ख़्वाब ज़िंदा लाश बन गया उसके अंदर.



(२) प्रेम जो प्रेमी को खाता है


उसके कपड़ों की क्रीज़, परफ़्यूम की महक, हेयर कलर और गॉगल्स के पीछे मुस्कराता चेहरा आजकल सभी की निगाह में है. ग्रेजुएशन की पढ़ाई एक ओर हो गयी, अपाचे तो ख़ुद ब ख़ुद डिस्को, होटल और लांग ड्राइव के लिए मुड़ जाती है.

उस रोज बारिश ज़ोरों पर थी फिर भी अपाचे स्टार्ट कर वो वेट कर रहा था. लोमबर्गिनी से उतरती अपनी माशूका को देखकर उसकी आँखों का रंग अचानक बदल गया. अगले दिन शहर के अखबारों में सुर्खियां टहलती रहीं--ईर्ष्या की जलन किसी के चेहरे पर तेजाब बन बही.



(३) समाज जो प्रेम को खाता है


पहली बार दवा की एक दुकान पर दोनों मिले थे. एक को बीमार माँ तो दूसरे को बहन के लिए दवाई चाहिए थी. सूखा चेहरा, मैले कपड़े, अबोले से वो दो क़रीब आ गए. अब दवा के ग्राहक दो नहीं एक ही होता. कभी-कभी माँ और बहन की तीमारदारी भी एक ही कर लेता.

दर्द न बाँट सकने वाला समाज ही उनके ख़िलाफ़ खड़ा हो गया. समाज की आँखों में बेचारगी, लाचारी, जरूरत, स्नेह, मोह… कुछ न आया बस उनका लड़का और लड़की होना खटका. दो से जस तस एक हुए वो दोनों पहले अलग फिर सिफ़र हो गए. किसी का न होना इतना बुरा नहीं पर आकर चले जाना सच जानलेवा ही तो है.


विशेष- इस श्रंखला की तीन लघुकथा. इसे लिखने की प्रेरणा मुझे तेजस पूनिया जी की कहानी "शहर जो आदमी खाता है" को पढ़कर मिली.

मेरी पहली पुस्तक

http://www.bookbazooka.com/book-store/badalte-rishto-ka-samikaran-by-roli-abhilasha.php