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ये आख़िरी शब्द हैं मेरे
क्योंकि अब मैं नहीं मिलूँगी कभी
किसी नुक्कड़, चौराहे,
रास्ते, गली, मोहल्ले, दुकान में,
देश-विदेश, निकास-प्रवेश, धरती-आकाश,
घर-बाहर, ज़िन्दगी-श्मशान में,
अपनों में, गैरों में, यादों के ठौरों में,
खुशी में, ग़मों में, दुआ में, वफ़ा में,
कफ़न में, लिबास में, तल्ख़ियों, ख़राश में,
सुबह के सफर में, रात की बसर में,
सोंधी मिट्टी की महक में, बादलों की गमक में,
गुलज़ार की ग़ज़ल में, किसी जिन्न के अमल में,
पाँव की पाजेब में, बेवफा के फरेब में,
मोबाइल की घण्टियों में भी नहीं,
न किसी सन्देश में, न दर्द के आवेश में,
...................................
मेरा होना एक हक़ीक़त था,
न होना उससे भी बड़ी।
मरती तो मैं रोज़-रोज़ थी
पर आज जियूंगी नहीं,
रूह मेरी तुमसे ही बावस्ता रहेगी,
बस जिस्म से अलग
हल्की हो जाएगी।
तुम्हारी किसी आहट पर
कोई हलचल नहीं होगी,
कहते हो न कि मैं तुम्हें जीने नहीं देती,
अब तुम जियोगे
और मैं तुममें जियूंगी।
सुन रहे हो न तुम!
क्योंकि अब मैं नहीं मिलूँगी कभी
किसी नुक्कड़, चौराहे,
रास्ते, गली, मोहल्ले, दुकान में,
देश-विदेश, निकास-प्रवेश, धरती-आकाश,
घर-बाहर, ज़िन्दगी-श्मशान में,
अपनों में, गैरों में, यादों के ठौरों में,
खुशी में, ग़मों में, दुआ में, वफ़ा में,
कफ़न में, लिबास में, तल्ख़ियों, ख़राश में,
सुबह के सफर में, रात की बसर में,
सोंधी मिट्टी की महक में, बादलों की गमक में,
गुलज़ार की ग़ज़ल में, किसी जिन्न के अमल में,
पाँव की पाजेब में, बेवफा के फरेब में,
मोबाइल की घण्टियों में भी नहीं,
न किसी सन्देश में, न दर्द के आवेश में,
...................................
मेरा होना एक हक़ीक़त था,
न होना उससे भी बड़ी।
मरती तो मैं रोज़-रोज़ थी
पर आज जियूंगी नहीं,
रूह मेरी तुमसे ही बावस्ता रहेगी,
बस जिस्म से अलग
हल्की हो जाएगी।
तुम्हारी किसी आहट पर
कोई हलचल नहीं होगी,
कहते हो न कि मैं तुम्हें जीने नहीं देती,
अब तुम जियोगे
और मैं तुममें जियूंगी।
सुन रहे हो न तुम!
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