बोलो न!

 


तुम्हारे पाँवों पर सर रखते ही

हमारा दर्द भी उम्मीद से हो जाता है

जाने कितनी कुँवारी इच्छाएँ

परिणय का सुख पा लेती हैं


फिर हर बार तुम अपने परिचय में

क्यों लगते हो हमें अधूरे, अबूझे

और बुझे बुझे से?

तुम्हारा परिचय वो इत्र क्यों नहीं

जो स्वयं महकता है

किसी के स्पर्श का आदी नहीं?

बस एक बार नहला दो

अपने चेहरे पर पसरी अनन्त मुस्कान से

चिर काल तक रहना ऐसे ही फिर!

तीन लघुकथाएँ

 स्पर्श


अँधेरों में एक काली छाया उभरी. विरह ने आगे बढ़कर उसे होठों से लगाना चाहा. कोने में पड़ी सिगरेट सुलग उठी और देखते ही देखते विरह के होठों से जा लगी. एक अरसे से निस्तेज पड़ी राखदानी को आज स्पर्श मिला.


क्रोनोलॉजी


पहाड़ बूंदों के इंतज़ार में तब तक अपने आँसू अंदर दबाता रहा जब तक पेड़ चिड़िया को आलिंगन में लिए रहा. आलिंगन तब तक सुखद रहा जब तक पेड़ ने बौराई हवा की राह तकी.


फिर एक माँ ने जैसे ही अपने नवजात को चूमा, हवा इठलाकर पेड़ से जा लिपटी. पंख फड़फड़ाकर चिड़िया उड़ी उसने पहाड़ को अपनी आग़ोश में भर लिया. मेघ बरसते गए और पहाड़ जी भर रोता रहा.


इश्क़ फिर भी है


कागज़ स्याही पर फ़िदा है और कलम कागज़ को देखते ही कसमसाती है. तीनों अलग-अलग सियाह से हैं.

हिन्दी में हाथ थोड़ा कमज़ोर है.

 कक्षा ६ के बच्चे की जिज्ञासा, "ये जो बड़ी-बड़ी अस्थियाँ होती हैं क्या इनकी हस्तियाँ ही गंगा में डालते हैं?"


सर चकरा गया सुनकर कि आख़िर बच्चा पूछ क्या रहा. कुछ समझते हुए जवाब दिया, "बच्चे तुम अस्थियों और हस्तियों से भ्रमित हो पहले अपना प्रश्न समझो और दूसरी बात डालते नहीं विसर्जित करते हैं.


बच्चा, "आप मुझे एक और नया शब्द बताकर कुछ ज़्यादा ही भ्रमित नहीं कर रहीं? एक काम करिए आप कोई बीच की हिन्दी बताइये"


शिक्षिका अब तक भ्रम में हैं और हस्तियाँ बनाम अस्थियाँ उसके लिए जीभ अवरोधक बना हुआ है.

पशेमाँ मंज़र!

 


दुष्यंत जी के बारे में लिख नहीं पाऊँगी बस पढ़ती रहूँगी.

सालगिरह मुबारक़!

प्रेम अमृता सा



इक अदीब (विद्वान) की कलम से

बहुत कुछ गुज़र गया,

मैं अदम (अस्तित्वहीन) सी सँजो चली उसे

छँट गयी मेरी अफ़सुर्दगी (उदासी)

तू असीर (क़ैदी) बना ले मुझको

मेरे आतिश (आग)

अभी असफ़ार (यात्राएँ) और हैं ज़ानिब

तेरे लफ़्ज़-लफ़्ज़ आराईश (सजावट) मेरी

मेरी इक्तिज़ा (माँग) क़ुबूल कर

बोल दे तेरा हर इताब (डाँट)

मुझे इफ़्फ़त (पवित्रता) दे

मेरे क़ाबिल (कुशल) कातिब! (लेखक)

काश कि भूलना आसान होता!



बात उन दिनों की है जब हमारे लखनऊ में एफ० एम० (Frequency Modulation) रेडियो लॉन्च हुआ था. अगस्त माह, सन २०००...महीने का २०वाँ दिन और ऑल इंडिया रेडियो के एफ० एम० की फ्रीक्वेंसी सौ आशारिया सात से एक प्यारी सी मीठी दिलफ़रेब आवाज़ गुज़री. नाम पता चला...राशी वडालिया. जिस रेडियो का हम सब नाम तक न सुनना चाहते हों उस पर इतनी प्यारी और अपनेपन की आवाज़ सुनकर कौन न फ़िदा हो जाए! अगले दिन से एफ० एम० हमारी जीवन शैली का हिस्सा बन गया. शुरुआती दिनों में प्रसारण सुबह ४ घण्टे और शाम के ४ घण्टे हुआ करता था. एंकर के नाम उँगलियों पर गिने जा सकते हैं… अनुपम पाठक जी, प्रतुल जोशी जी, कमल जी, मीनू खरे जी, रमा अरुण त्रिवेदी जी. इन्हीं लोगों के जिम्मे पूरा समय रहता था. सभी में वो कुव्वत थी कि हम लोगों को रेडियो के इर्दगिर्द बाँधकर रखते थे. यहाँ तक कि नहाना खाना भी रेडियो के साथ.


रात आठ बजे एक कार्यक्रम आता था "हेलो एफ० एम०". उसके सूत्रधार हुआ करते थे राजीव सक्सेना जी. मात्र एक घण्टे का कार्यक्रम और वो समय राजीव जी अपनी पुरकशिश आवाज़ से कैसे उड़ाते थे कि पता ही न चले. पहली बार सुनते ही वो दीवानापन तारी हुआ जैसे यही जीवन है. आवाज़ तो थी ही पर राजीव जी की हाज़िर जवाबी हर किसी का दिल जीत लेती थी. हम सभी के लिए एक नम्बर होता था कि फोन लगाकर बात कर सकें और अपनी पसंद का गीत भी सुन लें. ख़ैर गीत की किसे पड़ी थी सब तो राजीव जी से बात करने को उतावले रहते थे. मेरा फ़ोन एक बार भी न लगा. उन दिनों लैंड लाइन से फ़ोन मिलाना भी मेहनत का काम होता था. लोगों के साथ हुई उनकी बातचीत के आधार पर इतना पता चल सका कि राजीव जी दिल्ली से कुछ ही दिनों के लिए लखनऊ आए हैं और वो "कुछ दिन" मात्र ६० दिन थे. हममें से किसी को यह बात रास नहीं आ रही थी क्योंकि हमारे लिए एफ़० एम० बोले तो राजीव जी थे. कुछ लोग तो बात करते ही बहुत इमोशनल हो जाया करते थे. फिर वो अवांछित दिन भी आ गया जब राजीव जी हम सबको अपने प्यार में महरुम छोड़कर अपनी दिल्ली वापस चले गए, हाँ हम सभी के प्यार के बदले एक वादा जरुर दे गए…*समय होते ही लखनऊ आता रहूँगा और जब भी लखनऊ में हुआ आप सभी के लिए माइक जरुर पकडूँगा*... इस वादे से भी दुःख का वो हिस्सा कहाँ कम होना था!


जीवन तब भी नहीं रुकता है जब कुछ भी न हो, सब कुछ चलता रहा. हेलो एफ़० एम० की कमान अनुपम पाठक जी की मख़मली आवाज़ के हाथों में थी.


कुछ दिनों बाद अचानक राजीव जी की आवाज़ ऑन एयर आयी और वो भी हेलो एफ़० एम० में. बहुत कोशिश के बाद भी फ़ोन न लग सका. रात ९ बजकर ९ मिनट पर मैंने आकाशवाणी के स्टॉफ रुम में फ़ोन लगाकर उनसे आग्रह किया कि राजीव जी से बात करवा दें. दिल के एक अच्छे इंसान मिल गए. राजीव जी स्टूडियो छोड़कर निकलने वाले थे फिर भी मेरी बात करा दी. उनका तीन दिन का स्टे था. किसी ऑफिशियल काम के सिलसिले में. ख़ैर वो तीन भी चले गए बस इतनी सी तसल्ली देकर कि छोटी सी बात हो गयी थी.


फिर वही इंतज़ार… एक दिन बैठे ठाले यूँ ही ख़याल आया कि राजीव सक्सेना जी, (प्रोग्राम प्रोड्यूसर ए आई आर, दिल्ली) को एक चिट्ठी लिखी जाए. फिर क्या था...बस इतना ही पता था और यही बहुत था. अगले ही दिन चिट्ठी लिखकर भेज दी, ये गुनगुनाए बग़ैर… चिट्ठी लिखेंगे जवाब आएगा…उन दिनों मैं सिधौली में रहा करती थी. ठीक सातवें दिन शाम के पाँच बजे मेरे लैंड लाइन की घण्टी बजी. एस टी डी कॉल थी. मैंने फ़ोन कान से लगाकर हेलो बोला जवाब में उधर से जो *हेलो* गूँजा, मुझे यक़ीन ही न हुआ कि मेरे कान ये सुन रहे हैं.


मैं बड़े यक़ीन से बोली, *राजीव जी*


*हाँ मैं राजीव सक्सेना… कमाल है तुमने पहली ही बार में पहचान लिया ...अभिलाषा*


मेरे पास बोलने को जैसे कुछ भी नहीं रह गया था. ख़ुशी और आश्चर्य नसों में ऐसे दौड़ा कि खून ही गाढ़ा हो गया.


*सॉरी मैंने तुम्हें तुम बोला, बुरा तो नहीं लगा. अगर अभिलाषा बोलूँ तो कोई ऑब्जेक्शन तो नहीं?*


फ़िर किसी तरह हिम्मत जुटाकर टूटी-फूटी आवाज़ में मैंने अपना कृतज्ञता ज्ञापन सुनाया और थोड़ा-बहुत मन के भावों को भी जता सकी.


*अरे बाबा इतना भी क्या खुश होना, अब मैं तुम्हें फ़ोन करके परेशान करता रहूँगा. देखना एक दिन मन भर जाएगा*


*ऐसा कभी नहीं होगा. अच्छे लोगों से मन कब भरता है*


*ह्म्म्म अच्छे मित्रों से*


उस पहली ही बातचीत में राजीव जी ने मुझे अपना मित्र भी कह दिया. तबसे बातों का सिलसिला जैसे चल निकला. हर हफ़्ते फ़ोन आना तय था. अग़र मम्मी भी फ़ोन उठाती तो उनसे इतने ही अच्छे से बात करते. *माताजी* कहकर संबोधित किया करते थे मम्मी को. मैंने उनका मोबाइल नंबर ले तो लिया था पर मुझे मौक़ा ही नहीं देते थे इधर से मिलाने का. उन दिनों एस० टी० डी० कॉल्स महँगी हुआ करती थीं.


कुछ दिनों के बाद थोड़ा सा चक्र बदला और हमारी बातें रात ११ से १२ के बीच होतीं. दिल्ली ए० आई० आर० से एक प्रोग्राम आता था--ओल्ड इज गोल्ड-- अक्सर राजीव जी उसकी एंकरिंग करते थे. जितनी देर गीत बजता हम बात करते. इस तरह राजीव जी ने मेरी समस्या का समाधान किया. मेरी शिकायत होती थी कि दिल्ली को आप क्यों मिले!


बहुत अच्छा समय बीत रहा था वो भी. एक रात लगभग ११ बजे फ़ोन आया.


*हेलो अभिलाषा, डिनर हो गया...क्या खाया?*


*हाँ… और आपका…?*


*अभी नहीं. मैं तो खिचड़ी आर्डर की है, वही खाने जा रहा*


*ऑर्डर की मतलब बाहर हैं कहीं?*


*हाँ, मुम्बई के एक होटल में हूँ. बस दिल किया तुमसे बात करूँ*


*ऑर्डर किया...होटल में...वो भी खिचड़ी*


मेरी बात सुनकर वो बहुत देर तक हँसते रहे. फिर होटल में मिलने वाली खिचड़ी की जो-जो वैराइटी बतायीं उससे पहले मैंने नहीं सुनी थी. बस ऐसे ही थे राजीव जी...उनकी बातों में वो बात थी कि फोन घण्टो कान से लगाकर भी बोरियत न हो. बात करते रहे खिचड़ी ख़त्म और शुभ रात्रि का समय भी आ गया. इस तरह के जाने कितने घटनाक्रम आँखों से गुजरते रहते हैं.


२००० से २००७ कब आया पता ही नहीं चला. नवंबर २००७ में मैं लखनऊ शिफ़्ट हो गयी. सबसे पहले राजीव जी को फ़ोन करके बताया था कि अब अपना लखनऊ का टूर बनाइये.


दिसंबर २००७ की एक अलसायी दोपहर थी. मैं अवध हॉस्पिटल के ट्रैक्शन बेड पर लेटी हुई थी. मेहविश मिर्ज़ा, बला की ख़ूबसूरत लड़की, मेरी थेरेपिस्ट सामने बैठकर मेरी हौसला अफजाई कर रही थी. तभी मोबाइल की रिंग हुई. मैंने कॉल अटेंड की, पहले फॉर्मल बातचीत फिर एक अजीब सा प्रश्न राजीव जी की तरफ़ से आया…


*अभिलाषा ये बताओ तुम बहन जी टाइप कपड़े पहनती हो या फिर…?*


*ये बहन जी टाइप कपड़े क्या होते हैं?*


*तुम्हें पता है मैं क्या पूछ रहा*


*मैं कुछ भी पहनने को स्वतंत्र हूँ. पर आपके साथ लखनऊ तो बहन जी टाइप कपड़ों में ही घूमूंगी*


*अच्छा ये सब छोड़ो, एक गुड न्यूज़ है...बोलो तो अभी बताऊँ?*


*अरे जल्दी*


*टू थाउजेंड एट में अपनी इंडियन क्रिकेट टीम इंटरनेशनल मैच खेलने ग्रीन पार्क जाएगी. मैं भी ए आई आर की तरफ़ से रहूँगा, कवरेज के लिए*


*सचिन भी आएगा न?? मुझे मिलना है*


*मुझसे या सचिन से...सोचकर बताना*


फ़ोन कट गया पर मेरा दिल ज़ोर से धड़कने लगा. जाने क्या-क्या सोच गयी मैं…


"यार तुम तो छुपी रुस्तम निकली. ये किससे बातें कर रही थी?" मेहविश के सवाल ने मेरी चुटकी ली.


फिर मैंने राजीव जी के बारे में उनको बताया तो उन्होंने बस इतना ही कहा, "यार मैं तो तुम्हें इतने दिनों में जान ही नहीं पायी. मुझे नहीं लगा तुम्हारे ऐसे भी दोस्त होंगे. उस दिन के बाद से मेहविश का रुख मेरी ओर काफी परिवर्तित हुआ.


मैं अपने मन में ग्रीन पार्क के सपने बुन रही थी तभी राजीव जी का पहली अगस्त को फ़ोन आया.


*अभिलाषा, मैं चार अगस्त को दिल्ली छोड़ रहा हूँ. ८ से २४ अगस्त तक चाइना ओलम्पिक के लिए जाना है*


*अरे १८ को आपका बर्थडे है. मैं विश कैसे करुँगी?*


*मैं १८ को तुम्हें कॉल करूँगा. डोंट वरी...टेक केअर*


फ़ोन कट चुका था और शायद मेरी बातों का वो सिलसिला भी. नियति ने इस तरह जाना लिखा था कौन जानता था. वक़्त के क्रूर हाथों ने असमय ही राजीव जी को हम सबसे छीन लिया.


उस फ़ोन नंबर पर मेरे कानों ने आख़िरी बार बस यही शब्द सुने थे…*मैं संजीव, राजीव का भाई...अभिलाषा जी राजीव हम सबको छोड़कर चले गए. कल रात सोये थे सुबह उठे ही नहीं…* घिग्गी बंध गयी थी उनकी बोलते हुए और सुनते हुए मुझ पर क्या बीती...मेरे पास शब्द ही नहीं जिन्हें मैं वो दर्द पहना सकूँ.


नहीं रहे हम सबके राजीव जी...आज भी १८ अगस्त उनकी जन्मतिथि के दिन...बहुत याद आते हैं राजीव जी आप.

तीन लघुकथाएँ

(१) प्रेम जो प्रेमिका को खाता है


उसके हाथों ने छत नहीं अचानक आसमान को छू लिया. नए-नए प्रेम का असर दिख गया. ढीठ मन सप्तम स्वर में गा दिया गोया दुनिया को जताना चाह रही हो कि अब तो उसका जहाँ, प्रेम की मखमली जमीन है बस क्योंकि प्रेम उरूज़ पर था.

फिर एक रोज चौखट पर रखा दिया अचानक बुझ गया और उसकी शाम कभी नहीं हुई. हवा के बादलों पर बैठकर वो आसमान कहाँ छू पाती? एक ख़्वाब ज़िंदा लाश बन गया उसके अंदर.



(२) प्रेम जो प्रेमी को खाता है


उसके कपड़ों की क्रीज़, परफ़्यूम की महक, हेयर कलर और गॉगल्स के पीछे मुस्कराता चेहरा आजकल सभी की निगाह में है. ग्रेजुएशन की पढ़ाई एक ओर हो गयी, अपाचे तो ख़ुद ब ख़ुद डिस्को, होटल और लांग ड्राइव के लिए मुड़ जाती है.

उस रोज बारिश ज़ोरों पर थी फिर भी अपाचे स्टार्ट कर वो वेट कर रहा था. लोमबर्गिनी से उतरती अपनी माशूका को देखकर उसकी आँखों का रंग अचानक बदल गया. अगले दिन शहर के अखबारों में सुर्खियां टहलती रहीं--ईर्ष्या की जलन किसी के चेहरे पर तेजाब बन बही.



(३) समाज जो प्रेम को खाता है


पहली बार दवा की एक दुकान पर दोनों मिले थे. एक को बीमार माँ तो दूसरे को बहन के लिए दवाई चाहिए थी. सूखा चेहरा, मैले कपड़े, अबोले से वो दो क़रीब आ गए. अब दवा के ग्राहक दो नहीं एक ही होता. कभी-कभी माँ और बहन की तीमारदारी भी एक ही कर लेता.

दर्द न बाँट सकने वाला समाज ही उनके ख़िलाफ़ खड़ा हो गया. समाज की आँखों में बेचारगी, लाचारी, जरूरत, स्नेह, मोह… कुछ न आया बस उनका लड़का और लड़की होना खटका. दो से जस तस एक हुए वो दोनों पहले अलग फिर सिफ़र हो गए. किसी का न होना इतना बुरा नहीं पर आकर चले जाना सच जानलेवा ही तो है.


विशेष- इस श्रंखला की तीन लघुकथा. इसे लिखने की प्रेरणा मुझे तेजस पूनिया जी की कहानी "शहर जो आदमी खाता है" को पढ़कर मिली.

प्रभु शरण



कि बढ़ चले पुकार पर

त्रिशूल रख ललार पर

जो मृत्यु भी हो राह में

कर वरण तू कर वरण


हो पार्थ सबकी मुक्ति में

रख हौसले को शक्ति में

जो शत्रु को पछाड़ दें

वो तेरे चरण, तेरे चरण


जब तेरे आगे सर झुकें

हाथ कभी रिक्त मिलें

बाधाओं से टकरा के

बन करण तू बन करण


पछाड़ दे तू हर दहाड़

ऐसी हो तेरी हुँकार

चीर किसी द्रोपदी का

ना हो हरण, ना हो हरण


न हो जटिलता का अंत

बस मौन रहे दिग-दिगन्त

हो पथ का भार तेरे सर

प्रभु शरण ले प्रभु शरण

शहादत!


'चांद आज साठ बरस का हो गया' इतना कहकर पापा ने ईंट की दीवार पर पीठ टिकाते हुए मेरी आंखों में कुछ पढ़ने की कोशिश की...
'लेकिन मेरा चांद तो अभी एक साल का भी नहीं हुआ है' कहते हुए मैं पापा से लिपट गई.
मेरी आंखों से रिस रहे आंसू बीते समय को जी रहे हैं. रोज शाम हम घर की छत पर होते हैं तीन महीने से हर रोज पापा छत पर एक तारे को अपने बेटे का नाम देते हैं और मैं अपनी मां का.
तिरंगे से लिपट कर एक लाश अाई थी और जाते वक़्त दो अर्थी उठी थीं. जिसे शहादत कहते हो आप सब वो वीरानी बनकर चीखती है. थर्राती है सन्नाटों में.

Thanks giving



Thank you so much my dear and near friends from Russia, Romania, United States, Germany, Canada, Japan, United Kingdom and Hong kong. 
These today's stats in this picture are taken from my blog.

मास्क वाला प्रेम



चलो न

खुले में प्रेम करते हैं

सूरज की रोशनी

जहाँ ठहर जाए ऊपर ही,

जैसे प्रेम के देवता ने

अपने पंख फैलाकर

हमें दे दी हो

हमारे हिस्से की छाँव;

ऐसा करते हैं न

रख देते हैं एक मास्क

उजास के चेहरे पर

और जी लेते हैं प्रेम भर तम.

शब्द ही शिव हैं


शब्द ही शिव हैं
कभी प्रेम के रचे जाते हैं
कभी उद्वेग
तो कभी अंत के.

आच्छादित करते हैं
मन की तृष्णा को
समय के बहाव
और नदी के वेग को.

है शब्द का अमरत्व ये
कर में सरल है
दिमाग में भुजंग हैं
मन में महत्वहीन बन जाते हैं.


कविता का शीर्षक माननीय अनूप कमल अग्रवाल जी "आग" के शब्दों से उद्धत है 🙏


हिसाब बराबर



मेरे कंधे पर चुप्पियाँ बिठाकर जब-जब वो बटोरने जाता है उसके कंधे के लिए तितलियाँ... मुझमें प्रेम दोगुना हो जाता है...प्रेम और प्रेम के लिए की गयी ईर्ष्या.

अब मैं भी थमा दिया करूँगी उसकी यादों को ख़ामोशी. कुछ भी हो प्रेम तो बने रहने देना है न!

पॉजिटिव में पॉजिटिव


हम अभी जस्ट मैरीड ही हैं. हाँ नहीं तो लॉक डाउन में ही कर लिए शादी. क्या है कि अम्मा जी को नया अचार रखना था सो मर्तबान ख़ाली करने थे. जबे देखो तबे परधान जी का फ़ोन मिलाए के कहें…"लाली की अम्मा से कहि देव हम बीस जन आई के भौंरी डरवाय लै जैहैं. बियाह तो अबहिने करी लें. हमार अचार न चलिहे तब तक." बेचारी अम्मा ने पिता जी का उठना-बैठना मुश्किल कर दिया. पिता जी कहते ही रह गए कि हम अच्छा मर्तबान खरीद के दे देई जो समधिन मान जाए. अम्मा को डर था कहीं लॉक डाउन के चक्कर में बिटिया कुँआरी न रह जाए. ख़ैर पंडित जी को कुछ दे दिवा के बियाह हो गया.

आज तीसरे दिन बारिश के बाद तनिक धूप निकली तो कमरा में रोशनी हुई. ई थोड़ा और पास आकर बोले,

"सुनो बहुत सुंदर लग रही हो. आज देखा तुमको रोशनी में...आओ न एक सेल्फ़ी खींचे"

"हाय दैया, अभी कोई देख ले तो"

"आओ न हम झुंझुन का मोबाइल मांग के लाए हैं" कहते हुए ई हमारे बाजू में खड़े होकर सेल्फ़ी लिए. हम शरम के मारे अपना मुंह इनके पीछे छुपा लिए. अम्मा जी के आवाज़ देते ही मोबाइल जेब में रख के बाहर भागे.

ई का सामने देखकर हमारे हाथ पैर फूल गए. इनके बुशर्ट पर हमारे होंठ के निशान... वो भी पीछे से. हम दरवाजा, दीवाल सब बजा दिए पर ई मुड़े तक नहीं. "हाय दैया-3" कहकर हम दिवाल पर खोपड़ी दे मारे. थोड़ी ही देर में ई झनझना के बुशर्ट फेकते हुए कमरे में घुसे.

"कर लियो मन की...का जरूरत थी यहाँ चुम्मी लेने की?"

हम कुछ नहीं बोले तो ढूंढते हुए अंधेरे में आ गए.

"अरे हम गुस्सा कहाँ रहे जो तुम बुरा मान गई. बस एक बार सब ठीक हो जाए हम भी घूमने जाएंगे. पियार करने को थोड़ी मना किए वो तो सब लोग चिढ़ा दिए तो…"

"मग़र हम चुम्मी नहीं लिए थे. हम तो बस…"

"का हम तो बस...अब बोलो न?"

हम कुछ बोलते इससे पहले ही मीठी अपने चाचा को बुला ले गई. हम चुपचाप खड़े कमरे की खिड़की से छनकर आ रही धूप देखने लगे. 'का अजीब है अंधेरे में दिखे न और उजाले में धूल के कण भी सोना माफ़िक चमके. इंसान सच माने तो का माने…'

तनिक देर में घर में हाहाकार मच गया. इतना सुना कि मीठी के चाचा को परधान के घर बुलाया गया. सब एक-दूसरे को चुप करा रहे हैं, कोई न जान पाए कि इनका कॅरोना टेस्ट मंडप वाले दिन हुआ था. हम जड़ के समान खड़े रह गए. अम्मा तनिक देर में आकर हमारे कमरे की कुंडी बाहर से लगाने लगीं. हमने बहुत पूछा कोई कुछ न बोला, ऊपर से सब हमको ऐसे घूरे जैसे हमही कुछ किये हैं.

आज तीन दिन हो गए. किसी से कोई बात नहीं. दिन में दो बार खाना पानी मिलकर फिर दरवाजा बंद. शौच, स्नान के लिए पीछे से निकलकर जाना फिर वहीं वापस आना. कित्ता बदल गया छः दिन में हमारा संसार बस एक अम्मा की हठ की वजह से. जब तब खिड़की से धूप छनकर आ जाती है और उसमें बिखरे रेत के कण हमें अहसास दिलाते हैं कि उजली दुनिया में कितनी गंदगी है!

सुमधुर परिणय



नेह के बंधन हृदय में, संग सजनी पथ खड़ी
मुझको तो ऐसा लगे, बस यही विदा की घड़ी

माँग पर टीका तुम्हारे, रात तारों से सजी
कह दो के तुमको भी, थी प्रतीक्षा मेरी
नभ झुका है सामने, हमको ये आशीष देने
मेरे लिए प्रमाण हो तुम हर साक्ष्य से बड़ी

नेह है, अर्पण है अब, तुमको है मेरा समर्पण
दुःख तुम्हारे सब मेरे, प्रेम का तर्पण इसी क्षण
योद्धा हूँ मैं तुम्हारा, तुम मेरी हो सारथी
ये अमिट सिंदूर रेखा माँग पर जब है चढ़ी

इंद्रियां कब वश किसी के, तुम बनी छठ इंद्रिय
काशी, काबा, गंगासागर, मेरे सब तीरथ यही
सात अजूबे दुनिया में, तुम हो मेरी आठवीं
अर्धांगिनी हो तुम मेरी, मैं तुम्हारा हूँ ऋणी

श्रीमान सुधांशु अंकल और श्रीमती सुधा आंटी की प्रेममय वैवाहिक वर्षगाँठ के सुअवसर पर!

बंकिम और वंदे



आज यानी कि 27 जून बांग्ला साहित्य के धरोहर बंकिम चन्द्र चटर्जी की पुण्यतिथि है. साहित्य जगत में इनका योगदान अविस्मरणीय है परंतु "वंदे मातरम" के माध्यम से जन-जन तक पहुँच गए. ७ नवम्वर १८७६ बंगाल के कांतल पाडा गांव में बंकिम चन्द्र चटर्जी ने ‘वंदे मातरम’ की रचना की. मूलरूप से ‘वंदे मातरम’ के प्रारंभिक दो पद संस्कृत में थे, जबकि शेष गीत बांग्ला भाषा में लिखा गया.


वन्दे मातरम्

सुजलां सुफलाम्

मलयजशीतलाम्

शस्यश्यामलाम्

मातरम्।


शुभ्रज्योत्स्नापुलकितयामिनीम्

फुल्लकुसुमितद्रुमदलशोभिनीम्

सुहासिनीं सुमधुर भाषिणीम्

सुखदां वरदां मातरम्॥ १॥ 


कोटि कोटि-कण्ठ-कल-कल-निनाद-कराले

कोटि-कोटि-भुजैर्धृत-खरकरवाले,

अबला केन मा एत बले।

बहुबलधारिणीं 

नमामि तारिणीं

रिपुदलवारिणीं 

मातरम्॥ २॥


तुमि विद्या, तुमि धर्म

तुमि हृदि, तुमि मर्म

त्वम् हि प्राणा: शरीरे

बाहुते तुमि मा शक्ति,

हृदये तुमि मा भक्ति,

तोमारई प्रतिमा गडी मन्दिरे-मन्दिरे॥ ३॥


त्वम् हि दुर्गा दशप्रहरणधारिणी

कमला कमलदलविहारिणी

वाणी विद्यादायिनी,

नमामि त्वाम्

नमामि कमलाम्

अमलां अतुलाम्

सुजलां सुफलाम् 

मातरम्॥४॥


वन्दे मातरम्

श्यामलाम् सरलाम्

सुस्मिताम् भूषिताम्

धरणीं भरणीं 

मातरम्॥ ५॥

(आनन्दमठ से संकलित)


१९५० में ‘वंदे मातरम’ राष्ट्रीय गीत बना. डॉ॰ राजेन्द्र प्रसाद का "वंदे मातरम" के बारे में संविधान सभा को दिया गया वक्तव्य इस प्रकार है…


"शब्दों व संगीत की वह रचना जिसे जन गण मन से सम्बोधित किया जाता है, भारत का राष्ट्रगान है; बदलाव के ऐसे विषय, अवसर आने पर सरकार अधिकृत करे और वन्दे मातरम् गान, जिसने कि भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में ऐतिहासिक भूमिका निभायी है; को जन गण मन के समकक्ष सम्मान व पद मिले. मैं आशा करता हूँ कि यह सदस्यों को सन्तुष्ट करेगा. (भारतीय संविधान परिषद, द्वादश खण्ड, २४-१-१९५०)"


वंदे मातरम गीत से बढ़कर एक भावना है जिसकी अनुभूति भारत देश में रहने वाले हर नागरिक को करनी चाहिए. यही कारण है कि विविधताओं से भरे इस देश में आज भी सर्व सम्मति से एकाकार है.

जय हिंद! जय भारत!

प्रेम में विरह गीत



 वेदना की देहरी पर मृत्यु का आभास करने

पीर की हल्दी सजाए, तुमको आना ही पड़ेगा


शुष्क साँसे थम रही हैं, शब्दों का तुम पान दो

भींच कर छाती से मुझको, अधरों पे मेरा नाम लो

किस घड़ी ये साँस छूटे, देह हो पार्थिव मेरी

पुष्प लेकर अंजलि में, शूल का आभास करने

प्रेम का रिश्ता निभाए, तुमको आना ही पड़ेगा


न कोई मंगल की बेला, न शहनाई का शोर हो

न हो कोई डोली विदा की, न चतुर्शी की भोर हो

छोड़ूँ जब बाबुल की नगरी तुम डगरिया में मिलो

नेह के अंतिम क्षणों में बस मिलन का विषपान हो

तीस्ते नीले गरल में, अमिय का आभास करने

हिय, दर्द के बंधन छुपाए तुमको आना ही पड़ेगा


ये धरा साक्षी समर की, प्रेम से पावन है नभ

हैं जलिधि का नीर आँखें, आशीष देते गिरि सब

आए आचमन को पयोधि, पवन अस्थियों के तर्पण को

आग के श्रंगार तक रुक जाना तुम विसर्जन को

वेदना के इन क्षणों में, वेदना का ह्रास करने

रति की वाणी मुख लगाए, तुमको आना ही पड़ेगा.

क्षमा प्रार्थी

ब्लॉग जगत के अपने सुधी मित्रों से हाथ जोड़कर क्षमा मांग रही हूँ. पिछले कई महीनों से मेरे पोस्ट पर आ रही प्रतिक्रियाओं को पढ़ पा सकने में असमर्थ थी कारण कुछ तकनीक का मुझसे छूट जाना या ऐसा कह लीजिए कि मेरा तकनीकी रुप से अशिक्षित होना. इतने दिनों से आ रही प्रतिक्रिया मॉडरेशन के लिए चली जाती थी और मेरे पास कोई संदेश भी न आता. ब्लॉग बनाते समय मैंने मॉडरेशन मोड नहीं लगाया था तो कभी जाँचने का प्रयास भी नहीं किया. संभवतः थीम बदलते समय असावधानी वश लग गया. आप सभी सुधीजनों के ऊर्जावान शब्दों को मैं इतने दिन तक पढ़ नहीं पाई...आज इस बात का बहुत दुःख हो रहा है.

यह कोई पोस्ट नहीं एक क्षमायाचना है, कृपया आप लोग इसे अन्यथा न लीजिएगा. मैं अकिंचन अभी इतनी बड़ी लेखक नहीं हूँ कि आपके निरन्तर मिल रहे स्नेह को मॉडरेट करूँ. अगर आप में से कोई भी मुझे ये बताना चाहे कि ये प्रक्रिया हटाकर अविलम्ब प्रतिक्रिया कैसे प्रकाशित हो, तो सहर्ष स्वागत है.

धन्यवाद 🙏

कालिदास की जयंती पर विशेष


हमारा इतिहास प्रकाण्डता से कितना परिपूर्ण है इसका आभास पिछले पन्ने खोलकर देखने पर होता है. कालिदास, हां यह एक ऐसा नाम है जिनकी कल्पना करने पर सहसा हमें मूर्धन्यता से विद्वानता तक की राह याद आती है. हम सुमिरन कराते चलें कि कालिदास की गणना इतिहास के उन मूर्खों में की जाती है, जिनका विवाह संस्कृत भाषा की प्रकांड विदुषी विद्योत्तमा से हुआ. अनजाने में हुए विवाह से विद्योत्तमा को बहुत ठेस पहुंचती है और वह एक मूर्ख को अपना पति स्वीकार न करके उन्हें घर से निकाल देती हैं साथ ही यह भी कहती हैं कि मेरे पास आना तो विद्वान बनकर आना. मूर्ख कालिदास ने सच्चे मन से काली देवी की आराधना की और उनके आशीर्वाद से विद्वान बन गए. विद्योत्तमा की धिक्कार को उन्होंने नकारात्मक न लेकर सकारात्मक लिया और उन्हें ही अपना पथ प्रदर्शक एवं गुरु माना.
कालिदास के जीवन से दो बातों की गहन शिक्षा मिलती है… पहली तो ये कि पथ कितना भी दुर्गम हो, गन्तव्य तक पहुंचना असम्भव नहीं. दूसरी शिक्षा यह कि मौन व्याकुलता और विकलता से परे एक ऐसी शक्ति है जो किसी के भी मनोभावों को कई अर्थ में प्रवाहमान रख सकता है. हम किसी के मौन को अपना गुरु मान लें और सकारात्मक सोच पर चलना प्रारम्भ कर दें तो अजेय रह सकते हैं.
सुनना यदि श्रेष्ठ है तो मौन की अनुभूति श्रेष्ठतम.


आईने वाली राजकुमारी: भाग IV


चेतक हवा से बातें कर रहा और राजकुमारी स्वयं से. उनका मन उलझनों से घिर रहा था और वो उड़कर महल तक पहुँचना चाहती हैं. महल में पहुँचते ही सर्वप्रथम रानी माँ के गले लग जाएँगी और उन्हें विस्तार से बताएँगी कि उनके साथ क्या-क्या घटित हुआ. जीवन के अठारह वर्ष यही तो करती आयीं हैं. माँ के अंक में शिशु की भाँति समा जाना. विह्वल सी होकर चेतक को एड़ पर एड़ लगाए जा रहीं थीं. सहसा ही चेतक की धीमी होती गति ने संकेत दिया, महल समीप ही है. मुख्य द्वार के सामने पहुँचते ही राजकुमारी चेतक को सैनिक के हवाले कर भीतर की ओर भागीं.
"तुम चेतक के साथ दौड़ की स्पर्धा करने गयीं थी क्या?"
"क्यों माँ सा, आपने ये प्रश्न क्यों किया? हम तो चेतक की लगाम थामकर उड़ते चले आए"
"तुम्हारी बढ़ी हुई श्वांस को देखकर कहा. कहीं कुछ अघटित तो नहीं घटित हुआ?"
"कैसा अघटित माँ सा? वैसे भी जो होता है वो पूर्व निर्धारित ही होता है फिर उसे अघटित क्यों कहें?"
"आज अपनी प्रथम यात्रा में ही ऐसा प्रतीत हो रहा कि तुम बहुत कुछ सीखकर आयी हो" रानी माँ ने विस्मय से राजकुमारी के नेत्रों में देखकर कहा. इस पर राजकुमारी मौन होकर दूसरी ओर देखने लगीं…'लग रहा माँ सा ने हमारा चेहरा पढ़ लिया' आगे कुछ भी बोलना उन्होंने उपयुक्त नहीं समझा. नन्हा सा मन इसी क्षण बड़ा हो गया कि उसने पलों में समस्या सुलझाती माँ सा के सामने असत्य का सहारा लिया. उन्हें भान हो गया यदि माँ सा को सारी बात पता चली तो अकेले नहीं जाने देंगी. राजकुमारी को अभी इसका आभास कहाँ कि अपनों के सामने बोला गया पहला असत्य उन्हें कठिनाइयों के हाथ को कठपुतली भी बना सकता है.
"माँ सा हमें थकान हो रही"
"जाओ विश्राम करो" इतना सुनते ही राजकुमारी अपने कक्ष की ओर बढ़ी. उन्हें विश्राम से अधिक एकांत की आवश्यकता थी. जल- प्रक्षालन कर अपने शयनगृह में आ गयीं. न चाहते हुए भी आँख बंद करने पर "वो" राजकुमारी की यादों में आ गया. उन्होंने झट से आँखें खोल दीं. सिरहाने जल रहे दीये की बाती पर तर्जनी रख दी. शयनगृह अंधेरे की आभा से आलोकित हो उठा और वो उन स्मृतियों से…'किसी चेहरे में इतना आकर्षण कैसे हो सकता है'...उनके मन का एक भाग उस ओर खिंच रहा था जिसे वापस लाने का निरर्थक प्रयास वो करती रहीं. कभी उजाले से भागकर तो कभी अंधेरों में स्वयं को समेटकर. स्नेह की एक अनदेखी डोर पर मन बावरा हो चला. शब्द तो नकारे जा सकते थे पर मन के भाव नहीं. उनकी सोच में तो यह तक आ गया कि...उसने कुछ देर और रुकने को उन्हें विवश क्यों नहीं किया!

शब्दों की छुअन और मैं


तुम्हारा हाथ अपने हाथों में लेकर
सदियों तक बैठना चाहती हूँ तुम्हारे पास
और तुमसे पूछना चाहती हूँ वो सब कुछ
जो मैं तुम्हें पढ़ते हुए महसूस कर पाती हूँ…
कैसे उतरती हैं मुंडेरें छत से
शाम की ढलती धूप में,
कैसे कागज रोता है शब्दों से गले लगने को,
कैसे प्रेमी की आँखों में रात होती है,
कैसे सपने मुरझाकर आकाश की हथेली पर
हल्दी रखते हैं सूरज वाली,
कैसे देख सकते हो आसमान में लाल रंग उतरना,
सियाह रात में धनक का खिल जाना,
खिलती होगी पलाश से
जंगल की आग
मैं तो तुम्हारे भावों की बिछावन पर
मन सेकती हूँ.
कैसे तुम शब्दों को इतना प्रेम सिखा पाते हो!
इन्हें पढ़ते ही इनसे कर बैठती हूँ आलिंगन
गोया तुम यहीं हो
और मैं... 
मैं तो बस स्नेह की कठपुतली
जिसकी डोर तुम्हारे शब्दों ने
अपनी उंगलियों में फंसा रखी है
जितना चाहो हँसती हूँ
जितना चाहो रोती हूँ
यह तुम्हारे शब्द भी ना
जाने इतने जीवित से क्यों होते हैं!
कभी-कभी पीछे से आकर
अचानक कंधे पर हाथ रख देते हैं
जब मुड़कर देखती हूँ
तो आंखें फिरा लेते हैं
ये तुम्हारे शब्द पसंद करते हैं
मेरी आंखों से चूमा जाना
इन्हें भाता है मेरे दर्द का जिमाना
मगर कहते नहीं कभी मुकर जाते हैं
कि बोल भी सकते हैं.

आईने वाली राजकुमारी: भाग III


गतांक से आगे--


"तो आप द्वैत गढ़ की राजकुमारी हैं?" उन अपरिचित ने प्रश्न कर राजकुमारी का ध्यान भंग करने की चेष्टा की.
"हम किन शब्दों में अपना परिचय दें तो आप समझेंगे?" राजकुमारी ने भी पलटवार किया.
"आप अपनी जिह्वा को अधिक विश्राम नहीं देती हैं?"
"आप प्रश्न अधिक नहीं करते हैं?"
"हमें आपके प्रत्युत्तर भाते हैं"
राजकुमारी के नेत्रों में न परन्तु हृदय पर हाँ की छाप लग चुकी थी.
"आप यहाँ आती रहती हैं क्या?"
"हम क्यों बताएँ?"
"हम पूछ रहे क्या ये कारण पर्याप्त नहीं?"
"आप तो हमसे ऐसे कह रहे जैसे हमारे सखा हों!"
"आप हमारी सखी तो हैं"
"हमने कब ऐसा कहा? हम तो आपसे बात भी नहीं कर रहे"
"बात तो आप अब भी कर रहीं और तो और हमें अंजुरि में जल भरकर दिया"
"बात करने का तो कुछ और ही प्रयोजन है और जल देकर तृष्णा बुझायी"
"आपको देखते ही रेत का एक जलजला हमारे भीतर ठहर गया और आप कहती हैं तृष्णा बुझ गयी"
"आप हमें बातों के जाल में उलझा रहे हैं"
"आपके नेत्रों ने हमारा आखेट किया है"
"यह कैसा आरोप है?"
"क्या प्रमाण नहीं चाहेंगी?"
"---"
"हमें अनुमति दीजिए कि हम आपके हृदय के स्पंदन की अनुभूति कर आपको प्रमाण दे सकें!"
"हमारा हृदय...स्पंदन...प्रमाण...बेसिरपैर की बात कर रहे हैं आप"
"विवाद नहीं सुंदरी अनुभव कीजिए"
इतना सुनते ही राजकुमारी के हृदय का स्पंदन गति पकड़ने लगा. स्वयं को बचाने के प्रयास से वहाँ से वापस जाना ही उपयुक्त लगा.
"कहाँ चली सुंदरी...सुनिए तो...हम पूर्णिमा की संध्या यहीं झील के किनारे आपकी प्रतीक्षा करेंगे. आपको आना ही होगा अगर हमारे चन्द्रमा से मिलना को प्रतीक्षारत हैं आप..."
राजकुमारी ने जाते हुए इतना सुन लिया था. तेज गति से चेतक की ओर भागी. बैठते ही एड़ लगायी और चैन की साँस ली.
अगला भाग पढ़ने के लिए कल तक की प्रतीक्षा...

मेरी पहली पुस्तक

http://www.bookbazooka.com/book-store/badalte-rishto-ka-samikaran-by-roli-abhilasha.php