To explore the words.... I am a simple but unique imaginative person cum personality. Love to talk to others who need me. No synonym for life and love are available in my dictionary. I try to feel the breath of nature at the very own moment when alive. Death is unavailable in this universe because we grave only body not our soul. It is eternal. abhi.abhilasha86@gmail.com... You may reach to me anytime.
आज क्रिसमस है
'सुनो आज की चाय हम साथ नहीं पी सकते क्या...एक समय, एक ही मेज पर जिसका एक हिस्सा तुम अपने लैपटॉप के लिए रखते थे और दूसरा मैं यूं ही मोबाइल पर उंगलियां फिराते हुए तुम्हें कनखियों से ताकने के लिए रख छोड़ती थी, हूबहू एक ही स्थिति में बैठे हुए...याद है पिछले साल...?' मेरा संदेश अग्रसारित होते ही त्वरित उत्तर आ गया.
साथ ही एक चित्र भी... वही मुस्कुराता हुआ चेहरा, मेज की उसी छोर पर...जैसे अपलक मेरी आंखों में देखते हुए दिल में उतर रहा हो...और एक चाय का प्याला मेरे लिए...
शहर बदल गया तो क्या हुआ सर्द रातों का गर्म अहसास तो अब तक वही है.
सोने से पहले
काश कि मां रेगिस्तान हो जाती...!
"कहां था बेटा...फोन तक नहीं उठाया..." मां की आवाज डूब रही थी पर तीन हफ़्ते बाद लौटे बेटे को देखकर आंखें चमक उठीं.
"अब बच्चा नहीं रहा मैं और बात-बात पर फोन करना मेरी आदत नहीं. वैसे भी अगर कुछ हो जाता क्या कर लेती. ट्रेन पलटने लगती तो हाथ लगाकर रोक लेती क्या?" बेटा सप्तम स्वर में बोल रहा था तभी फो
न की घंटी बजी.
'हां जान, ठीक से पहुंच गया हूं. मैं तुम्हें फोन करने ही वाला था. और मॉम कैसी हैं...मेरा बिल्कुल भी मन नहीं था कि इस हालत में तुम्हें छोड़कर आऊं. कैसे देखभाल करोगी उनकी...' कहता हुआ बेटा एक हाथ में ट्रॉली बैग, दूसरे में हैंड बैग और कान के नीचे मोबाइल दबाए हुए कमरे में चला जा रहा था उधर दरवाजे के पीछे खड़ी मां की सांसे घुट रहीं थीं. गर्लफ्रेंड की मां की तीमारदारी के लिए पिछले तीन हफ्ते से 500 किलोमीटर दूर अनजान सी आबो-हवा में जीकर अब शायद वो दर्द की चाशनी में भीगे आंसू अनदेखा कर सकता है. काश कि मां भी रेगिस्तान हो जाती!
पहली तारीख...
इकतीस दिनों के महीने का
आखिरी वाला दिन
कितनी नाउम्मीदी और
बेचैनी से बीतता है
एक बंधी हुई
तनख्वाह उठाने वाला
साधारण सा मध्यमवर्गीय
परिवार बता सकता है,
रसोईं घर के खाली बजते हुए कनस्तर
खाने की मेज पर कम हुई फलों की मात्रा
फ्रिज में मुँह चिढ़ाती महज पानी की बोतलें
दाल में बढ़ गयी तरलता
बच्चों का आखिरी पन्ने पर घना-घना लिखना
बाबूजी का टूटा हुआ चश्मा धागे से बाँधना
हर महीने की बीस तारीख को
मुन्नी की गुल्लक इस आश्वासन पर तोड़ना
कि इस बार तो सूद के साथ भरेगी
बहुत डरावना होता है
बीस से तीस के बीच का सफर
जब विवशता में एक और दिन जुड़ता है
बहुत खीझ आती है
क्यों लंबी हुई अवधि महीने की
जबकि बाबू तो इस बार भी
वही पतला सा नोटों का लिफाफा देगा,
ये समझे बिना
कि मुन्ना इकतीस को भी
दूध की उतनी ही शीशी माँगता है
काला धुँआ छोड़ता इनका स्कूटर
उसी ईंधन में दफ्तर पहुँचता है
फिर भी गृहणी
उम्मीद पर मुस्कराती है
कि कल पहली तारीख है
सब ठीक हो जाएगा।
तुम्हारी शुभ यात्रा
मंजिल की ओर उठा हुआ
तुम्हारा पहला कदम
अनवरत बढ़ता रहे,
तुम्हारी सोच के
आकार का विस्तार
हर दिशा में हो
तुम्हारी सफलता
हर उपमा से परे हो
तुम्हारा यश आलोकित हो...
'तुम'...
'तुम'
क्या हो तुम
ठहरी हुई झील
गिरता हुआ झरना
बहती हुई नदी
अथाह समंदर
या फिर
उसको भी समाहित करता
महासागर;
नहीं
इनमें से कुछ भी नहीं हो तुम
तुम तो एक बूंद हो
......
हाँ वहीं
जिसमें हाइड्रोजन और ऑक्सीजन
का संयोजन हैं हम
तुम अगर सूत्र हो
तो समीकरण हैं हम.
जब हम...तब तुम
बेड नंबर एट...और तुम
हममें हमको बस...'तुम' दे दो
क्या यही प्यार है?
'सुनो न, ये मेहंदी कैसी लग रही'
'आज तुम पूरी की पूरी बहुत खूबसूरत लग रही हो' कहते हुए हैंग आउट पर ही कुछ उबासी ली।
'अच्छा देखो...तुम्हें नींद आ रही है थक गए होगे...आराम करो'
'नहीं डार्लिंग तुम्हारे लिए तो...' कहते हुए एक और उबासी।
'...अच्छा इतना कहती हो तो ठीक है सुबह बात करते हैं' हैंग आउट ओवर...पत्नी को नींद नहीं आई, उसने अपनी बहुत पुरानी आई डी लॉगिन की...सामने पति की ही आई डी दिख गई...मजाक के मूड में फ्रेंड रिक्वेस्ट कर दी..रिक्वेस्ट एक्सेप्टेड..और एक के बाद एक मैसेज आने लगे...
गलती से पत्नी ने मैसेज कर दिया 'आप सोए नहीं अब तक'
'मतलब...क्या कहना चाहती हैं आप?'
'सॉरी मेरा मतलब रात के दो बजे रहे..तभी पूछा'
15 मिनट तक फॉर्मल बातें और सफेद झूठ की रंगीनियां चलती रहीं...अचानक ही स्क्रीन पर एक मैसेज दिखता है..
'क्या इतनी रात तक भी तुम फॉर्मल ही रहती हो बेबी...अब कुछ रोमांटिक भी हो जाए'
'रोमांटिक उफ़्फ़ वीडियो चैट पर आते हैं...'
वीडियो चैट पर आते ही पति की आँखों से नींद गायब और उसे अब तक मदद की दरकार है करवा-चौथ पर अपनी पत्नी का सामना कैसे करे।
आओ न प्रेम को अमर कर दो
फिर भी पूरा जनम है
सात फेरे न सही
हम तेरे तो हैं,
सुहाग का चूड़ा, बिछुआ, महावर
आरती का थाल
सब कुछ सजाया है
अब मान भी जाओ हमारी मनुहार
आज चंदा को अपनी नथ बनाना है
चाँदनी की पालकी में
प्रेम डगरिया जाना है,
पीपल की ओट से
स्नेह का दिया मत दिखाना
छत पर चाँद उतरने का भ्रम मत बनाना,
हमें तो दूर आसमानों में फैली
वो लाली चाहिए,
पूरा चाँद तो तुम ही हो मेरे;
कभी मन में पसर जाती है
उम्मीदों की अमावस
तब तुम्हीं तो हो न जब आँखें झुकाकर
स्वीकारोक्ति देते हो
अपने होने की, हमारे साथ हर पल,
हम नेह के सूत पर
आँखें मूँदकर चल पड़ते हैं,
तुम्हारा होना हमारे मन का उजाला जो है,
तुम हो तो हम हैं
अब आओ भी
मन कितना प्रेम-पिपासु हो रहा,
शब्दों के छज्जे पर
इसकी वय न ढ़लाओ,
श्री-गणेश कर दो कि
मन से मन का एकाकार तो हो गया
देह को हमारे नाम से मुक्त कर दो
हमें पतिता बना दो,
समा लो हमें खुद में
समर्पण का गठबंधन करा दो,
सोंख लो बून्द-बून्द हमारे कौमार्य की
हमें ईश की ब्याहता बना दो
बहुत हो गया बातों का परिणय
अब तो हमें अमरपान करा दो!
मेरी ऑटोबायोग्राफी..
दर्द तो लिख सकता है लिखनेवाला
पर स्वयं का दर्द लिखने का
साहस कहाँ से लाऊँ,
तुम जितना समझोगे मुझे
सरकती जाएंगी सोंच की दीवारें
ढ़ह जाएंगे कल्पनाओं के महल
क्योंकि स्तब्ध होती रहेंगी
तुम्हारे किन्तु-परन्तु की पगडंडियां;
सच इतना वीभत्स नहीं
जो छोड़ते जा रहे हो ऊपर शब्दों में
बल्कि सच
संवेदनाओं की खौलती तरलता में
जबरन धकेली जा रही
निरीह आत्मा है,
जिस सच को सोचकर भी
हैवानियत तक झनझना उठे
वो पलों में जिया है मैंने,
क्या-क्या लिखूँ और क्यों लिखूँ
यही बात रोककर रखती है मुझे
कितनी ही बार मेरी खुशियाँ
हाथों में आकर ऐसे सरक जाती हैं
जैसे रेत पर समंदर का पानी
कोई निशान तक नहीं रह जाता,
कैसे कहूँ ये सब
कि मैं भी कमज़ोर पड़ जाती थी;
किन शब्दों में लिखूँ वो यातना
जो युवा होते ही प्रेम करने पर मिली थी
तीन दरवाजों के अंदर होने पर भी
बार-बार सांकल देखी जाती थी
और सींखचों पर उगा दिए गए थे
झरबेरी के काँटे,
मैं मन ही मन मुस्काई थी
कि यही तो मेरी स्वतंत्रता है...
उन दिनों में लिख डाली थी मैंने
अपने मन की इबारतें,
क्योंकि बाहर निकलते ही
फिर से देनी थी मुझे गोबर पर
अपनी हथेलियों की थापें,
और वो भी तो दर्द का महासमर था
जब उन्नीस की होते ही
चालीस पार कर चुके पतझड़ के साथ
पहली ही रात...उस भयंकर दर्द के बीच
मेरे अंगों की नाजुकता
क्षीण-क्षीण हुई थी
....फिर पूरे नौ महीने बाद
मैंने बेटी जनी थी..
दूसरी बार मेरा प्रेम के सोपान पर
कदम बढ़ा ही था कि
बेटी के नाम पर
हर तरह का जहर पिलाया गया,
....विधवा की तरह सर मुंडाया गया
जबकि चीख़-चीख़ कर पूँछती रही,
'मैं सधवा थी ही कब...'
मैं लिख तो देती ये सब शब्दशः
पर नंगे पाँव के छालों को
अम्ल की जमीन पर कैसे उतार दूँ..
इससे बेहतर है मैं
हिरोशिमा-नागासाकी की
त्रासदी लिखूँ,
मलाला का इंकलाब लिखूँ,
शहीदों की विधवाएँ लिखूँ,
बाल-विवाह, छुआ-छूत
गरीबी की मार लिखूँ,
भले ही
खाईं में गिरती अर्थव्यवस्था का दर्द लिखूँ,
पर अपनी हार...
कब होगी मुझे स्वीकार..
मैं स्मरण हूँ...
माँ होना...
मेरे भीतर की स्त्री ने दम तोड़ दिया था,
जब माँ सा ये कलेजा मजबूत किया था।
स्नेह दिया था, किसी का खून था उसमें,
वो नौ महीने तो मेरे गर्भनाल से जिया था।
सामजिक सरोकारों में परखी जाने लगी,
जैसे ममतामयी होकर अपराध किया था।
रातों में रखके सोने लगी ममता सिरहाने,
वेदना और प्रेम, फ़र्ज़ ने निचोड़ दिया था।
सिंदूर, महावर अग्नि के फेरे भुलाने पड़े
जब सारे ही रिश्तों ने मुंह फेर लिया था।
अभागन सी कभी, खुद में बैठी थी ठगी,
रात अकेले जागकर मैं नैपी बदलती रही।
सारे बच्चे ऊँगली थामकर जब दौड़ने लगते,
मेरे बच्चे की घुटरन के मुझे अरमान जगते।
क्या ख़ुशी देती जिंदगी सँवारने में लग गई,
बस डॉक्टर और दवाइयों तक सिमट गई।
मेरा संसार बड़ा है पर हूँ मैं नितांत अकेली,
जीवन जीने के लिए, सारी रस्मों से खेली।
मुझे प्रेम और दर्द बेपनाह चिढ़ाता है जब,
बच्चा अकेले अस्तित्व पर सवाल उठाता है।
सारी ख़ुशी तो दे दूँ पर रिश्ता कहाँ से लाऊँ,
उसे वो प्यार देकर अपना सम्मान बचाऊँ।
एक करुण माँ की पुकार
मेरी अनाया...
और सोते ही खयालों में
मारक ज़हर
...यक़ीनन हम इंतज़ार में हैं
सुसाइड नोट
मेरा अस्तित्व
पाकीज़गी इश्क़ की
ऐसे तो रिटायर मत हो बाबूजी
आज बाबूजी उठे नहीं थे
अम्मा काम समेटने में व्यस्त
कि घर थोड़ा सा सही हो जाए
तो उनके नहाने का पानी गर्म करें
बार-बार घड़ी देखतीं
फिर छनकते हुए बर्तन सहसा सम्हालतीं
कहीं नींद न टूट जाए,
रोष तो बस बाबूजी को था
अब क्या?
अम्मा तो यही चाहती ही थीं
कि आज वो सोते रहें
और अपने उनतालीस सालों की
अनवरत थकान मिटा लें,
जिम्मेदारियों की परिधि में घूम-घूम कर
कितने हवाई चप्पलों का तला
गायब ही कर दिया था,
महीने में एक दिन मिलने वाली तनख्वाह
जी पाती थी महज 30 दिनों के
राशन की उम्मीदें
बेटे की पढ़ाई,
बेटी का ब्याह
ये सब तो उस अग्रिम राशि के प्रतीक थे
जिसे गरीबी निवारक 'कर्ज' कहते हैं
जो सपने देखने की अनुमति भर देता है,
सेवानिवृत्ति से पहले कर्ज निवृत्ति हुई
फिर मना था जश्न उस सफर का
जो उनकी मुस्कान थी,
सीधे शब्द और लिबास वाले बाबूजी
दस से पांच और पांच से दस
दो पालियों में जीते रहे
सुबह का शंखनाद
ट्रेन की सीटी
लंच की घण्टी
और पीक आवर का ट्रैफिक जाम
दिनचर्या में फर्क न डाल पाते
अम्मा लंच के डिब्बे के साथ
शाम का सब्जी का थैला देना न भूलतीं
अपने सन होते बालों पर भी
चेहरे की ताजगी सजीव रखते,
कभी अम्मा कहती बाल काले करने को
तो मुस्करा देते,
'तुम भी तो लिपस्टिक के सारे शेड
भूल चुकी हो'
अपनी जोहराजबीं को
आंखों ही आंखों में निहाल कर देते,
जिंदादिली की मिसाल हैं बाबूजी
बहुत इच्छा जताते..
...अभी कुछ दिन और काम करूं..
अम्मा गमले में लगे
पौधों का वास्ता देतीं
'अब तक तो बरगद बनकर छांव दी
अब तुम्हें इस ठौर का होकर रहना है'
........
बोगनविलिया की
अचानक मुरझाई पत्ती को देखकर
अम्मा अंदर भागी...
वो चीखती रही
मगर बाबूजी नहीं उठे!
मेरी पहली पुस्तक
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