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ये मेरे आखिरी शब्द
जो कल डायरी बन जाएंगे;
एक भयंकर अंतर्द्वंद्व,
उथल-पुथल का जीता-जागता उदाहरण हैं
मैं, मेरे मैं को
मिट्टी में मिलाने जा रही हूँ,
माँ, हो सके तो माफ कर देना मुझे
इस देह पर बिना हक़ का
हक़ जता रहीं हूँ,
पापा, तुम्हारा दिया हुआ आत्मसम्मान
न बचा पाई,
जो भी सजा दोगे आप मंजूर है
बस पापा बोलूँ तो मुंह मत फेरना:
ये मत सोचना कि तुम्हारी बेटी
मर गई है,
मैं जीना चाहती हूँ पापा
मगर इस देह में
हर पल एक नई मौत मरकर नहीं
बल्कि जिस्म के इस पिंजड़े से आज़ाद होकर,
आज मैं बोलूँ तो कौन है सुनने वाला
कल, मेरी श्राध्द के बाद से
कोई होगा जो हर शाम
मेरे यादों की तकिया अपने सिरहाने रखेगा,
पापा, तुम रोज तर्पण करना
अंजुलि भर दाल-चावल और
होंठों में नमी लाने भर का पानी;
कपड़े, गहने, गीत-संगीत
कुछ भी मुझे अर्पण मत करना,
इन सबका मैं क्या करूँगी,
दर्द भर स्याही से
जीवन भर कागज पर लिखी
जो मेरी थाती है न,
बस इसे ही समझना:
कई बार जताया था मैंने
कि मैं भंवर में हूँ,
कई बार समझाया था ज़िन्दगी को
कि मैं जीना चाहती हूँ,
वक़्त आगे बढ़ता गया
और मैं जीने की जिजीविषा हारती रही:
जब वेदना की आखिरी चट्टान पर थी
तब भी दृढ़ थी,
बस एक झोंके से आत्मविश्वास ढ़ह गया
और उस पल एक तिनका तक न दिखा
जिसपर मैं बाकी का सफर करती,
आज साँस छोड़ रही हूँ,
देह छोड़ रही हूँ,
अनथकी आत्मा बस यहीं रहेगी:
पापा, जो साँसें नहीं बचा सकते
क्या वो ज़िन्दगी का मोल समझेंगे कभी?
क्या इतना काफी नहीं
कि मैं सफ़र करूँ??
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