मारक ज़हर

'बापू सहर जात हौ पेड़ा लेत आयो' कलुआ की बात सुनते ही नन्हकू ने खाली जेब में हाथ डाला।
'सुनत हौ बप्पा की खांसी गढ़ाई रही न होते कौनो सीसी लाय देते सहर ते...इत्ते दिन ते परे-परे खाँसत हैं..करेजा हौंक जात है..'
'हम सहर बिरवा हलावे नाइ जाइ रहेन..देखी जाय डॉकटर अम्मा का कब लै छुट्टी देइ.. जैसे जेब फाटी जाय रही नोटन ते..यू सब लेत आयो..' सारी खीझ अपनी पत्नी पर निकालते हुए नन्हकू शहर जाने के लिए पगडंडी के रास्ते बढ़ा जा रहा था। लाचार पिता घर पर पड़ा था, माँ शहर के सरकारी अस्पताल में आखिरी साँसे गिन रही थी। इस समय उसकी चिंता का सबब बस एक ही था...अगर माँ को कुछ हो गया तो उसे शहर से गांव लाने और अंतिम संस्कार का खर्च कहाँ से आएगा, उसका रोम-रोम कर्ज से डूब गया था...अब कौन देगा पैसा...ईमान के अलावा और है ही क्या उसके पास?
वह मुक्ति चाहता था। अपना रास्ता बदलकर सीधा दवा की दुकान पहुँचा। मारक जहर लेकर घर की रास्ता पकड़ी। दरवाजे पर पहुंचते ही सन्न रह गया। शायद बड़कू अम्मा के मरने की खबर लाया था। पिता को देखकर कलुआ पेड़ा लेने की आस में उससे लिपट गया। जेब में हाथ डाला और खुशी-खुशी घर के अंदर भाग गया। घर के बाहर लोगों का जमावड़ा था, मिट्टी लाने की बात चल रही थी। 
कुछ देर बीता ही था कि कलुआ की माँ चीखते हुए बाहर भागी, 'हमार कलुआ के मुँह से फेना काहे आ रहा..कलुआ के बापू?' नन्हकू की घिग्गी बँध गई और वह अचेत होकर गिर पड़ा...कलुआ वो मारक जहर खा चुका था।

...यक़ीनन हम इंतज़ार में हैं


कभी तो थोड़ा हंस दिया करो
जब हम खुश होते हैं,
कभी तो दिल बहला दिया करो
जब ये आंसू रोते हैं,
उस छोटी सी तिपाई पर
याद है न,
नुक्कड़ वाली दुकान में
जब वो 'चाय' ठुकराई थी हमने
और वो खूबसूरत सा इतवार
जब 'कॉफ़ी' का ऑफर था तुम्हारा
हमने बस इतना ही तो कहा था
...हम इंतज़ार करेंगे 
वक़्त अच्छा होने तक...
कितने खूबसूरत अहसास
दे जाते हो कभी,
बेख़ौफ़ घूमना
बेवजह हँसना
जैसे समय और नज़ारे
तुमने हमारी चुन्नी में टांक दिए थे,
आज वक़्त तुम्हारा है
मगर तुमने रिश्ते की
एक-चौथाई जमीन से भी
हमें बाहर कर दिया,
हम यादों की मखमली घुटन में हैं
वक़्त-बेवक्त, ख़याल दर ख़याल
तड़प है कि
रिसती जा रही है,
आज हमें वो 'चाय'
वो नुक्कड़
वो दुकान
और तुम्हारा आग्रह
बहुत याद आ रहे हैं,
आओ न!
फिर एक बार
फिर एक शाम
'चाय' के नाम,
हम भी जी लें थोड़ा
भले ही किश्तों में।

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सुसाइड नोट


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ये मेरे आखिरी शब्द
जो कल डायरी बन जाएंगे;
एक भयंकर अंतर्द्वंद्व,
उथल-पुथल का जीता-जागता उदाहरण हैं
मैं, मेरे मैं को
मिट्टी में मिलाने जा रही हूँ,
माँ, हो सके तो माफ कर देना मुझे
इस देह पर बिना हक़ का
हक़ जता रहीं हूँ,
पापा, तुम्हारा दिया हुआ आत्मसम्मान
न बचा पाई,
जो भी सजा दोगे आप मंजूर है
बस पापा बोलूँ तो मुंह मत फेरना:
ये मत सोचना कि तुम्हारी बेटी
मर गई है,
मैं जीना चाहती हूँ पापा
मगर इस देह में 
हर पल एक नई मौत मरकर नहीं
बल्कि जिस्म के इस पिंजड़े से आज़ाद होकर,
आज मैं बोलूँ तो कौन है सुनने वाला
कल, मेरी श्राध्द के बाद से
कोई होगा जो हर शाम
मेरे यादों की तकिया अपने सिरहाने रखेगा,
पापा, तुम रोज तर्पण करना
अंजुलि भर दाल-चावल और 
होंठों में नमी लाने भर का पानी;
कपड़े, गहने, गीत-संगीत
कुछ भी मुझे अर्पण मत करना,
इन सबका मैं क्या करूँगी,
दर्द भर स्याही से
जीवन भर कागज पर लिखी
जो मेरी थाती है न,
बस इसे ही समझना:
कई बार जताया था मैंने
कि मैं भंवर में हूँ,
कई बार समझाया था ज़िन्दगी को
कि मैं जीना चाहती हूँ,
वक़्त आगे बढ़ता गया
और मैं जीने की जिजीविषा हारती रही:
जब वेदना की आखिरी चट्टान पर थी
तब भी दृढ़ थी,
बस एक झोंके से आत्मविश्वास ढ़ह गया
और उस पल एक तिनका तक न दिखा
जिसपर मैं बाकी का सफर करती,
आज साँस छोड़ रही हूँ,
देह छोड़ रही हूँ,
अनथकी आत्मा बस यहीं रहेगी:
पापा, जो साँसें नहीं बचा सकते
क्या वो ज़िन्दगी का मोल समझेंगे कभी?
क्या इतना काफी नहीं
कि मैं सफ़र करूँ??

मेरा अस्तित्व

आज बच्चे को अस्पताल ले जाना था..ऑफिस से छुट्टी लेनी पड़ी..पहुंचने में देर हो गई नम्बर आने में वक़्त था..पतिदेव मुझपर बरस पड़े, 'तुम्हारी वजह से हुआ ये, ऑफिस में लंच के बाद पहुंचने को बोला था अब क्या करूं?'
'मैडम आप प्लीज किनारे आकर लड़ाई कर लीजिए, मुझे झाड़ू मारना है' मैं स्वीपर की बात पर किटकिटा कर रह गई।
'तुम गेम खेल रहे हो और तुम्हारी वजह से मैं टॉर्चर हो रही हूं। सौ बार बोला है वक़्त देखकर काम किया करो।' बेटे के हाथ से मोबाइल लेकर मैं सुकून की तलाश में फेसबुक लॉग इन करके किनारे बैठ गई।
यही कोई 10 मिनट के बाद बॉस की प्रोफाइल पर एक अपडेट आती है, '.... निःसन्देह एक कर्मठ एम्प्लॉई थीं पर ऑफिस से बेटे की बीमारी का बहाना करके छुट्टी लेकर फेसबुक पर सक्रिय पाई जाती हैं। मैं नहीं चाहता कि इनकी इस हरकत का असर फर्म के अन्य एम्प्लॉई पर पड़े। इनकी सेवाएं तत्काल प्रभाव से समाप्त की जा रही हैं।'
'तभी कहता हूं एक भी काम सही से नहीं होता तुमसे। क्या जरूरत थी इसकी...' पतिदेव का तंज मेरे रोष को और बढ़ा गया। बहुत मुश्किल से हाथ आई जॉब मेरे सपनों को किरच-किरच तोड़ रही थी और मेरा अस्तित्व प्रश्नचिन्ह के घेरे में था।

पाकीज़गी इश्क़ की



पुरकशिश, दिलकश सी है तुम्हारी छुअन
कैसे रहते भला इश्क़ में नापाक हम
वो इरादतन था तुम्हारा
हमें बाहों में समा लेना
हम ज़र्रा-ज़र्रा तुम्हारे
हर इरादे पे मर गए
जब भी देखी तुम्हारी नज़र हमपे
हम खुद में ही सिहर गए,
कैसे छोड़ोगे इस रात में
इस आँचल की सरगोशी,
फेंक दो न ये हया का क़तरा
चूमने दो अपनी पेशानी,
फैला दो अपनी आँखों का पहरा
हो जाने दो हमें खुद से दर-ब-दर
आओ न कि वक़्त की टहनी से लिपटकर
दो बातें कर लें
खून तो बहता है हर रोज रगों में
आज ये साँसें भर लें
बड़ी किस्मत से मिले हैं ये लम्हे
इन्हें जाया न करो
पास बुलाने की कभी हमको
वजह तो बताया न करो,
दिल में उठ रही तुमको हर भँवर की कसम
इश्क़ के मौसम की हर लहर की कसम
सीने की धड़कनों पे अपने कान तो रख
मचल रहे अपने भीतर के इशारे को समझ
आज ले लेने दो हमको वो सोंधी सी महक
आज की रात करने दो सिसकियों में गुजर
यूँ ही आँखों-आँखों में हो जाने दो सहर
तुमको हमारे भीतर की कस्तूरी की कसम
हर आहट पर इश्क़ की मंजूरी है सनम
ज़र्द हुआ चेहरा, सर्द पाँवों पे करम कर दो
इन आँखों पे इक नज़र की रहम कर दो
बन जाने दो हमें इश्क़ के मजमून का
गुलाबी वो सफर,
जहाँ मोहब्बत को लग जाती है
महबूब की नज़र!

ऐसे तो रिटायर मत हो बाबूजी

आज बाबूजी उठे नहीं थे
अम्मा काम समेटने में व्यस्त
कि घर थोड़ा सा सही हो जाए
तो उनके नहाने का पानी गर्म करें
बार-बार घड़ी देखतीं
फिर छनकते हुए बर्तन सहसा सम्हालतीं
कहीं नींद न टूट जाए,
रोष तो बस बाबूजी को था
अब क्या?
अम्मा तो यही चाहती ही थीं
कि आज वो सोते रहें
और अपने उनतालीस सालों की
अनवरत थकान मिटा लें,
जिम्मेदारियों की परिधि में घूम-घूम कर
कितने हवाई चप्पलों का तला
गायब ही कर दिया था,
महीने में एक दिन मिलने वाली तनख्वाह
जी पाती थी महज 30 दिनों के
राशन की उम्मीदें
बेटे की पढ़ाई,
बेटी का ब्याह
ये सब तो उस अग्रिम राशि के प्रतीक थे
जिसे गरीबी निवारक 'कर्ज' कहते हैं
जो सपने देखने की अनुमति भर देता है,
सेवानिवृत्ति से पहले कर्ज निवृत्ति हुई
फिर मना था जश्न उस सफर का
जो उनकी मुस्कान थी,
सीधे शब्द और लिबास वाले बाबूजी
दस से पांच और पांच से दस
दो पालियों में जीते रहे
सुबह का शंखनाद
ट्रेन की सीटी
लंच की घण्टी
और पीक आवर का ट्रैफिक जाम
दिनचर्या में फर्क न डाल पाते
अम्मा लंच के डिब्बे के साथ
शाम का सब्जी का थैला देना न भूलतीं
अपने सन होते बालों पर भी
चेहरे की ताजगी सजीव रखते,
कभी अम्मा कहती बाल काले करने को
तो मुस्करा देते,
'तुम भी तो लिपस्टिक के सारे शेड
भूल चुकी हो'
अपनी जोहराजबीं को
आंखों ही आंखों में निहाल कर देते,
जिंदादिली की मिसाल हैं बाबूजी
बहुत इच्छा जताते..
...अभी कुछ दिन और काम करूं..
अम्मा गमले में लगे
पौधों का वास्ता देतीं
'अब तक तो बरगद बनकर छांव दी
अब तुम्हें इस ठौर का होकर रहना है'
........
बोगनविलिया की
अचानक मुरझाई पत्ती को देखकर
अम्मा अंदर भागी...
वो चीखती रही
मगर बाबूजी नहीं उठे!

मेरी पहली पुस्तक

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